ऐसा लगा, जैसे बाहर जाने का मतलब जौहर दिखाना था या चक्रव्यूह भेदना था। दोनों भाई बाहर जाने की ज़िद पकड़ गए। रंगनाथ ने शहीदों की–सी अदा में कहा, ‘‘यह है, तो जाइए आप लोग बाहर। मैं ही घर पर रहूँगा।’’
सामने सड़क से चाँदनी में तीन आदमी ‘चोर ! चोर !’ चीखते हुए निकले। उनके पीछे दो आदमी उसी तरह ‘चोर! चोर!’ का नारा बुलन्द करते हुए निकल गए। फिर एक अकेला आदमी उसी तरह ‘चोर ! चोर !’ का हल्ला मचाता हुआ निकला। फिर तीन आदमी और; सबके हाथों में लाठियाँ थीं। सभी दौड़ रहे थे। सभी चोरों को दौड़ा रहे थे।
जुलूस में सबसे बाद में निकलनेवालों में से बद्री ने कुछ को पहचाना। वह भी दौड़कर उन्हीं में मिल गए। पुकारकर बोले, ‘‘कौन है ? छोटे ! चोर कहाँ है ?’’
छोटे ने हाँफते–हाँफते कहा, ‘‘आगे ! आगे निकल गए !’’ कुछ देर शान्ति रही।
रुप्पन बाबू और रंगनाथ बैठक का दरवाज़ा बन्द करके, ताला लगाकर छत पर वापस चले आए। नीचे से वैद्यजी खँखारकर बोले, ‘‘कौन है ?’’
रुप्पन बाबू ने जवाब दिया, ‘‘चोर हैं पिताजी !’’
वैद्यजी घबराहट में गरजकर बोले, ‘‘कौन ? रुप्पन ! तुम छत पर हो ?’’
रुप्पन ने गाँव में उठते हुए शोर को अपनी ओर से यथाशक्ति बढ़ावा देते हुए कहा, ‘‘हाँ, हमीं हैं। क्यों जान–बूझकर पूछ रहे हैं ? चैन से सोते क्यों नहीं ?’’
वैद्यजी अपने छोटे लड़के की यह आदर–भरी वाणी सुनकर चुप हो गए। छत पर रुप्पन बाबू और रंगनाथ गाँव–भर में फैलती–फूटती आवाज़़ों को सुनते रहे।
कोई मकान के पिछवाड़े चिल्लाया, ‘‘मार डाला !’’
और शोर। किसी ने चीख़कर कहा, ‘‘अरे, नहीं छोटे ! यह तो भगौती है।’’
‘‘छोड़ो। इसे छोड़ो। उधर ! उधर ! चोर उधर गए हैं।’’
कोई रो रहा था। किसी ने सान्त्वना दी, ‘‘अरे, क्यों राँड़–जैसा रो रहा है ? एक डण्डा पड़ गया, उसी से फाँय–फाँय कर रहा है।’’
रोते–रोते उसने जवाब दिया, ‘‘हम भी कसर निकालेंगे। देख लेंगे।’’
फिर कुहराम, ‘‘उधर ! उधर! जाने न पाए ! दे दायें से एक लाठी ! मार उछल के ! क्या साला बाप लगता है ?’’
रंगनाथ को उत्साह और उत्सुकता के साथ–ही–साथ मज़ा भी आने लगा। यह भी कैसा नियम है ! यहाँ लाठी चलाते समय बाप ही को अपवाद–रूप में छोड़ दिया जाता है। धन्य है भारत, तेरी पितृ–भक्ति !
