Rag Darbari

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Rag Darbari Page 16

by Shrilal Shukla


  ‘‘बस ! राम–राम सीताराम ! जैसे काले आदमियों में कोई गोरा फ़ौजी पहुँच गया हो। भगदड़ मच गई। कोई मेरी धोती वापस ला रहा है, कोई कुरता, एक ने जूता दिया, एक ने मेरे हाथ में झोला पकड़ाया। एक मेरे सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, बोला, ‘तुम्हारी दो पूड़ियाँ खा ली हैं। इनके दाम ले लो। पर दुरबीनसिंह से न बताना कि हमने तुम्हें घेरा था। चाहे कुछ पैसा ले लो। और कहो तो पेट फाड़कर पूड़ी निकाल दूँ। हमें क्या पता कि भैया, तुम गँजहा हो !’

  ‘‘फिर तो सब हमें गाँव के पास के ताल तक पहुँचाने आए। बहुत रिरियाते रहे। मैंने भी समझाकर उनके आँसू पोंछ दिए। कहा कि जब तुम घर के आदमी निकले तो फिर पूड़ी खाने का क्या अफ़सोस ! लो, दो–एक और खाओ।

  ‘‘वह आदमी भागा। कहा, ‘दादा, हमने भर पाया। हमें क्या पता था कि तुम गँजहा हो ! बस दादा, दुरबीनसिंह से न कहना।’

  ‘‘हमने कहा, ‘घर चलो, पानी–पत्ता करके जाना। भूखे होओ तो भोजन–भाव कर लेना।’ पर उन्होंने कहा, ‘दादा, अब हमें जाने दो। तुम भी जाकर सोओ। कल सवेरे तक यह सब भूल जाना। किसी से कहना नहीं।’

  ‘‘सो भैया, मैं घर आकर पड़ रहा। सवेरा होते ही मैंने दुरबीनसिंह के जाकर पैर पकड़े कि काका, तुम्हारे नाम में लाल लँगोटवाले का ज़ोर बोल रहा है। तुम्हारा नाम लेकर जान बचा पाया हूँ। दुरबीनसिंह ने पाँव खींच लिए। बोले, ‘जा सनिचरा, कोई फिकिर नहीं। जब तक मैं हूँ, अँधेरे–उजेले में जहाँ मन हो वहाँ घूमा कर। किसी का डर नहीं है। साँप–बिच्छू तू खुद ही निबटा ले, बाक़ी को हमारे लिए छोड़ दे’।’’ यहाँ सनीचर साँस खींचकर चुप हो गया। रंगनाथ समझ गया कि घटिया कहानी–लेखकों की तरह मुख्य बात पर आते–आते वह हवा बाँध रहा है। उसने पूछा, ‘‘फिर तो जब तक दुरबीनसिंह थे, गँजहा लोगों के ठाठ कटते रहे होंगे ?’’

  तब रुप्पन बाबू बोले। उन्होंने रंगनाथ की जानकारी में पहली बार एक साहित्यिक बात कही। साँस भरकर कहा :

  कि पुरुस बली नहिं होत है, कि समै होत बलवान।

  कि भिल्लन लूटीं गोपिका, कि वहि अरजुन वहि बान ॥

  रंगनाथ ने पूछा, ‘‘क्या हो गया रुप्पन बाबू ? क्या शिवपालगंज से कोई तुम्हारी गोपिकाएँ लूट ले गया ?’’

  रुप्पन बाबू ने कहा, ‘‘सनीचर, दूसरावाला क़िस्सा भी सुना दो।’’

  सनीचर ने दूसरा अध्याय शुरू किया :

  ‘‘भैया, लठैती का काम कोई असेम्बली का काम तो है नहीं। असेम्बली में जितने ही बूढ़े होते जाओ, जितनी ही अकल सठियाती जाए, उतनी ही तरक्की होती है। यही हरनामसिंह को देखो। चलने को उठते हैं तो लगता है कि गिरकर मर जाएँगे। पर दिन–पर–दिन वहाँ उनकी पूछ बढ़ रही है। यहाँ लठैती में कल्ले के ज़ोर की बात है। जब तक चले, तब तक चले। जब नहीं चले, तब हलाल हो गए।

  ‘‘अभी पाँच–छ: साल हुए होंगे, मैं कातिक के नहान के लिए गंगा घाट गया था। लौटते–लौटते रात हो गई। यही भोलूपुर के पास रात हुई। बढ़िया चटक चाँदनी। बाग़ के भीतर हम मौज में आ गए तो एक चौबोला गाने लगे। तभी किसी ने पीछे से पीठ पर दायें से लाठी मारी। न राम–राम, न दुआ–सलाम, एकदम से लाठी मार दी। अब भैया, चौबोला तो जहाँ का तहाँ छूटा, झोला बीस हाथ पर जाकर गिरा। डण्डा अलग छिटक गया। मैं चिल्लाने को हुआ कि तीन–चार आदमी ऊपर आ गए। एक ने मुँह दबाकर कहा, ‘चुप बे साले ! गरदन ऐंठ दूँगा !’ मैंने तड़फड़ाकर उठने की कोशिश की, पर भैया, अचकचे में कोई गामा पहलवान पर लाठी छोड़ दे तो वहीं लोट जाएगा, हमारी क्या बिसात ? वहीं मुँह बन्द किए पड़े रहे। थोड़ी देर मैं हाथ–पाँव जोड़ता रहा। इशारा करके कहा कि मैं चिल्लाऊँगा नहीं। तब कहीं उन्होंने मुँह से कपड़ा निकाला। एक ने मुझसे पूछा, ‘रुपया कहाँ है ?’

