खन्ना मास्टर ने बात सँभाली। बोले, ‘‘इनके गुस्से का बुरा न मानें। हम लोग सचमुच ही परेशान हैं। बड़ी मुश्किल है। आप देखिए न, इसी जुलाई में उसने अपने तीन रिश्तेदार मास्टर रखे हैं। उन्हीं को हमसे सीनियर बनाकर सब काम ले रहा है। कुनबापरस्ती का बोलबाला है। बताइए, हमें बुरा न लगेगा ?’’
‘‘बुरा क्यों लगेगा भाई ?’’ गयादीन काँखने लगे, ‘‘तुम्हीं तो कहते हो कि कुनबापरस्ती का बोलबाला है। बैदजी के रिश्तेदार न मिले होंगे, बेचारे ने अपने ही रिश्तेदार लगा दिए।’’
एकाध मास्टर हँसने लगे। गयादीन वैसे ही कहते गए, ‘‘मसखरी की बात नहीं। यही आज का जुग–धर्म है। जो सब करते हैं, वही प्रिंसिपल भी करता है। कहाँ ले जाए बेचारा अपने रिश्तेदारों को ?’’
खन्ना मास्टर को सम्बोधित करके उन्होंने फिर कहा, ‘‘तुम तो इतिहास पढ़ाते हो न मास्टर साहब ? सिंहगढ़-विजय कैसे हुई थी ?’’
खन्ना मास्टर जवाब सोचने लगे। गयादीन ने कहा, ‘‘मैं ही बताता हूँ। तानाजी क्या लेकर गए थे ? एक गोह। उसको रस्से से बाँध लिया और किले की दीवार पर फेंक दिया। अब गोह तो अपनी जगह जहाँ चिपककर बैठ गई, वहाँ बैठ गई। साथवाले सिपाही उसी रस्से के सहारे सड़ासड़ छत पर पहुँच गए।’’
इतना कहते–कहते वे शायद थक गए। इस आशा से कि मास्टर लोग कुछ समझ गए होंगे, उन्होंने उनके चेहरे को देखा, पर वे निर्विकार थे। गयादीन ने अपनी बात समझाई, ‘‘वही हाल अपने मुल्क का है, मास्टर साहब ! जो जहाँ है, अपनी जगह गोह की तरह चिपका बैठा है। टस–से–मस नहीं होता। उसे चाहे जितना कोंचो, चाहे जितना दुरदुराओ, वह अपनी जगह चिपका रहेगा और जितने नाते–रिश्तेदार हैं, सब उसकी दुम के सहारे सड़ासड़ चढ़ते हुए ऊपर तक चले जाएँगे। कॉलिज को क्यों बदनाम करते हो, सभी जगह यही हाल है !’’
फिर साँस खींचकर उन्होंने पूछा, ‘‘अच्छा बताओ तो मास्टर साहब, यह बात कहाँ नहीं है ?’’
मास्टरों का गुट चमरही के पास से निकला। सबके मुँह लटके हुए थे और लगता था कि टपककर उनके पाँवों के पास गिरनेवाले हैं।
‘चमरही’ गाँव के एक मुहल्ले का नाम था जिसमें चमार रहते थे। चमार एक जाति का नाम है जिसे अछूत माना जाता है। अछूत एक प्रकार के दुपाये का नाम है जिसे लोग संविधान लागू होने से पहले छूते नहीं थे। संविधान एक कविता का नाम है जिसके अनुच्छेद 17 में छुआछूत खत्म कर दी गई है क्योंकि इस देश में लोग कविता के सहारे नहीं, बल्कि धर्म के सहारे रहते हैं और क्योंकि छुआछूत इस देश का एक धर्म है, इसलिए शिवपालगंज में भी दूसरे गाँवों की तरह अछूतों के अलग–अलग मुहल्ले थे और उनमें सबसे ज़्यादा प्रमुख मुहल्ला चमरही था जिसे ज़मींदारों ने किसी ज़माने में बड़ी ललक से बसाया था और उस ललक का कारण ज़मींदारों के मन में चर्म–उद्योग का विकास करना नहीं था बल्कि यह था कि वहाँ बसने के लिए आनेवाले चमार लाठी अच्छी चलाते थे।
