Rag Darbari

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Rag Darbari Page 38

by Shrilal Shukla


  रंगनाथ थका हुआ–सा चलता रहा। रुप्पन बाबू कह रहे थे, ‘‘मैं न जाता तो वह चुप थोड़े ही होता। तुमको तो उसने क़रीब-क़रीब फाँस लिया था।’’

  वे अपनी धुन में बोलते जा रहे थे। अचानक रंगनाथ ने पूछा, ‘‘रुप्पन, तुमने बेला को प्रेम–पत्र क्यों लिखा था ?’’

  इस बात से रुप्पन बाबू का व्याख्यान लड़खड़ा गया। पर उन्होंने अपने को सँभालकर कहा, ‘‘इतने दिन तुम शहर में रहे हो, यह भी नहीं जानते कि कोई किसी को प्रेम–पत्र क्यों लिखता है !’’

  रंगनाथ को इसका जवाब न सूझा। सिर्फ़ इतना कहा, ‘‘मामा बहुत नाराज़ हो रहे थे।’’

  रुप्पन बाबू तनकर खड़े हो गए। ऐंठकर बोले, ‘‘पिताजी क्या खाकर नाराज़ होंगे। उनसे कहो, मुझसे सीधे बात तो कर लें।

  ‘‘उनकी शादी चौदह साल की उमर में हुई थी। पहली अम्मा मर गई तो सत्रह साल की उमर में दूसरी शादी की। साल–भर भी अकेले नहीं रहते बना।

  ‘‘यह तो किया क़ायदे से, और बेक़ायदे कितना किया, सुनोगे वह भी...।’’

  रंगनाथ ने कहा, ‘‘मैं नहीं सुनना चाहता।’’

  16

  एक छप्पर के नीचे, जहाँ रात को भैंस बँधती थी, इस वक़्त राख और पुआल के सहारे फ़र्श का गीलापन पोंछा जा रहा था। भैंस के पेशाब की गन्ध को जब राख ने दबा दिया तो पोंछनेवाले को इत्मीनान हो गया कि फ़र्श साफ़ हो गया है। उसने राख के ऊपर एक लम्बा–चौड़ा टाट बिछा दिया। टाट पर उसने एक भड़कीली दरी बिछायी जिसके एक कोने पर लिखा था, ‘न्याय–पंचायत, भीखमखेड़ा।’

  दरी के बीच उसने एक लकड़ी की सन्दूक लाकर रखी और एक मैला–सा बस्ता। उसके बाद पास के चबूतरे पर जाकर उसने दो बार में जितना थूक सकता था, उतना थूका और एक बीड़ी सुलगा ली।

  न्याय–पंचायत भीखमखेड़ा का अधिकार–क्षेत्र शिवपालगंज गाँव–सभा पर भी था। कुसहरप्रसाद ने अपने लड़के छोटे पहलवान पर मारपीट का मुक़दमा चलाया था। आज उसकी तीसरी पेशी थी। पहले की दो पेशियों में कुल इतनी कार्रवाई हुई कि ‘कुसहर और छोटे हाज़िर आए, पर पंचों के न आने के कारण मुक़दमा नहीं लिया गया।’

  चबूतरे पर बैठकर बीड़ी पीनेवाला न्याय–पंचायत का चपरासी था। बीड़ी पीकर उसने दोबारा थूका, फिर टेढ़े होकर बदन तोड़ा और अपने–आपसे कहा, ‘‘कहाँ मर गए ये लोग ?’’ जब उसका उत्तर किसी भी तरफ़ से नहीं आया तो उसने दूसरी बीड़ी सुलगा ली।

  उसके बाद चार आदमी एक साथ आते हुए दीख पड़े। उनमें एक तो कुसहरप्रसाद थे, दूसरे छोटे पहलवान। बाक़ी दो पंच थे। कुसहरप्रसाद की खोपड़ी पर घाव के दो हल्के–से निशान थे ताकि वे ठीक तौर से उभरकर निगाह के सामने आ सकें, इसलिए उन्होंने खोपड़ी घुटा ली थी। इस तरह के नक़्शे पर घावों के दो पठार बड़ी आसानी से देखे जा सकते थे।

  वे लोग दरी पर बैठ गए; सिर्फ़ छोटे पहलवान छप्पर से हटकर खुले में धूप खाने के लिए खड़े रहे। एक पंच ने चपरासी से पूछा, ‘‘सरपंच अभी नहीं आए ?’’

