यह मज़ाक था। प्रिंसिपल साहब हँसे, एक बार हँसी शुरू हुई तो आगे का काम भंग ने सँभाल लिया। वे हँसते ही रहे। पर क्लर्क व्यक्तिगत आक्षेप के सन्देह से पीड़ित जान पड़ता था। उसने कहा, ‘‘पर चाचा, कॉलिज में तो भूसे के सैकड़ों गोदाम हैं। हरएक के दिमाग़ में भूसा ही भरा है।’’
इस पर और भी हँसी हुई। सनीचर और रंगनाथ भी हँसे। हँसी की लहर चबूतरे तक पहुँच गई। वहाँ पर बैठे हुए दो–चार गुमनाम आदमी भी असम्पृक्त भाव से हँसने लगे। क्लर्क ने प्रिंसिपल को आँख से चलने का इशारा किया।
यह हमारी गौरवपूर्ण परम्परा है कि असल बात दो–चार घण्टे की बातचीत के बाद अन्त में ही निकलती है। अत: वैद्यजी ने अब प्रिंसिपल साहब से पूछा, ‘‘और कोई विशेष बात ?’’
‘‘कुछ नहीं...वही खन्नावाला मामला है। परसों दर्ज़े में काला चश्मा लगाकर पढ़ा रहे थे। मैंने वहीं फींचकर रख दिया। लड़कों को बहका रहे थे। मैंने कहा, लो पुत्रवर, तुम्हें हम यहीं घसीटकर फ़ीता बनाए देते हैं।’’ प्रिंसिपल साहब ने अपने ऊपर बड़ा संयम दिखाया था, पर यह बात ख़त्म करते–करते अन्त में उनके मुँह से ‘फिक्–फिक्’ जैसी कोई चीज़ निकल ही गई।
वैद्यजी ने गम्भीरता से कहा, ‘‘ऐसा न करना चाहिए। विरोधी से भी सम्मानपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। देखो न, प्रत्येक बड़े नेता का एक–एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना–अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतन्त्र का सिद्धान्त है। हमारे नेतागण कितनी शालीनता से विरोधियों को झेल रहे हैं। विरोधीगण अपनी बात बकते रहते हैं और नेतागण चुपचाप अपनी चाल चलते रहते हैं। कोई किसी से प्रभावित नहीं होता। यह आदर्श विरोध है। आपको भी यही रुख अपनाना चाहिए।’’
क्लर्क पर राजनीति के इन मौलिक सिद्धान्तों का कोई असर नहीं हुआ। वह बोला, ‘‘इससे कुछ नहीं होता, चाचा ! खन्ना मास्टर को मैं जानता हूँ। इतिहास में एम.ए. हैं, पर उन्हें अपने बाप तक का नाम नहीं मालूम। सिर्फ़ पार्टीबन्दी के उस्ताद हैं। अपने घर पर लड़कों को बुला–बुलाकर जुआ खिलाते हैं। उन्हें ठीक करने का सिर्फ़ एक तरीक़ा है। कभी पकड़कर दनादन–दनादन लगा दिए जाएँ।...’’
इस बात ने वैद्यजी को और भी गम्भीर बना दिया, पर और लोग उत्साहित हो उठे। बात जूता मारने की पद्धति और परम्परा पर आ गई। सनीचर ने चहककर कहा कि जब खन्ना पर दनादन–दनादन पड़ने लगें, तो हमें भी बताना। बहुत दिन से हमने किसी को जुतिआया नहीं है। हम भी दो–चार हाथ लगाने चलेंगे। एक आदमी बोला कि जूता अगर फटा हो और तीन दिन तक पानी में भिगोया गया हो तो मारने में अच्छी आवाज़ करता है और लोगों को दूर–दूर तक सूचना मिल जाती है कि जूता चल रहा है। दूसरा बोला कि पढ़े–लिखे आदमी को जुतिआना हो तो गोरक्षक जूते का प्रयोग करना चाहिए ताकि मार तो पड़ जाए, पर ज़्यादा बेइज़्ज़ती न हो। चबूतरे पर बैठे–बैठे एक तीसरे आदमी ने कहा कि जुतिआने का सही तरीक़ा यह है कि गिनकर सौ जूते मारने चले, निन्यानबे तक आते–आते पिछली गिनती भूल जाय और एक से गिनकर फिर नये सिरे से जूता लगाना शुरू कर दे। चौथे आदमी ने इसका अनुमोदन करते हुए कहा कि सचमुच जुतिआने का यही एक तरीक़ा है और इसीलिए मैंने भी सौ तक गिनती याद करनी शुरू कर दी है।
6
शहर से देहात को जानेवाली सड़क पर एक साइकिल-रिक्शा चला जा रहा था। रिक्शावाला रंगीन बनियान, हाफपैण्ट, लम्बे बाल, दुबले–पतले जिस्मवाला नौजवान था। उसका पसीने से लथपथ चेहरा देखकर वेदना का फोटोग्राफ़ नहीं, बल्कि वेदना का कार्टून आँख के आगे आ जाता था।
रिक्शे पर अपनी दोनों जाँघों पर हाथों की मुट्ठियाँ जमाए हुए बद्री पहलवान बैठे थे। रिक्शे पर उनके पैरों के पास एक सन्दूक रखा हुआ था। दोनों पैर सन्दूक के सिरों पर जमाकर स्थापित कर दिए गए थे। इस तरह पैर टूटकर रिक्शे के नीचे भले ही गिर जाएँ, सन्दूक के नीचे गिरने का कोई खतरा न था।
सन्ध्या का बेमतलब सुहावना समय था। पहलवान का गाँव अभी तीन मील दूर होगा। उन्होंने शेर की तरह मुँह खोलकर जम्हाई ली और उसी लपेट में कहा, ‘‘इस साल फ़सल कमज़ोर जा रही है।’’
रिक्शावाला कृषि-विज्ञान और अर्थशास्त्र पर गोष्ठी करने के मूड में न था। वह चुपचाप
रिक्शा चलाता रहा। पहलवान ने अब उससे साफ़-साफ़ पूछा, ‘‘किस ज़िले के हो ? तुम्हारे उधर फ़सल की क्या हालत है ?’’
