Rag Darbari

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Rag Darbari Page 5

by Shrilal Shukla


  लड़कों ने जवाब में हँसना शुरू कर दिया। हँसी का कारण हिन्दी–अंग्रेज़ी की बहस नहीं, ‘साला’ का मुहावरेदार प्रयोग था।

  वे बोले, ‘‘यह हँसी की बात नहीं है।’’

  लड़कों को यक़ीन न हुआ। वे और ज़ोर से हँसे। इस पर मास्टर मोतीराम खुद उन्हीं के साथ हँसने लगे। लड़के चुप हो गए।

  उन्होंने लड़कों को माफ़ कर दिया। बोले, ‘‘रिलेटिव डेंसिटी नहीं समझते हो तो आपेक्षिक घनत्व को यों–दूसरी तरकीब से, समझो। आपेक्षिक माने किसी के मुक़ाबले का। मान लो, तुमने एक आटाचक्की खोल रखी है और तुम्हारे पड़ोस में तुम्हारे पड़ोसी ने दूसरी आटाचक्की खोल रखी है। तुम महीने में उससे पाँच सौ रुपया पैदा करते हो और तुम्हारा पड़ोसी चार सौ। तो तुम्हें उसके मुक़ाबले ज़्यादा फ़ायदा हुआ। इसे साइंस की भाषा में कह सकते हैं कि तुम्हारा आपेक्षिक लाभ ज़्यादा है। समझ गए ?’’

  एक लड़का बोला, ‘‘समझ तो गया मास्टर साहब, पर पूरी बात शुरू से ही ग़लत है। आटाचक्की से इस गाँव में कोई भी पाँच सौ रुपया महीना नहीं पैदा कर सकता।’’

  मास्टर मोतीराम ने मेज़ पर हाथ पटककर कहा, ‘‘क्यों नहीं कर सकता ! करनेवाला क्या नहीं कर सकता !’’

  लड़का इस बात से और बात करने की कला से प्रभावित नहीं हुआ। बोला, ‘‘कुछ नहीं कर सकता। हमारे चाचा की चक्की धकापेल चलती है, पर मुश्किल से दो सौ रुपया महीना पैदा होता है।’’

  ‘‘कौन है तुम्हारा चाचा ?’’ मास्टर मोतीराम की आवाज़ जैसे पसीने से तर हो गई। उन्होंने उस लड़के को ध्यान से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम उस बेईमान मुन्नू के भतीजे तो नहीं हो ?’’

  लड़के ने अपने अभिमान को छिपाने की कोशिश नहीं की। लापरवाही से बोला, ‘‘और नहीं तो क्या ?’’

  बेईमान मुन्नू बड़े ही बाइज़्ज़त आदमी थे। अंग्रेज़ों में, जिनके गुलाबों में शायद ही कोई खुशबू हो, एक कहावत है : गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, वह वैसा ही खुशबूदार बना रहेगा। वैसे ही उन्हें भी किसी भी नाम से क्यों न पुकारा जाए, बेईमान मुन्नू उसी तरह इत्मीनान से आटाचक्की चलाते थे, पैसा कमाते थे, बाइज़्ज़त आदमी थे। वैसे बेईमान मुन्नू ने यह नाम खुद नहीं कमाया था। यह उन्हें विरासत में मिला था। बचपन से उनके बापू उन्हें प्यार के मारे बेईमान कहते थे, माँ उन्हें प्यार के मारे मुन्नू कहती थी। पूरा गाँव अब उन्हें बेईमान मुन्नू कहता था। वे इस नाम को उसी सरलता से स्वीकार कर चुके थे, जैसे हमने जे. बी. कृपलानी के लिए आचार्यजी, जे. एल. नेहरू के लिए पण्डितजी या एम. के. गांधी के लिए महात्माजी बतौर नाम स्वीकार कर लिया है।

  मास्टर मोतीराम बेईमान मुन्नू के भतीजे को थोड़ी देर तक घूरते रहे। फिर उन्होंने साँस खींचकर कहा, ‘‘जाने दो !’’

  उन्होंने खुली हुई किताब पर निगाह गड़ा दी। जब उन्होंने निगाह उठायी तो देखा, लड़कों की निगाहें उनकी ओर पहले से ही उठी थीं। उन्होंने कहा ‘‘क्या बात है ?’’

  एक लड़का बोला, ‘‘तो यही तय रहा कि आटाचक्की से महीने में पाँच सौ रुपया नहीं पैदा किया जा सकता ?’’