रुप्पन बाबू बोले, ‘‘भगौती और छोटे की चल रही थी। लगता है, इसी धमाचौकड़ी में छोटे ने कुछ कर दिया।’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘यह तो बड़ी गड़बड़ बात है।’’
रुप्पन बाबू उपेक्षा के साथ बोले, ‘‘गड़बड़ क्या है ? दाँव लग जाने की बात है। छोटे देखने में भोंदू लगता है, पर बड़ा घाघ है।’’
दोनों फिर चारों ओर की भगदड़ और शोर की ओर कान लगाए रहे। रंगनाथ ने कहा, ‘‘शायद चोर निकल गए।’’
‘‘वह तो यहाँ हमेशा ही होता है।’’
रंगनाथ ने रुप्पन बाबू के ग्राम–प्रेम की चापलूसी करनी चाही। बोले, ‘‘शिवपालगंज में चोर आकर निकल जाएँ, यह तो सम्भव नहीं। बद्री दादा बाहर निकले हैं तो एक–दो पकड़े ही जाएँगे।’’
किसी पुरानी पीढ़ी के नेता की तरह अतीत की ओर हसरत के साथ देखते हुए रुप्पन बाबू ने ठण्डी साँस भरी। कहने लगे, ‘‘नहीं रंगनाथ दादा, अब वह पहलेवाले दिन गए। वह ठाकुर दुरबीनसिंह का ज़माना था। बड़े–बड़े चोर शिवपालगंज के नाम से थर्राते थे।’’
रुप्पन बाबू की आँखें वीर–पूजा की भावना से चमक उठीं। पर बात यहीं रुक गई। शोर का आख़िरी दौर चल निकला था और लोग आसमान फाड़ने के उद्देश्य से बजरंग बली की जय बोलने लगे थे। रंगनाथ ने कहा, ‘‘लगता है, कोई चोर पकड़ा गया।’’
रुप्पन बाबू ने कहा, ‘‘नहीं, मैं गँजहा लोगों को खूब जानता हूँ। चोरों को गाँव से बाहर खदेड़ दिया होगा, चोरों ने खुद इन्हें गाँव के बाहर नहीं खदेड़ा, यही क्या कम है ? इसी खुशी में जय–जयकार लगायी जा रही है।’’
चाँदनी में लोग दो–दो, चार–चार के गुट बनाकर किचमिच–किचमिच करते हुए सड़क और दूसरे रास्तों से आ–जा रहे थे। रुप्पन बाबू ने मुँडेर के पास खड़े होकर देखा। एक गुट ने नीचे से कहा, ‘‘जागते रहना रुप्पन बाबू ! रात–भर होशियारी से रहना।’’
रुप्पन बाबू घृणा के साथ वहीं से बोले, ‘‘जाओ, बह�
�त नक्शेबाज़ी न झाड़ो।’’
रंगनाथ की समझ में नहीं आया कि इतनी अच्छी सलाह का रुप्पन बाबू इस तरह क्यों तिरस्कार कर रहे हेैं। थोड़ी देर बाद यही सलाह गाँव के कोने–कोने में गूँजने लगी, ‘‘जागते रहो, जागते रहो।’’
शोर अब रह–रहकर हो रहा था। चारों ओर सीटियाँ भी सुनायी देने लगी थीं। रंगनाथ ने कहा, ‘‘ये सीटियाँ कैसी हैं ?’’
रुप्पन बाबू बोले, ‘‘क्या पुलिस शहर में गश्त नहीं लगाती ?’’
‘‘ओह ! तो पुलिस भी अब मौके पर आ गई है!’’
‘‘जी हाँ ! पुलिस ने ही तो गाँववालों की मदद से डाकुओं का मुकाबला किया है। पुलिसवालों ही ने तो उन्हें यहाँ से मार भगाया है।’’
रंगनाथ आश्चर्य से रुप्पन बाबू को देखने लगा, ‘‘डाकू ?’’
‘‘हाँ–हाँ, डाकू नहीं तो और क्या ? चाँदनी रात में कभी चोर भी आते हैं ? ये डाकू तो थे ही।’’
रुप्पन बाबू ज़ोर से ठठाकर हँसे। बोले, ‘‘दादा, ये गँजहा लोगों की बातें हैं, मुश्किल से समझोगे। मैं तो, जो अखबार में छपनेवाला है, उसका हाल आपको बता रहा हूँ।”
एक सीटी मकान के बिलकुल नीचे सड़क पर बजी। रुप्पन बोले, ‘‘तुमने मास्टर मोतीराम को देखा है कि नहीं ? पुराने आदमी हैं। दारोग़ाजी उनकी बड़ी इज़्ज़त करते हैं। वे दारोग़ाजी की इज़्ज़त करते हैं। दोनों की इज़्ज़त प्रिंसिपल साहब करते हैं। कोई साला काम तो करता नहीं है, सब एक–दूसरे की इज़्ज़त करते हैं।
‘‘यही मास्टर मोतीराम शहर के अखबार के संवाददाता हैं। उन्होंने चोरों को डाकू भी न बताया तो मास्टर मोतीराम होने से फ़ायदा ही क्या ?’’
रंगनाथ हँसने लगा। सीटियाँ और ‘जागते रहो’ की आवाज़ें दूर–दूर तक बिखरने लगीं। इधर–उधर के मकानों पर लोगों ने दरवाज़े खुलवाने के लिए चीख़ना–चिल्लाना शुरू कर दिया। ‘दरवाज़ा खोल दो मुन्ना’ से लेकर ‘मर गए ससुरे,’ ‘अरे हम पुकार रहे हैं, तुम्हारे बाप’ तक की शैलियाँ दरवाज़ा खुलवाने के लिए प्रयोग में आने लगीं। वैद्यजी के मकान पर भी किसी ने सदर दरवाज़े की साँकल खटखटायी। बाहर लेटनेवाला एक हलवाहा ज़ोर से खाँसा। साँकल दोबारा खटकी। रंगनाथ ने कहा, ‘‘बद्री दादा होंगे। चलो, ताला खोल दें। ’’
वे लोग नीचे आ गए। ताला खोलते–खोलते रुप्पन ने पूछा, ‘‘कौन ?’’
बद्री ने दहाड़कर कहा, ‘‘खोलते हो कि नहीं ? कौन–कौन लगाए हो ?’’
रुप्पन ने ताला खोलना बन्द कर दिया। बोले, ‘‘क्या नाम है ?’’