  ‘‘मैंने कहा, ‘बापू, जो कुछ है, इसी झोले में है।’

  ‘‘झोले में डेढ़ रुपये की रेजगारी थी। एक लुटेरे ने उसे हाथ में खनखनाकर कहा, ‘लँगोटा खोलकर दिखाओगे ?’

  ‘‘मैंने कहा, ‘बापू, लँगोटा न खुलवाओ। उसके नीचे कुछ नहीं है। नंगा हो जाऊँगा।’

  ‘‘बस भैया, वे बिगड़े। उन्होंने समझा कि मैं मज़ाक कर रहा हूँं। फिर तो उन्होंने देह पर से सभी कुछ उतरवाकर तलाशी ली। गाँजा–भाँग की खोज में पुलिसवाले भी ऐसी तलाशी नहीं लेते। जब कुछ नहीं निकला तो उनमें स�
�� एक ने मेरे पीछे एक लात मारी और कहा कि अब चुपचाप मुँह बन्द किए नाक के सामने चले जाओ और अपने दरबे में घुस जाओ।

  ‘‘अब तक मेरी बोली लौट आयी थी। मैंने कहा, ‘बापू, तुम लोगों ने हमारी जान छोड़ दी, यह ठीक ही किया है। माल ले लिया तो ले लिया, उसकी फिकिर नहीं। हम भी तुमको बता दें कि तुम नमक से नमक खा रहे हो। तुम हो सरकार के, तो हम भी हैं दरबार के।’

  ‘‘वे लोग मेरे पास सिमट आए। पूछने लगे, ‘कौन हो तुम ? कहाँ रहते हो ? किसके साथ हो ?’

  ‘‘मैंने कहा, ‘मैं गँजहा हूँ। ठाकुर दुरबीनसिंह के साथ रहता आया हूँ।’

  ‘‘फिर न पूछो भैया रंगनाथ ! सब ठिल्लें मार–मारकर हँसने लगे। एक ने मेरा हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा। मैं सोच भी नहीं पाया था कि वह क्या करने जा रहा है, और उसने एक लँगड़ी मारकर मुझे वहीं चित्त कर दिया।

  ‘‘मैं फिर देह से घास–फूस झाड़कर खड़ा हुआ। एक लुटेरे ने जो नयी उमिर का सजीला जवान था, कहा, ‘यह दुरबीनसिंह किस चिड़िया का नाम है ?’ सब फिर ठी–ठी करके उसी तरह हँसने लगे।

  ‘‘मैंने कहा, ‘दुरबीनसिंह के नहीं जानते बापू ? क्या बाहर से आए हो ? यहाँ दस कोस के इर्द–गिर्द कोई गँजहा लोगों को नहीं टोकता। दुरबीनसिंह के गाँववालों को सभी छोड़कर चलते हैं। मगर बापू, तुम नहीं मानते तो ले जाओ मेरा झोला। कोई बात नहीं।’

  ‘‘लुटेरे फिर ठी–ठी करने लगे। एक बोला, ‘मैं जानता हूँ। अब दुरबीनसिंह के दिन लद गए। ये जितने पुराने लोग थे, थोड़ी लठैती दिखाकर तीसमारखाँ बन जाते थे। इनके दुरबीनसिंह लाठी चलाकर, दो–चार दीवारें फाँदकर बहादुर बन गए। अब बाँस के सहारे दीवारें फाँदना तो स्कूलों तक में सिखा देते हैं।’

  ‘‘एक लुटेरा बोला, ‘लाठी चलाना भी तो सिखाते हैं। मैंने खुद वहीं लाठी चलाना सीखा था।’

  ‘‘पहलेवाला नौजवान बोला, ‘तो यही दुरबीनसिंह बड़े नामवर हो गए। तमंचा तक तो साले के पास है नहीं। चले हैं जागीरदारी फैलाने !’

  ‘‘एक दूसरा लुटेरा हाथ में चोर–बत्ताी लिये खड़ा था। जेब से उसने एक तमंचा निकाला। कहा, ‘देख लो बेटा, यही है छ: गोलीवाला हथियार। देसी कारतूस तमंचा नहीं, असली विलायती,’ कहते–कहते उसने तमंचे की नली हमारी छाती पर ठोक दी। कहता रहा, ‘जाकर बता देना अपने बाप को। अन्धों में काना राजा बनने के दिन लद गए। अब वे पड़े–पड़े खटिया पर रोते रहें। कभी अँधेरे–उजेले में दिख गए तो खोपड़ी का गूदा निकल जाएगा। समझ गए बेटा फकीरेदास !’