  ‘‘कौन कहता है ?’’ मास्टर साहब बोले, ‘‘मैंने खुद आटाचक्की से सात–सात सौ रुपया तक एक महीने में खींचा है। पर बेईमान मुन्नू की वजह से सब चौपट होता जा रहा है।’’

  बेईमान मुन्नू के भतीजे ने शालीनता से कहा, ‘‘इसका अफ़सोस ही क्या, मास्टर साहब ! यह तो व्यापार है। कभी चित, कभी पट ! कम्पटीशन में ऐसा ही होता है।’’

  ‘‘ईमानदार और बेईमान का क्या कम्पटीशन ? क्या बकते हो ?’’ मास्टर मोतीराम ने डपटकर कहा। तब तक कॉलिज का चपरासी उनके सामने एक नोटिस लेकर खड़ा हो गया। नोटिस पढ़ते–पढ़ते उन्होंने कहा, ‘‘जिसे देखो मुआइना करने को चला आ रहा है...पढ़ानेवाला अकेला, मुआइना करनेवाले दस–दस !’’

  एक लड़के ने कहा, ‘‘बड़ी ख़राब बात है !’’

  वे चौंककर क्लास की ओर देखने लगे। बोले, ‘‘यह कौन बोला ?’’

  एक लड़का अपनी जगह से हाथ उठाकर बोला, ‘‘मैं मास्टर साहब ! मैं पूछ रहा था कि आपेक्षिक घनत्व निकालने का क्या तरीक़ा है !’’

  मास्टर मोतीराम ने कहा, “आपेक्षिक घनत्व निकालने के लिए उस चीज़ का वजन और आयतन यानी वॉल्यूम जानना चाहिए–उसके बाद आपेक्षिक
घनत्व निकालने का तरीक़ा जानना चाहिए। जहाँ तक तरीक़े की बात है, हर चीज़ के दो तरीक़े होते हैं। एक सही तरीक़ा, एक ग़लत तरीक़ा। सही तरीक़े का सही नतीजा निकलता है, ग़लत तरीक़े का गलत नतीजा। इसे एक उदाहरण देकर समझाना ज़रूरी है। मान लो तुमने एक आटाचक्की लगायी। आटाचक्की की बढ़िया नयी मशीन है, खूब चमाचम रखी है, जमकर ग्रीज़ लगायी गई है। इंजन नया है, पट्टा नया है। सबकुछ है, पर बिजली नहीं है, तो क्या नतीजा निकलेगा ?’’

  पहले बोलनेवाले लड़के ने कहा, ‘‘तो डीजल इंजिन का इस्तेमाल करना पड़ेगा। मुन्नू चाचा ने किया था !’’

  मास्टर मोतीराम बोले, ‘‘यहाँ अकेले मुन्नू चाचा ही के पास अक्ल नहीं है। इस क़स्बे में सबसे पहले डीजल इंजिन कौन लाया था ? जानता है कोई ?’’

  लड़कों ने हाथ उठाकर कोरस में कहा, ‘‘आप ! आप लाये थे !’’ मास्टर साहब ने सन्तोष के साथ मुन्नू के भतीजे की ओर देखा और हिक़ारत से बोले, ‘‘सुन लिया। बेईमान मुन्नू ने तो डीजल इंजिन मेरी देखादेखी चलाया था। पर मेरी चक्की तो यह कॉलिज खुलने से पहले से चल रही थी। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत के लिए हर आटा पिसवानेवाले से सेर–सेर भर आटे का दान लिया गया। मेरी ही चक्की में पिसकर वह आटा शहर में बिकने के लिए गया। मेरी ही चक्की पर कॉलिज की इमारत का नक्शा बना और मैनेजर काका ने कहा कि, ‘मोती, कॉलिज में तुम रहोगे तो मास्टर ही, पर असली प्रिंसीपली तुम्हीं करोगे।’ सबकुछ तो मेरी चक्की पर हुआ और अब गाँव में चक्की है तो बेईमान मुन्नू की ! मेरी चक्की कोई चीज़ ही न हुई !’’

  लड़के इत्मीनान से सुनते रहे। यह बात वे पहले भी सुन चुके थे और किसी भी समय सुनने के लिए तैयार रहते थे। उन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा। पर मुन्नू के भतीजे ने कहा, ‘‘चीज़ तो मास्टर साहब आपकी भी बढ़िया है और मुन्नू चाचा की भी। पर आपकी चक्की पर धान कूटनेवाली मशीन ओवरहालिंग माँगती है। धान उसमें ज़्यादा टूटता है।’’

  मास्टर मोतीराम ने आपसी तरीक़े से कहा, ‘‘ऐसी बात नहीं है। मेरे–जैसी धान की मशीन तो पूरे इलाके़ में नहीं है। पर बेईमान मुन्नू कुटाई–पिसाई का रेट गिराता जा रहा है। इसीलिए लोग उधर दौड़ते हैं। हर हिन्दुस्तानी की यही हालत है। दो पैसे की जहाँ किफ़ायत हो, वह उधर ही मुँह मारता है।’’

  ‘‘यह तो सभी जगह होता है,’’ लड़के ने तर्क किया।

  ‘‘सभी जगह नहीं, हिन्दुस्तान ही में ऐसा होता है। हाँ...’’ उन्होंने कुछ सोचकर कहा, ‘‘तो रेट गिराकर अपना घाटा दूसरे लोग तो दूसरी तरह से–गाहकों का आटा चुराकर–पूरा कर लेते हैं। अब मास्टर मोतीराम जिस शख़्स का नाम है, वह सबकुछ कर सकता है, यही नहीं कर सकता।’’

  एक लड़के ने कहा, “ आपेक्षिक घनत्व निकालने का तरीक़ा क्या निकला ?’’

