छोटू वैसे ही दहाड़ते रहे, ‘‘ए प्रभो ! तुम्हारी माला–वाला तुम्हारे मुँह में खोंसकर पेट से निकालूँगा। यह प्रभो–प्रभोवाली फ़ंटूशी पिल्ल से निकल पड़ेगी। तुम भी हमारे बाप को गाली दे रहे थे ?’’
कुसहर के मुँह से अब बोल फूटा, ‘‘ए छोटुआ ! बहुत हुआ, अब चुप रह ! अदालत का मामला है। मुक़दमा चल जाएगा।’’
‘‘तुम मुँह लिये बैठे रहो बापू, मैं सब जानता हूँ। मैं खुद कल शहर जाऊँगा और इन पर मुक़दमा क़ायम कर दूँगा। इन्होंने तुम्हें भरी सभा में न जाने क्या–क्या कहा है। एक–एक से सवा लाख की कोठी में मूँज न कुटवाऊँ तो समझ लेना तुम्हारे पेशाब से पैदा नहीं हुआ हूँ।’’
कहकर उसने कुसहर का हाथ पकड़ा और उन्हें एक तरह से घसीटता हुआ छप्पर से बाहर निकल आया।
17
रात को पिछले पहर वैद्यजी को जाड़ा महसूस हुआ और उनकी नींद उचट गई। च्यवनप्राश, स्वर्णभस्म और बादाम पाक इत्यादि की मिली–जुली क़िलेबन्दी को तोड़कर जाड़ा उनकी खाल के भीतर घुस आया और मांस की मोटी तहों को भेदता हुआ हड्डियों की मज्जा तक जा पहुँचा। उन्होंने लिहाफ़ अच्छी तरह से लपेटने की कोशिश की और उसी के साथ याद किया कि अकेले लेटने में बिस्तर ज़्यादा ठण्डा रहता है। इस याद के बाद यादों का एक ताँता–सा लग गया, जिसका व्यावहारिक लाभ यह हुआ कि उन्हें तन्द्रा ने घेर लिया। थोड़ी देर शान्ति रही, पर कुछ देर बाद ही पेट के अन्दर हवा ने क्रान्ति मचानी शुरू कर दी। जिस्म के ऊपरी और निचले हिस्सों से वह बार–बार विस्फोटक आवाज़ों में निकलने लगी। उन्होंने लिहाफ़ दबाकर करवट बदली और अन्त में क्रान्ति का एक अन्तिम विस्फोट सुनते हुए वे फिर तन्द्रालीन हो गए। देखते–देखते क्रान्ति की हवा कुतिया की तरह दुम हिलाती हुई सिर्फ़ उनके नथनों से खर्राटों के रूप में आने लगी, जाने लगी। वे सो गए। तब उन्होंने प्रजातन्त्र का सपना देखा।
उन्हाेंने देखा कि प्रजातन्त्र उनके तख़्त के पास ज़मीन पर पंजों के बल बैठा है। उसने हाथ जोड़ रखे हैं। उसकी शक्ल हलवाहों–जैसी है और अंग्रेज़ी तो अंग्रेज़ी, वह शुद्ध हिन्दी भी नहीं बोल पा रहा है। फिर भी वह गिड़गिड़ा रहा है और वैद्यजी उसका गिड़गिड़ाना सुन रहे हैं। वैद्यजी उसे बार–बार तख्त पर बैठने के लिए कहते हैं और समझाते हैं कि तुम ग़रीब हो तो क्या हुआ, हो तो हमारे रिश्तेदार ही, पर प्रजातन्त्र उन्हें बार–बार हुजूर और सरकार कहकर पुकारता है। बहुत समझाने पर प्रजातन्त्र उठकर उनके तख़्त के कोने पर आ जाता है और जब उसे इतनी सान्त्वना मिल जाती है कि वह मुँह से कोई तुक की बात निकाल सके, तो वह वैद्यजी से प्रार्थना करता है मेरे कपड़े फट गए हैं, मैं नंगा हो रहा हूँ। इस हालत में मुझे किसी के सामने निकलते हुए शर्म लगती है, इसलिए, हे वैद्य महाराज, मुझे एक साफ़-सुथरी धोती पहनने को दे दो।
वैद्यजी बद्री पहलवान को अन्दर से एक धोती लाने के लिए कहते हैं; पर प्रजातन्त्र इनकार में सिर हिलाने लगता है। वह बताता है कि मैं आपके कॉलिज का प्रजातन्त्र हूँ और आपने यहाँ की सालाना बैठक बरसों से नहीं बुलायी है। मैनेजर का चुनाव कॉलिज खुलने के दिन से आज तक नहीं हुआ है। इन दिनों कॉलिज में हर चीज़ फल–फूल रही है, पर सिर्फ़ मैं ही एक कोने में पड़ा हुआ हूँ। एक बार क़ायदे से आप चुनाव करा दें। उसमें मेरे जिस्म पर एक नया कपड़ा आ जाएगा। मेरी शर्म ढँक जाएगी।