संविधान लागू होने के बाद चमरही और शिवपालगंज के बाक़ी हिस्से के बीच एक अच्छा काम हुआ था। वहाँ एक चबूतरा बनवा दिया गया था, जिसे गाँधी–चबूतरा कहते थे। गाँधी, जैसा कि कुछ लोगों को आज भी याद होगा, भारतवर्ष में ही पैदा हुए थे और उनके अस्थि–कलश के साथ ही उनके सिद्धान्तों को संगम में बहा देने के बाद यह तय किया गया था कि गाँधी की याद में अब सिर्फ़ पक्की इमारतें बनायी जाएँगी और उसी हल्ले में शिवपालगंज में यह चबूतरा बन गया था। चबूतरा जाड़ों में धूप खाने के लिए बड़ा उपयोगी था और ज्यादातर उस पर कुत्ते धूप खाया करते थे; और चूँकि उनके लिए कोई बाथरूम नहीं बनवाया जाता है इसलिए वे धूप खाते–खाते उसके कोने पर पेशाब भी कर देते थे और उनकी देखादेखी कभी–कभी आदमी भी चबूतरे की आड़ में वही काम करने लगते थे।
मास्टरों के गुट ने देखा कि उस चबूतरे पर आज लंगड़ आग जलाकर बैठा है और उस पर कुछ भून रहा है। नज़दीक से देखने पर पता लगा कि भुननेवाली चीज़ एक गोल–गोल ठोस रोटी है जिसे वह निश्चय ही आसपास घूमनेवाले कुत्तों के लिए नहीं सेंक रहा था। लंगड़ को देखते ही मास्टरों की तबीयत हल्की हो गई। उन्होंने रुककर उससे बात करनी शुरू कर दी और दो मिनट में मालूम कर लिया कि तहसील में जिस नक़ल के लिए �
��ंगड़ ने दरख़्वास्त दी थी, वह अब पूरे क़ायदे से, बिना एक कौड़ी ग़लत ढंग से खर्च किये हुए, उसे मिलने ही वाली है।
मास्टर लोगों को यक़ीन नहीं हुआ।
लंगड़ की बातचीत में आज निराशावाद–धन–नियतिवाद–सही–पराजयवाद–बटा–कुष्ठावाद का कोई असर न था। उसने बताया, ‘‘बात मान लो बापू। आज मैं सब ठीक कर आया हूँ। दरख़्वास्त में दो ग़लतियाँ फिर निकल आई थीं, उन्हें दुरुस्त करा दिया है।’’
एक मास्टर ने खीजकर कहा, ‘‘पहले भी तो तुम्हारी दरख़्वास्त में गलती निकली थी। यह नक़लनवीस बार–बार गलतियाँ क्यों निकाला करता है ? चोट्टा कहीं का !’’
‘‘गाली न दो बापू,’’ लंगड़ ने कहा, ‘‘यह धरम की लड़ाई है। गाली–गलौज का कोई काम नहीं। नक़लनवीस बेचारा क्या करे ! क़लमवालों की जात ही ऐसी है।’’
‘‘तो नक़ल कब तक मिल जाएगी ?’’
‘‘अब मिली ही समझो बापू–यही पन्द्रह–बीस दिन। मिसिल सदर गई है। अब दरख़्वास्त भी सदर जाएगी। नक़ल नहीं बनेगी, फिर वह यहाँ वापस आएगी; फिर रजिस्टर पर चढ़ेगी...’’
लंगड़ नक़ल लेने की योजना सुनाता रहा, उसे पता भी नहीं चला कि मास्टर लोग उसकी बात और गाँधी–चबूतरे के पास फैली हुई बू से ऊबकर कब आगे बढ़ गए। जब उसने सिर ऊपर उठाया तो उसे आसपास चिरपरिचित कुत्ते, सूअर और घूरे–भर दिखायी दिए जिनकी सोहबत में वह दफ़्तर के ख़िलाफ़ धरम की लड़ाई लड़ने चला था।
गोधूलि बेला। एक बछड़ा बड़े उग्र रूप से सींगें फटकारकर चारों पाँवों से एक साथ टेढ़ी–मेढ़ी छलाँगें लगाता हुआ चबूतरे के पास से निकला। वह कुछ देर दौड़ता रहा, फिर आगे एक गेहूँ के हरे–भरे खेत में जाकर ढीला पड़ गया। लंगड़ ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘धन्य हो, दारोग़ाजी !’’