  ‘‘अभी कैसे आएँगे ?’’ चपरासी ने समझाया, ‘‘शिवपालगंज गए थे। तहसील में कुछ काम था। अटक गए होंगे।’’

  गपशप होने लगी। दूसरे पंच ने कुसहरप्रसाद से पूछा, ‘‘अब तुम्हारी चोट के क्या हाल हैं ?’’ फिर खुद ही जवाब दिया, ‘‘ठीक तो जान पड़ती है।’’

  कुसहर काँखने लगे। मुँह फुलाकर बोले, ‘‘मुझसे क्यों पूछते हो ? खड़े तो हैं वह हमारे श्रवणकुमार। उन्हीं से पूछो।’’

  छोटे पहलवान अपने को श्रवणकुमार की हालत में नहीं देखना चाहते थे। कन्धे पर काँवर रखे हुए माँ–बाप को इधर–उधर मुर्गों की तरह लटकाकर चलना एक शर्मनाक बात थी। यह मज़दूरों का काम था। छोटे चिढ़ गए। बोले, ‘‘यहाँ श्रवणकुमार के बाप का नाम भी श्रवणकुमार है, उन्हीं से पूछो। इस ख़ानदान में सब साले श्रवणकुमार ही तो होते आए हैं।’’

  एक पंच ने उन्हें टोका, ‘‘गाली–गलौज मत करो पहलवान, उससे अदालत की तौहीन होती है।’’

  छोटे ने कहा, ‘‘साले कहना कोई गाली नहीं है।’’

  इतना कहकर वे दरी पर आकर बैठ गए। पंचों का बिगड़ैल चेहरा देखकर अचानक वे मुस्कराए और यह दिखाने के लिए कि ये बातें लगभग मज़ाक में हो रही थीं, बोले, ‘‘चौदह लड़कों को हमने पैदा किया और हमीं को ये सिखाते हैं कि औरत क्या चीज़ है। हमें बताते हैं कि साले कहना
गाली है। ये तो सिर्फ़ बात करने का तरीक़ा है। तो अपना तरीक़ा भी यह है कि साले कहकर बात करते हैं।’’

  एक पंच ने कहा, ‘‘मगर साले कहना तो गाली है।’’

  छोटे पहलवान दोबारा मुस्कराए, जैसे अपनी भलमनसाहत से अदालत का हृदय जीतना चाहते हों। बोले, ‘‘असली गाली अभी तुमने सुनी नहीं है पण्डितजी ! घुस जाती है तो कलेजा छिल जाता है।’’

  सरपंच ने आते ही अनुभव किया कि अपने साथियों को देरी का कारण बताना ज़रूरी है। वे भुनभुनाने लगे, ‘‘चारों तरफ़ बड़ा भ्रष्टाचार है। तहसील में एक दरख़्वास्त लगानी थी। सोचा था कि पेशकार को देकर चले आएँगे। वहाँ वह कहने लगा कि सवालख़ानी तक रुके रहो।’’

  एक पंच ने इस स्पष्टीकरण पर ध्यान नहीं दिया। बेरुख़ी से कहा, ‘‘फिर भी देर बहुत हो गई। एक बजने को आ गया है। हिन्दुस्तानी की यही ख़राब आदत है। अंग्रेज़ इस मामले में पक्का था–टाइम का बड़ा पाबन्द।’’

  सरपंच ने ज़ोर से कहा, ‘‘तो तुम तो मौजूद हो ही। तुम क्या किसी अंग्रेज़ से कम हो ?’’ वे दरी के बीचोबीच पाल्थी मारकर बैठ गए। चपरासी से बोले, ‘‘चलो, कार्रवाई शुरू करो। पुकार लगाओ।’’

  यह देखकर भी कि कुसहर और छोटे पहलवान वहाँ पहले से मौजूद हैं, चपरासी ने शहराती अदालतों की नकल करते हुए चीख़कर आवाज़ लगायी, ‘‘कुसहर बनाम छोटे, कोई हाऽऽऽज़िर है...?’’

  छोटे ने कहा, ‘‘हाजिर तो हैं ही। देख नहीं रहे हो? आँखें हैं कि बटन?’’

  सरपंच ने पूछा, ‘‘पंचायत–मन्त्री आज भी नहीं आए?’’

  ‘‘उनके साले के साढू के यहाँ आज ज्यौनार थी। उसमें गए हैं, हमारे यहाँ कहला दिया है।’’ एक पंच ने बताया।

  ‘‘यह पंचायत–मन्त्री भी, बस, ऐसे ही हैं। शिकार के वक़्त कुतिया हगासी। मौके़ पर हमेशा धोखा देता है। अब बताओ, पता नहीं, कौन मिसिल कहाँ रखी है। खुद तो ज्यौनार खाने चल दिए, अब मिसिल निकालने को बचे हम।’’

  सरपंच नाराज़ होकर भुनभुनाते रहे। छोटे पहलवान उन्हें बिना किसी दिलचस्पी के देखते रहे।

  सरपंच ने अपनी बात आगे बढ़ायी, ‘‘यही पंचायत–मन्त्री पारसाल जब ग़बन के मामले में फँसा था, दिन में चार बार हमारे घर का चक्कर लगाता था। इतनी एड़ी घिसी कि दरवाज़े पर धूल नहीं बची। अब इधर को आते कतराता है। ख़ानदानी बदमाश है।’’

  छोटे पहलवान सामने के चबूतरे और नीम के पेड़ की ओर देखने लगे थे। उन्होंने पूरी बात नहीं सुनी थी, घुड़ककर बोले, ‘‘सरपंचजी, किसे बदमाश बता रहे हो ?’’