यह कहकर प्रजातन्त्र बैठक के बाहर चला गया और वैद्यजी की नींद दोबारा उचट गई। जागते ही उन्होंने अपनी आन्तरिक क्रान्ति का एक ताजा विस्फोट लिहाफ के अन्दर पैताने की ओर सुना और एकदम तय किया कि देखने में चाहे कितना बाँगड़ू लगे, पर प्रजातन्त्र भला आदमी है और अपना आदमी है, और उसकी मदद करनी ही चाहिए। उसे कम–से–कम एक नया कपड़ा दे दिया जाए, ताकि पाँच भले आदमियों में वह बैठने लायक हो जाय।
दूसरे दिन प्रिंसिपल को आदेश मिला कि कॉलिज की सालाना बैठक बुलायी जाय और दूसरे पदाधिकारियों के साथ मैनेजर का भी चुनाव हो। प्रिंसिपल ने बहुत समझाया कि नये चुनाव कराना न तो आवश्यक ही है, और न उचित ही। पर वैद्यजी ने कहा कि तुम मत बोलो, यह सिद्धान्त की बात है। पर प्रिंसिपल फिर भी
बोला और कहने लगा कि न अभी किसी अख़बार में निन्दा छपी, न अभी ऊपर कोई शिकायत पहुँची, न कोई जुलूस निकला, न किसी ने अनशन किया; सब साले अपनी–अपनी जगह चुप्पी साधे बैठे हैं, कोई भी सालाना बैठक की बात नहीं कर रहा है; जो कर भी रहे हैं; वे आख़िर कौन हैं? यही खन्ना मास्टर, यही रामाधीन भीखमखेड़वी और उनके दो–चार मुर्गे। उनके चक्कर में आकर सालाना बैठक बुलाना अच्छा न होगा। वैद्यजी ने पूरी बात सुनकर कहा कि तुम ठीक कहते हो, पर यह बात तुम्हारी समझ में न आएगी क्योंकि यह सिद्धान्त की बात है और जाओ बैठक की तैयारी शुरू कर दो।
उसी दिन शाम के वक़्त रंगनाथ और रुप्पन बाबू गयादीन के पास चुनाव के बारे में उनका विचार जानने के लिए भेजे गए। गयादीन कॉलिज के वाइस-प्रेसिडेण्ट होने के नाते इस समय काफ़ी महत्त्वपूर्ण थे और यह जानना ज़रूरी था कि वे किसको मैनेजर बनाना चाहते हैं और यदि वे वैद्यजी के पक्ष में न हों तो यह भी ज़रूरी था कि किसी तरकीब से उनका हृदय–परिवर्तन किया जाए। रुप्पन बाबू और रंगनाथ प्रारम्भिक वार्ता चालू करने के विचार से उनके पास गए थे।
पर गयादीन ने शुरू में ही पूरी बात आसान कर दी। उन्होंने इन दोनों को कायदे से चारपाई पर बैठाया, रंगनाथ से शहरी तालीम के बारे में दो–चार बातें पूछीं, उन्हें शुद्ध घी में बनी हुई मठरी और लड्डू खिलाए और चुनाव की बात आते ही साफ़ तौर से कहा, ‘‘हर काम सोच–समझकर करना चाहिए। ज़माने की हवा में न बहना चाहिए। मैनेजर का चुनाव करा दिया जाए, इसमें कोई हर्ज़ नहीं; पर मैनेजर तो बैद महाराज ही को रहना है, क्योंकि कॉलिज तो बैद महाराज ही का है। किसी दूसरे को कैसे मैनेजर बनाया जा सकता है ? इस बात को ठीक ढंग से सोचना चाहिए।’’
उनकी बातों से ऐसा लगा कि खुद रंगनाथ और रुप्पन बाबू वैद्यजी के ख़िलाफ़ वोट देनेवाले हैं और वैद्यजी की ओर से चुनाव–सम्बन्धी प्रचार स्वयं गयादीन कर रहे हैं। रंगनाथ को मजा आ गया, उसने कहा, ‘‘आप लोग पुराने आदमी हैं, हर बात को सही ढंग से सोचते हैं। पर उधर रामाधीन भीखमखेड़वी और कुछ लोग मामा की जगह किसी दूसरे को लाना चाहते हैं। पता नहीं, वे क्या सोचकर ऐसा कर रहे हैं !’’