  ‘‘इसके बाद भैया, मैं अपने को रोक न पाया। देह में इतना जोश बढ़ा कि डण्डा तक वहीं फेंककर बड़े ज़ोर से हिरन की तरह भागा। मेरे पीछे उन लोगों ने फिर ठहाका लगाया। एक चिल्लाकर बोला, ‘मार साले दुरबीनसिंह को। खड़ा तो रह, अभी मारते–मारते दुरबीन बनाए देता हूँ।’

  ‘‘मगर भैया, भागने में कोई हमारा आज तक मुकाबला नहीं कर पाया। यहाँ स्कूल–कॉलिज में लड़कों को सीटी बजा–बजाकर भागना सिखाते हैं। हम बिना सीखे ही ऐसा भाग के दिखा दें कि खरगोश तक खड़ा–खड़ा पछताता रहे। तो भैया, गाली–वाली उन्होंने बहुत दी, पर हमें वे पकड़ नहीं पाए। किसी तरह से मैं घर आ पहुँचा। दुरबीनसिंह के दिन तब तक गिर गए थे। पुलिस भी भीतर–ही–भीतर उनके ख़िलाफ़ रहने लगी थी। दूसरे दिन हमारा मन बहुत कुलबुलाया, पर हमने यह बात उनसे कही नहीं। कह देते तो दुरबीन काका उसी की ठेस में टें बोल जाते।’’

  रुप्पन बाबू दुखी चेहरे को वज़नी झोले की तरह लटकाए बैठे थे। साँस खींचकर बोले, ‘‘अच्छा ही होता। तब टें हो जाते तो भतीजे के हाथ से तो न मरते।’’

  8

  शिवपालगंज गाँव था, पर वह शहर से नज़दीक और सड़क के किनारे था। इसलिए बड़े–बड़े नेताओं और अफ़सरों को वहाँ तक आने में कोई सैद्धान्तिक एतराज़ नहीं हो सकता था। कुओं के अलावा वहाँ कुछ हैण्डपम्प भी लगे थे, इसलिए बाहर से आनेवाले बड़े लोग प्यास लगने पर, अपनी जान को खतरे में डाले बिना, वहाँ का पानी पी सकते थे। खाने का भी सुभीता था। वहाँ के छोटे–मोटे अफसरों में कोई–न–कोई ऐसा निकल ही आता था जिसके ठाठ–बाट देखकर वहाँवाले उसे परले सिरे का बेईमान समझते, पर जिसे देखकर ये बाहरी लोग आपस में कहते, कितना तमीजदार है। बहुत बड़े खानदान का लड़का है। देख
ो न, इसे चीको साहब की लड़की ब्याही है। इसलिए भूख लगने पर अपनी ईमानदारी को खतरे में डाले बिना वे लोग वहाँ खाना भी खा सकते थे। कारण जो भी रहा हो, उस मौसम में शिवपालगंज में जननायकों और जनसेवकों का आना–जाना बड़े ज़ोर से शुरू हुआ था। उन सबको शिवपालगंज के विकास की चिन्ता थी और नतीजा यह होता था कि वे लेक्चर देते थे।

  वे लेक्चर गँजहों के लिए विशेष रूप से दिलचस्प थे, क्योंकि इनमें प्राय: शुरू से ही वक्ता श्रोता को और श्रोता वक्ता को बेवकूफ़ मानकर चलता था जो कि बातचीत के उद्देश्य से गँजहों के लिए आदर्श परिस्थिति है। फिर भी लेक्चर इतने ज़्यादा होते थे कि दिलचस्पी के बावजूद, लोगों को अपच हो सकता था। लेक्चर का मज़ा तो तब है जब सुननेवाले भी समझें कि यह बकवास कर रहा है और बोलनेवाला भी समझे कि मैं बकवास कर रहा हूँ। पर कुछ लेक्चर देनेवाले इतनी गम्भीरता से चलते कि सुननेवाले को कभी–कभी लगता था यह आदमी अपने कथन के प्रति सचमुच ही ईमानदार है। ऐसा सन्देह होते ही लेक्चर गाढ़ा और फ़ीका बन जाता था और उसका असर श्रोताओं के हाजमे के बहुत ख़िलाफ़ पड़ता है। यह सब देखकर गँजहों ने अपनी–अपनी तन्दुरुस्ती के अनुसार लेक्चर ग्रहण करने का समय चुन लिया था, कोई सवेरे खाना खाने के पहले लेक्चर लेता था, कोई दोपहर को खाना खाने के बाद। ज़्यादातर लोग लेक्चर की सबसे बड़ी मात्रा दिन के तीसरे पहर ऊँघने और शाम को जागने के बीच में लेते थे।

 

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