13
तहसील का मुख्यालय होने के बावजूद शिवपालगंज इतना बड़ा गाँव न था कि उसे टाउन एरिया होने का हक़ मिलता। शिवपालगंज में एक गाँव–सभा थी और गाँववाले उसे गाँव–सभा ही बनाए रखना चाहते थे ताकि उन्हें टाउन– एरियावाली दर से ज़्यादा टेक्स न देना पड़े। इस गाँव–सभा के प्रधान रामाधीन भीखमखेड़वी के भाई थे जिनकी सबसे बड़ी सुन्दरता यह थी कि वे इतने साल प्रधान रह चुकने के बावजूद न तो पागलख़ाने गए थे, न जेलख़ाने। गँजहों में वे अपनी मूर्खता के लिए प्रसिद्ध थे और उसी कारण, प्रधान बनने के पहले तक, वे सर्वप्रिय थे। बाहर से अफ़सरों के आने पर गाँववाले उनको एक प्रकार से तश्तरी पर रखकर उनके सामने पेश करते थे। और कभी–कभी कह भी देते थे कि साहेब, शहर में जो लोग चुनकर जाते हैं उन्हें तो तुमने हज़ार बार देखा होगा, अब एक बार यहाँ का भी माल देखते जाओ।
गाँव–सभा के चुनाव जनवरी के महीने में होने थे और नवम्बर लग चुका था। सवाल यह था कि इस बार किसको प्रधान बनाया जाए ? पिछले चुनावों में वैद्यजी ने कोई दिलचस्पी नहीं ली क्याेंकि गाँव–सभा के काम को वे निहायत ज़लील काम मानते थे। और वह एक तरह से ज़लील था भी, क्योंकि गाँव–सभाओं के अफ़सर बड़े टुटपुँजिया क़िस्म के अफ़सर थे। न उनके पास पुलिस का डण्डा था, न तहसीलदार का रुतबा, और उनसे रोज़–रोज़ अपने काम का मुआयना कराने में आदमी की इज़्ज़त गिर जाती थी। प्रधान को गाँव–सभा की ज़मीन–जायदाद के लिए मुक़दमे करने पड़ते थे और शहर के इजलास में वकीलों और हाकिमों का उनके साथ वैसा भी सलूक न था जो एक चोर का दूसरे चोर के साथ होता है। मुक़दमेबाज़ी में दुनिया–भर की दुश्मनी लेनी पड़ती थी और मुसीबत के वक़्त पुलिसवाले सिर्फ़ मुस्करा देते थे और कभी–कभी उन्हें मोटे अक्षरों में ‘परधानजी’ कहकर थाने के बाहर का भूगोल समझाने लगते थे।
पर इधर कुछ दिनों से वैद्यजी की रुचि गाँव–सभा में भी दिखने लगी थी, क्योंकि उन्होंने प्रधानमन्त्री का एक भाषण किसी अख़बार में पढ़ लिया था। उस भाषण में बताया गया था कि गाँवों का उद्धार स्कूल, सहकारी समिति और गाँव–पंचायत के आधार पर ही हो सकता है और अचानक वैद्यजी को लगा था कि वे अभी तक गाँव का उद्धार सिर्फ़ कोअॉपरेटिव यूनियन और कॉलिज के सहारे करते आ रहे थे और उनके हाथ में गाँव–पंचायत तो है ही नहीं। ‘आह !’ उन्होंने सोचा होगा, ‘तभी शिवपालगंज का ठीक से उद्धार नहीं हो रहा है। यही तो मैं कहूँ क
ि क्या बात है ?’
रुचि लेते ही कई बातें सामने आईं। यह कि रामाधीन के भाई ने गाँव–सभा को चौपट कर दिया है। गाँव की बंजर ज़मीन पर लोगों ने मनमाने क़ब्ज़े कर लिये हैं और निश्चय ही प्रधान ने रिश्वत ली है। गाँव–पंचायत के पास रुपया नहीं है और निश्चय ही प्रधान ने ग़बन किया है। गाँव के भीतर बहुत गन्दगी जमा हो गई है और प्रधान निश्चय ही सूअर का बच्चा है। थानेवालों ने प्रधान की शिकायत पर कई लोगों का चालान किया है जिससे सिर्फ़ यही नतीजा निकलता है कि वह अब पुलिस का दलाल हो गया है। प्रधान को बन्दूक का लाइसेंस मिल गया है जो निश्चय ही डकैतियों के लिए उधार जाती है और पिछले साल गाँव में बजरंगी का क़त्ल हुआ था, तो बूझो कि क्यों हुआ था ?
भंग पीनेवालों में भंग पीसना एक कला है, कविता है, कार्रवाई है, करतब है, रस्म है। वैसे टके की पत्ती को चबाकर ऊपर से पानी पी लिया जाए तो अच्छा–खासा नशा आ जाएगा, पर यह नशेबाजी सस्ती है। आदर्श यह है कि पत्ती के साथ बादाम, पिस्ता, गुलकन्द, दूध–मलाई आदि का प्रयोग किया जाए। भंग को इतना पीसा जाए कि लोढ़ा और सिल चिपककर एक हो जाएँ, पीने के पहले शंकर भगवान् की तारीफ़ में छन्द सुनाये जाएँ और पूरी कार्रवाई को व्यक्तिगत न बनाकर उसे सामूहिक रूप दिया जाए।
Rag Darbari Page 30