  वे जल्दी से बोले, ‘‘वही तो बता रहा था।’’

  उनकी निगाह खिड़की के पास, सड़क पर ईख की गाड़ियों से तीन फ़ीट ऊपर जाकर, उससे भी आगे क्षितिज पर अटक गई। कुछ साल पहले के चिरन्तन भावाविष्ट पोज़वाले कवियों की तरह वे कहते रहे, ‘‘मशीन तो पूरे इलाके में वह एक थी; लोहे की थी, पर शीशे–जैसी झलक दिखाती थी... ?’’

  अचानक उन्होंने दर्ज़े की ओर सीधे देखकर कहा, ‘‘तुमने क्या पूछा था ?’’

  लड़के ने अपना सवाल दोहराया, पर उसके पहले ही उनका ध्यान दूसरी ओर चला गया था। लड़कों ने भी कान उठाकर सुना, बाहर ईख चुरानेवालों और ईख बचानेवालों की गालियों के ऊपर, चपरासी के ऊपर पड़नेवाली प्रिंसिपल की फटकार के ऊपर– म्यूज़िक–क्लास से उठनेवाली हारमोनियम की म्याँव–म्याँव के ऊपर–अचानक ‘भक्–भक्–भक्’ की आवाज़ होने लगी थी। मास्टर मोतीराम की चक्की चल रही थी। यह उसी की आवाज़ थी। यही असली आवाज़ थी। अन्न–वस्त्र की कमी की चीख़–पुकार, दंगे-फ़साद के चीत्कार, इन सबके तर्क के ऊपर सच्चा नेता जैसे सिर्फ़ आत्मा की आवाज़ सुनता है, और कुछ नहीं सुन पाता; वही मास्टर मोतीराम के साथ हुआ। उन्होंने और कुछ नहीं सुना। सिर्फ़ ‘भक्–भक्–भक्’ सुना।

  वे दर्ज़े से भागे।

  लड़कों ने कहा, ‘‘क्या हुआ मास्टर साहब ? अभी घण्टा नहीं बजा है।’’

  वे बोले, ‘‘लगता है, मशीन ठीक हो गई। देखें, कैसी चलती है।’’

  वे दरवाज़े तक गए, फिर अचानक �
�हीं से घूम पड़े। चेहरे पर दर्द–जैसा फैल गया था, जैसे किसी ने ज़ोर से चुटकी काटी हो। वे बोले, ‘‘किताब में पढ़ लेना। आपेक्षिक घनत्व का अध्याय ज़रूरी है।’’ उन्होंने लार घूँटी। रुककर कहा, ‘‘इम्पार्टेन्ट है।’’ कहते ही उनका चेहरा फिर खिल गया।

  भक् ! भक् ! भक् ! कर्त्तव्य बाहर के जटिल कर्मक्षेत्र में उनका आह्‌वान कर रहा था। लड़कों और किताबों का मोह उन्हें रोक न सका। वे चले गए।

  दिन के चार बजे प्रिंसिपल साहब अपने कमरे से बाहर निकले। दुबला–पतला जिस्म, उसके कुछ अंश ख़ाकी हाफ़ पैंट और कमीज़ से ढके थे। पुलिस सार्जेन्टोंवाला बेंत बग़ल में दबा था। पैर में सैंडिल। कुल मिलाकर काफ़ी चुस्त और चालाक दिखते हुए; और जितने थे, उससे ज़्यादा अपने को चुस्त और चालाक समझते हुए।

  उनके पीछे–पीछे हमेशा की तरह, कॉलिज का क्लर्क चल रहा था। प्रिंसिपल साहब की उससे गहरी दोस्ती थी।

  वे दोनों मास्टर मोतीराम के दर्ज़े के पास से निकले। दर्ज़ा अस्तबलनुमा इमारत में लगा था। दूर ही से दिख गया कि उसमें कोई मास्टर नहीं है। एक लड़का नीचे से जाँघ तक फटा हुआ पायजामा पहने मास्टर की मेज़ पर बैठा हुआ रो रहा था। प्रिंसिपल को पास से गुज़रता देख और ज़ोर से रोने लगा। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या बात है ? मास्टर साहब कहाँ गए हैं ?’’

 

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