गयादीन काँखने लगे। धीरे–से बोले, ‘‘तजुर्बा नहीं है। वे समझते हैं कि कोई दूसरा मैनेजर हो गया तो कुछ करके दिखा देगा, पर कहीं इस तरह से कुछ होता है ?’’
रुककर उन्होंने बात पूरी की, ‘‘जैसे नागनाथ वैसे साँपनाथ।’’
रंगनाथ को यह कुछ ख़ास अच्छा न लगा, क्योंकि इससे वैद्यजी की हैसियत को चोट लगती थी। उसने कहा, ‘‘सो ठीक है; पर मामा का और उन लोगों का मुक़ाबला ही क्या ?’’
वे समझाने लगे, ‘‘वह तो मैंने पहले ही कह दिया। कॉलिज बैद महाराज का है, उन्हीं के हाथ में रहना चाहिए। गाँव–पंचायत रामाधीन की है। वह उनके हाथ में रहे। सब अपने–अपने घर में खुश रहें।...
‘‘चुनाव के चोंचले में कुछ नहीं रखा है। नया आदमी चुनो, तो वह भी घटिया निकलता है। सब एक–जैसे हैं। इसी से मैंने कहा, जो जहाँ है, उसे वहाँ चुन लो। पड़ा रहे अपनी जगह। क्या फ़ायदा है उखाड़–पछाड़ करने से !’’
रुप्पन बाबू कटोरी में पड़े हुए अन्तिम लड्डू के बारे में ‘खाऊँ या न खाऊँ’ वाली बात सोचने लगे थे। जैसे ही उन्होंने सुना कि गयादीन वैद्यजी को मैनेजर रखना चाहते हैं, उनकी दिलचस्पी आगे की बात में खत्म हो गई थी। वे समझ गए थे कि आगे अब केवल बकवास होनी है। पर रंगनाथ को गयादीन की बातें कुछ नयी लग रही थीं। प्रजातन्त्र के बारे में उसने यहाँ एक नयी बात सुनी थी, जिसका अर्थ यह था कि चूँकि चुनाव लड़नेवाले प्राय: घटिया आदमी होते हैं, इसलिए एक नये घटिया आदमी द्वारा पुराने घटिया आदमी को, जिसके घटियापन को लोगों ने पहले से ही समझ–बूझ लिया है, उखाड़ना न चाहिए। प्रजातन्त्र की इस थ्योरी को गयादीनवाद की संज्ञा देकर रंगनाथ ने आगे की बात सुननी शुरू की।
गयादीन कह रहे थे, ‘‘नया आदमी कुछ करना भी चाहे, तो क्या करेगा ? कुछ होगा तो तभी, जब कोई कुछ करने दे। आज के ज़माने में कोई किसी को कुछ करने देता है ? आज तो बस यही रह गया कि...।’’
छंगामल विद्यालय इंटर कॉलिज के लड़के खेल–कूद की दुनिया से काफ़ी परिचित थे, क्योंकि उन�
�े हर महीने खेल की फ़ीस कान पकड़कर रखा ली जाती थी। यह दूसरी बात है कि कॉलिज के पास खेल–कूद का मैदान न था। पर इससे किसी को तकलीफ़ न होती थी, बल्कि सभी पक्ष सन्तुष्ट थे। गेम्स–टीचर के पास खेलकूद होने के कारण इतना समय बचता था कि वह मास्टरों के दोनों गुटों में घुसकर उनका विश्वास प्राप्त कर सकता था। प्रिंसिपल को भी इससे बड़ा आराम था। उसके यहाँ हॉकी की टीमों में मारपीट न होती थी (क्योंकि वहाँ हॉकी की टीमें ही न थीं) और इस सबसे कॉलिज में अनुशासन की कोई समस्या नहीं उठती थी। लड़कों के बाप भी खुश थे कि खेलकूद की मुसीबत फ़ीस देकर ही टल जाती है और लड़के सचमुच के खिलाड़ी होने से बच जाते हैं। लड़के भी खुश थे। वे जानते थे कि जितनी देर में एक गोल से दूसरे गोल तक एक ढेले–बराबर गेंद के पीछे हाथ में स्टिक पकड़े हुए वे पागलों की तरह भागेंगे, उतनी ही देर में वे ताड़ी का एक कच्चा घड़ा पी जाएँगे, या लग गया तो दाँव लगाकर चार–छ: रुपये खींच लेंगे।
Rag Darbari Page 40