उधर से गला–फाड़ आवाज़ आयी, ‘‘रुप्पन, कहे देता हूँ, चुपचाप दरवाज़ा खोल दोे ’’ . . .
‘‘कौन ? बद्री दादा ?’’
‘‘हाँ–हाँ, बद्री दादा ही बोल रहा हूँं। खोलो जल्दी।’’
रुप्पन ने ढीले–ढाले हाथों से ताला खोलते हुए कहा, ‘‘बद्री दादा, अपने बाप का नाम भी बता दो।’’
बद्री दादा ने कोसते हुए वैद्यजी का नाम बताया। रुप्पन ने फिर पूछा, ‘‘दादा, ज़रा अपने बाबा का भी नाम बताओ।’’
उन्होंने उसी तरह कोसते हुए बाबा का नाम बताया। फिर पूछा गया, ‘‘परबाबा का नाम ?’’
बद्री ने दरवाज़े पर मुक्का मारा। कहा, ‘‘अच्छा न खोलो, जाते हैं।’’
रुप्पन बाबू ने कहा, ‘‘दादा, ज़माना जोखिम का है। बाहर चोर लोग घूम रहे हैं, इसीलिए पूछ रहा हूँ। परबाबा का नाम भूल गए हो तो न बताओ, पर गुस्सा दिखाने से कोई फायदा नहीं। गुस्से का काम बुरा है।’’
बद्री पहलवान की असलियत की परीक्षा ले चुकने और क्रोध की निस्सारता पर अपनी राय देने के बाद रुप्पन बाबू ने दरवाज़ा खोला। बद्री पहलवान बिच्छू के डंक की तरह तिलमिलाते अन्दर आए। रुप्पन बाबू ने पूछा, ‘‘क्या हुआ दादा? सभी चोर भाग गए?’’
बद्री पहलवान ने कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप ज़ीना चढ़कर ऊपर आ गए। रुप्पन बाबू नीचे ही अन्दर चले गए। ऊपर के कमरे में रंगनाथ और बद्री पहलवान जैसे ही अपनी–अपनी चारपाइयों पर लेटे, तभी नीचे गली से किसी ने पुकारा, ‘‘वस्ताद, नीचे आओ। मामला बड़ा गिचपिच हो गया है।’’
बद्री ने कमरे के दरवाज़े से ही पुकारकर कहा, ‘‘क्या हुआ छोटे ? सोने दोगे कि रात–भर यही जोते रहोगे ?’’
छोटे ने वहीं से जवाब दिया, ‘‘वस्ताद, सोने–वोने की बात छोड़ो। अब तो रपट की बात हो रही है। इधर तो साले गली–गली में ‘च
ोर–चोर’ करते रहे, उधर इसी चिल्लपों में किसी ने हाथ मार दिया। गयादीन के यहाँ चोरी हो गई ! उतर जाओ।’’
11
छत पर कमरे के सामने टीन पड़ी थी। टीन के नीचे रंगनाथ था। रंगनाथ के नीचे चारपाई थी। दिन के दस बजे थे। अब आप मौसम का हाल सुनिए।
कल रात को बादल दिखायी दिए थे, वे अब तक छँट चुके थे। हवा तेज़ और ठण्डी थी। पिछले दिनों गरज़ के साथ छींटे पड़े थे और इस घपले के खत्म हो जाने पर पूस का जाड़ा अब बाकायदा शुरू हो गया था। बाज़ार में बिकनेवाली नब्बे फ़ीसदी मिठाइयों की तरह धूप खाने में नहीं, पर देखने में अच्छी लग रही थी। वह सब तरफ़ थी। पर लगता था सिर्फ़ सामने नीम के पेड़ पर ही फैली है। रंगनाथ नीम पर पड़ती हुई धूप को देख रहा था। नीम के पेड़ शहर में भी थे और धूप को उन पर पड़ने की और रंगनाथ को उसे देखने की वहाँ कोई मुमानियत नहीं थी। पर उसने यह धूप गाँव में ही आकर देखी। ऐसा उसी के नहीं, बहुत–से लोगों के साथ हुआ करता है। वास्तव में यहाँ आ जाने पर रंगनाथ का रवैया उन टूरिस्टों का–सा हो गया था जो सड़कें, हवा, इमारतें, पानी, धूप, देश-प्रेम, पेड़–पौधे, कमीनापन, शराब, कर्मनिष्ठा, लड़कियाँ और विश्वविद्यालय आदि वस्तुएँ अपने देश में नहीं पहचान पाते और उन्हें विदेशों में जाने पर ही देख पाते हैं। तात्पर्य यह है कि रंगनाथ की आँखें धूप की ओर देख रही थीं। पर दिमाग़ हमारी प्राचीन संस्कृति में खोया हुआ था, जिसमें पहले से ही सैकड़ों चीज़ें खोयी हुई हैं और शोधकर्त्ताओं के खोजने से ही मिलती हैं।
Rag Darbari Page 25