रिक्शेवाले ने सिर को पीछे नहीं मोड़ा। आँख पर आती हुई बालों की लट को गरदन की लोचदार झटक के साथ मत्थे के ऊपर फेंककर उसने कहा, “फ़सल ? हम दिहाती नहीं हैं ठाकुर साहब, ख़ास शहर के रहनेवाले हैं।’’ इसके बाद वह कूल्हे मटका–मटकाकर ज़ोर से रिक्शा चलाने लगा। आगे जानेवाले एक दूसरे रिक्शे को देखकर उसने घण्टी बजायी।
पहलवान ने दूसरी जम्हाई ली और फ़सल की ओर फिर से ताकना शुरू कर दिया। रिक्शावाला सवारी की यह बेरुख़ी देखकर उलझन में पड़ गया। रंग जमाने के लिए उसने आगेवाले रिक्शेवाले को ललकारा, ‘‘अबे ओ बाँगड़ू! चल बायीं तरफ़ !’’
आगे का रिक्शेवाला बायीं तरफ़ हो लिया। पहलवान का रिक्शा उसके पास से आगे निकल गया। निकलते–निकलते इस रिक्शावाले ने बायीं ओर के रिक्शावाले से पूछा, ‘‘क्यों, गोंडा का रहनेवाला है या बहराइच का ?’’
वह रिक्शेवाला एक आदमी को कुछ गठरियों और एक गठरीनुमा बीवी के साथ लादकर धीरे–धीरे चल रहा था। इस भाईचारे से खुश होकर बोला, ‘‘गोंडा में रहते हैं भैया !’’
शहरी रिक्शेवाले ने मुँह से सिनेमावाली सीटी बजाकर और आँखें फैलाकर कहा, ‘‘वही तो।’’
पहलवान ने इसे भी अनसुना कर दिया। साँस खींचकर कहा, ‘‘ज़रा इश्पीड बढ़ाए रहो मास्टर !’’
रिक्शावाला सीट पर उचक–उचककर रफ़्तार बढ़ाने और साथ ही भाषण देने लगा : ‘‘ये गोंडा–बहराइच और इधर–उधर के रिक्शावाले आकर यहाँ का चलन बिगाड़ते हैं। दायें–बायें की तमीज़ नहीं। इनसे ज़्यादा समझदार तो भूसा–गाड़ियों के बैल होते हैं। बिलकुल हूश हैं। अंग्रेज़ी बाज़ारों में बिरहा गाते निकलते हैं। मोची तक को रिक्शे पर बैठाकर उसे ह़ुजूर, सरकार कहते हैं। कोई पूछ दे कि माल एवेन्यू का फ्रैम्पटन स्केयर चलो तो दाँत निकाल देते हैं। इनके बाप ने भी इन जगहों का नाम सुना हो तो– !’’