  सरपंच ने चिढ़कर कहा, ‘‘तुम्हें क्यों चींटियाँ काट रही हैं ? अभी पंचायत–मन्त्री की बात चल रही है। तुम्हारी बदमाशी की मिसिल तो अब खुलनेवाली है। देखते जाओ।’’

  छोटे पहलवान उठकर खड़े हो गए। हिक़ारत के साथ बोले, ‘‘यहाँ मुक़दमा करना बेकार है। सरपंच मुझे पहले से ही बदमाश बता रहे हैं। फ़ैसला क्या करेंगे ?’’

  कुसहरप्रसाद इतनी देर तक चुपचाप बैठे रहे थे। अब वे भी अचानक खड़े होकर बोले, ‘‘ठीक है, ठीक है, चलो !’’ पर उसी समय उन्हें शायद याद पड़ गया कि अपने लड़के पर मुक़दमा उन्होंने दायर किया है। वे घबराकर बैठ गए, फिर अपनी बेवकूफ़ी पर लीपापोती करते हुए कहने लगे, ‘‘जब यहाँ दावा दायर कर दिया, तो पूरा मुक़दमा यहीं होगा। सरपंचजी ही फैसला करेंगे।’’

  चपरासी चबूतरे पर बैठा हुआ पूरी परिस्थिति का सिंहावलोकन कर रहा था। वहीं से बोला, ‘‘ठीक कहते हो कुसहर, एक ने कहा कि मेरी माँ ने खसम किया तो वे बोले कि बुरा किया। फिर उसने कहा कि खसम करके छोड़ दिया तो बोले, बहुत बुरा किया। वही हाल है। अब तुमने पहलवान पर मुक़दमा चला ही दिया है तो बीच में शिलिर– बिलिर करना ठीक नहीं।’’

  कुसहर ने चपरासी की ओर देखकर सिर हिलाया जिसका मतलब था कि फटीचर आदमी भी सही बात कहे, तो उसका प्रतिवाद न करना चाहिए। फिर वे छोटे से बोले, ‘‘बैठ जाओ, मुक़दमा अब हो ही जाने दो।’’

  छोटे ने कहा, ‘‘बापू, तुम तो दुमुँहा साँप की तरह आगे भी चलते हो, पीछे भी। यहाँ हमें पहले ही बदमाश बता दिया गया, अब और क्या सुनना है जो सुनूँ ? मैं जाता हूँ।’’

  वे चलने को हुए कि सरपंच ने ललकारकर कहा, ‘‘जाना कोई हँसी–ठट्‌ठा है ! हथकड़ी लगवाकर बुलाऊँगा। नहीं तो सीधे से बैठ जाओ और �
��ुक़दमा होने दो।’’

  छोटे पहलवान लापरवाही से बोले, ‘‘हमें न पढ़ाओ गुरू। हमें यहाँ मुक़दमा कराना मंजूर नहीं है। मैं यहाँ से उठकर मजिस्ट्रेट के इजलास ले जाऊँगा। मैं इसी वक्त तुम्हारे आगे मुक़दमा रोकने की दरख़्वास्त धाँसे देता हूँ।’’

  अदालत के एक पंच उन राजनीतिज्ञों की तरह थे जो यू. एन. ओ. में समस्या से हटकर सिद्धान्त की बात करते हैं और इस तरह वे किसी का विरोध नहीं करते और बदले में कोई उनका विरोध नहीं करता। ‘जनता शान्ति चाहती है’, ‘हमारी सभ्यता की नींव विश्वबन्धुत्व और प्रेम पर पड़नी चाहिए’ आदि–आदि किताबी बातें सुनकर कमीना–से–कमीना देश भी सिर हिलाकर ‘हाँ’ करने से बाज़ नहीं आता और उस राजनीतिज्ञ का यह भ्रम और भी फूल जाता है कि उसने कितनी सच्ची बात कही है। तो यह पंच भी ऐसे ही प्रफुल्लित भ्रम के साथ अपने हिसाब से एक सच्ची बात कहने लगे, ‘‘पहलवान, पंच परमेश्वर होते हैं। इस आसन पर बैठकर कोई अन्याय नहीं कर सकता है। मुँह से जो भी निकल गया हो, पर क़लम से न्याय की ही बात निकलेगी। बैठ जाओ !’’

 

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