पहलवान ने सिर हिलाया। कहा, ‘‘ठीक कहते हो मास्टर ! उधरवाले बड़े दलिद्दर होते हैं। सत्तू खाते हैं और चना चबाकर रिक्शा चलाते हैं। चार साल में बीमारी घेर लेती है तो घिघियाने लगते हैं।’’
रिक्शेवाले ने हिक़ारत से कहा, ‘‘चमड़ी चली जाय पर दमड़ी न जाय, बड़े मक्खीचूस होते हैं। पारसाल लू में एक साला रिक्शा चलाते–चलाते सड़क पर ही टें बोल गया। देह पर बनियान न थी, पर टेंट से बाईस रुपये निकले।’’
पहलवान ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘लू बड़ी ख़राब चीज़ होती है। जब चल रही हो तो घर से निकलना न चाहिए। खा–पीकर, दरवाज़ा बन्द करके पड़े रहना चाहिए।’’
बात बड़ी मौलिक थी। रिक्शेवाले ने हेकड़ी से कहा, ‘‘मैं तो यही करता हूँ। गर्मियों में बस शाम को सनीमी के टैम गाड़ी निकालता हूँ। पर ये साले दिहाती रिक्शावाले ! इनकी न पूछिए ठाकुर साहब, साले जान पर खेल जाते हैं। चवन्नी के पीछे मुँह से फेना गिराते हुए दोपहर को भी मीलों चक्कर काटते हैं। इक्के का घोड़ा भी उस वक़्त पेड़ का साया नहीं छोड़ता, पर ये स्साले...।’’
मारे हिक़ारत के रिक्शेवाले का मुँह थूक से भर गया और गला रुँध गया। उसने थूककर बात ख़त्म की, ‘‘साले ज़रा–सी गर्म हवा लगते ही सड़क पर लेट जाते हैं।’’
पहलवान की दिलचस्पी इस बातचीत में ख़त्म हो गई थी। वे चुप रहे। रिक्शावाले ने रिक्शा धीमा किया और बोला, ‘‘सिगरेट पी ली जाए।’’
पहलवान उतर पड़े और रिक्शे पर ज़ोर देकर एक ओर खड़े हो गए। रिक्शेवाले ने सिगरेट सुलगा ली। कुछ देर वह चुपचाप सिगरेट पीता रहा, फिर मुँह से धुएँ के गोल–गोल छल्ले छोड़कर बोला, ‘‘उधर के दिहाती रिक्शावाले दिन–रात बीड़ी फूँक–फूँककर दाँत खराब करते रहते हैं।’’
अब तक पीछे का रिक्शेवाला भी आ गया। फटी धोती और नंगा बदन। वह काँख–काँखकर रिक्शा खींच रहा था। शहरी रिक्शेवाले को देखकर भाईचारे के साथ बोला, ‘‘भैया, तुम भी गोंडा के हो क्या ?’’ सिगरेट फूँकते हुए इस रिक्शेवाले ने नाक सिकोड़कर कहा, ‘‘अबे, परे हट ! क्या बकता है ?’’
वह रिक्शेवाला खिर्र-खिर्र करता हुआ आगे निकल गया।
आज के भावुकतापूर्ण कथाकारों ने न जाने किससे सीखकर बार–बार �
�हा है कि दुख मनुष्य को माँजता है। बात कुल इतनी नहीं है, सच तो यह है कि दुख मनुष्य को पहले फींचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है, फिर निचोड़कर उसके चेहरे को घुग्घू–जैसा बनाकर उस पर दो–चार काली-सफ़ेद लकीरें खींच देता है। फिर उसे सड़क पर लम्बे–लम्बे डगों से टहलने के लिए छोड़ देता है। दुख इन्सान के साथ यही करता है और उसने गोंडा के रिक्शावाले के साथ भी यही किया था। पर शहरी रिक्शावाले पर इसका कोई असर नहीं हुआ। सिगरेट फेंककर उसकी ओर बिना कोई ध्यान दिए उसने अपना रिक्शा तेज़ी से आगे बढ़ाया। दूसरा भाषण शुरू हुआ :
‘‘अपना उसूल तो यह है ठाकुर साहब, कि चोखा काम, चोखा दाम। आठ आने कहकर सात आने पर तोड़ नहीं करते। जो कह दिया सो कह दिया। एक बार एक साहब मेरी पीठ पर बैठे–बैठे घर के हाल–चाल पूछने लगे। बोले, सरकार ने तुम्हारी हालत खराब कर रखी है। रिक्शे पर रोक नहीं लगाती। कितनी बुरी बात है कि आदमी पर आदमी चढ़ता है। मैंने कहा, तो मत चढ़ो। वे कहने लगे, मैं तो इसलिए चढ़ता हूँ कि लोग अगर रिक्शे का बाइकाट कर दें तो रिक्शेवाले भूखों मर जाएँगे। उसके बाद वे फिर रिक्शावालों के नाम पर रोते रहे। बहुत रोये। रोते जाते थे और सरकार को गाली देते जाते थे। कहते जाते थे कि तुम यूनियन बनाओ, मोटर–रिक्शों की माँग करो। न जाने क्या–क्या बकते जाते थे। मगर ठाकुर साहब, हमने भी कहा कि बेटा, झाड़े रहो। चाहे कितना रोओ हमारे लिए, किराये की अठन्नी में एक पाई कम नहीं करूँगा।’’
Rag Darbari Page 11