Rag Darbari

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Rag Darbari Page 42

by Shrilal Shukla


  स्काउट घबरा गया। घबराए हुए औसत दर्जे़ के विद्यार्थी की तरह दाँत निकालकर बोला, ‘‘हाँ, ठाकुर साहेब ! सब ठीकै-ठीक है।’’

  ‘‘कितने आदमी आए थे ?’’

  ‘‘पाँच।’’

  ‘‘सब समझ गए कि किसी ने नासमझी की ?’’

  ‘‘सब समझ गए।’’ लड़के की हिम्मत लौट आयी थी। दूर जाते हुए पण्डित की तरफ़ इशारा करके उसने कहा, ‘‘उन्हीं की तरह सड़फड़ करते सब वापस चले गए।’’

  लड़के भी खुलकर हँसे। बलरामसिंह ने कहा, ‘‘समझदार की मौत है।’’

  कॉलिज में जय–जयकार हुई। किसी ने कहा, ‘‘बोल सियावर रामचन्द्र की जय !’’

  जय बोलने के मामले में हिन्दुस्तानी का भला कोई मुक़ाबला कर सकता है ! बात सियावर रामचन्द्र से शुरू हुई, फिर पवनसुत हनुमान की जय। फिर न जाने कैसे, वह जय सटाक् से महात्मा गाँधी पर टूटी :

  ‘बोल महात्मा गाँधी की जय !’ फिर तो हरी झण्डी दिख गई। पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक जय दी गई। एक–एक जय प्रदेशीय नेताओं को। एक–एक जय ज़िले के नेताओं को और फिर असली जय : ‘बोलो, वैद्य महाराज की जय !’

  बरछी से बिंधे हुए सूअर की तरह चिचियाते हुए प्रिंसिपल साहब इमारत के बाहर निकले और उन्होंने भी चीख़कर कहा, ‘‘बोलो, वैद्य महाराज की...।’’

  ‘जय’ बोलने के लिए अगली पीढ़ी फाटक के बाहर खड़ी ही थी।

  मेला–जैसा लग गया। प्रिंसिपल साहब रंगनाथ को समझाने लगे, ‘‘चलिए, वैद्य महाराज फिर सर्वसम्मति से मैनेजर चुने गए। अब देखिएगा कॉलिज कैसे तरक़्की करता है। धकाधक, धकाधक, धकाधक ! तूफ़ान मेल–जैसा चलेगा।’’ वे जोश में थे और उनका चेहरा लाल हो रहा था।

  छोटे पहलवान ने कहा, ‘‘ए प्रिंसिपल, ज़्यादा न भड़भड़ाओ। एक बात मेरी भी समझ लो। ये लौंडे जो हाथ में हॉकी का डण्डा लिये घूम रहे हैं न, इन्हें एक–एक गेंद भी थमा दो और कहो कि कुछ निशानेबाज़ी का काम सीख लें। इनमें एक भी ऐसा नहीं है जो गेंद पर डण्डा मार ले। सब धूल में साँप–जैसा पीटा करते हैं।’’

  ‘‘ज़रूर मेम्बर साहब, ज़रूर। खेल का भी प्रबन्ध होगा। इस झंझट से पार लगे हैं...।’’

  छोटे पहलवान ने कहा, ‘‘पार तो लग गए, पर हम अपनी बात कह लें। हामी तो तुम हर बात पर भर देते हो, पर तुम्हारे उखाड़े खेत से मूली तक नहीं उखड़ती। यही खेलकूद की बात है। लौंडे बस हॉकी का डण्डा भर ताने घूमते हैं। आज ही ज़रूरत पड़ जाती तो उसे हवा में घुमाते रह जाते। मारते किसी की पीठ पर, तो लगता अपने ही घुटने में। मौक़े पर निशानेबाज़ी ठीक होनी चाहिए।’’

  वैद्यजी ने पीछे से कहा, ‘‘खेलकूद का भी महत्त्व है प्रिंसिपल साहब ! छोटे की बात अनुचित नहीं है।’’

  ‘‘हें, हें,’’ प्रिंसिपल ने पहलवान के शरीर को प्रेमिका की निगाह से देखते हुए कहा, ‘‘पहलवान हैं कि हँसी–ठट्‌ठा ! ये भी भला कोई अनुचित बात करेंगे।’’

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  ‘‘बहुत पुरानी बात है। एक नवाब साहब थे। उनका एक शाहज़ादा था।

  ‘‘तुम लोग बात कर रहे थे–पंचायत अदालत की। उसी पर मुझे यह क़िस्सा याद आया। अच्छा किया जो छोटे पहलवान ने सरपंच को वहीं ललकार दिया। पंचायत अदालत का यह न्याय छोटेलाल–जैसे आदमियों के लिए नहीं है। वे बड़े आदमी हैं। इतने बड़े पहलवान ! हमारी कॉलिज–कमेटी के मेम्बर। वहाँ का न्याय तो देहाती हूशों के लिए है। कौड़िल्ला–छाप न्याय। हें–हें–हें...कौड़िल्ला जानते हो ? बंजर में उग आता है। गर्मियों में देखा होगा तुमने, सफ़ेद-सफ़ेद फूल होते हैं। पर तुम शहरी आदमी हो, तुमने कहाँ देखा होगा ! तो, ये पंचायत अदालतें जो हैं, सब वही कौड़िल्ला–छाप न्याय करती हैं, और यह सरपंच ? सबको ऐसी ही अंड–बंड बातें बक देता है। इस बार आ गया छोटे पहलवान की लपेट में। उसी में बेटा ढेर हो गए। सेर को सवासेर मिल गया।...

  ‘‘कुसहरप्रसाद को मैंने पहले ही समझाया था कि पंचायत अदालत में मत जाओ। पर नहीं माने। अब बात समझ में आ गई। जब सरपंच ने चार कच्ची–पक्की सुनायीं तब दुरुस्त हो गए। छोटेलालजी से वहीं सुलह कर ली।

  ‘‘ठीक भी है। बाप–बेटे में लड़ाई कैसी ?

  ‘‘तो उनका एक शाहज़ादा था। नवाब साहब का। हाँ, हाँ, वही किस्सा सुना रहा हूँ। एक बार वह बेचारा बीमार पड़ गया। बुख़ार था, पर ठीक न होता था। महीनों चला। बड़ी–बड�
��ी क़ीमती दवाएँ दी गईं। सभी बैद, हकीम, डॉक्टर परेशान। करोड़ों रुपया नाली के रास्ते बह गया। पर शाहज़ादा वैसे–का–वैसा।

  ‘‘नवाब साहब सिर पीटने लगे। चारों तरफ़ उन्होंने ऐलान कराया कि कोई आधी रियासत ले ले, शाहज़ादी से शादी कर ले, पर किसी तरह शाहज़ादे को चंगा कर दे। तब बड़ी–बड़ी दूर से हकीम लोग आने लगे। बड़ी–बड़ी कोशिशें कीं, पर शाहज़ादे ने आँख न खोली।

  ‘‘अन्त में एक बुजुर्ग हकीम आए। शाहज़ादे को देखकर बोले, ‘जहाँपनाह, आधी रियासत और शाहज़ादी देने से काम न चलेगा। मुझे इस ऐशोआराम की ज़रूरत भी नहीं। मेरी तो बस एक दरख़्वास्त मान ली जाय, फिर शाहज़ादे को चंगा कर देने का जिम्मा हमारा। दरख़्वास्त पेश करने के लिए तख़लिया चाहिए।’

  ‘‘जब सब दरबारी भगा दिए गए तो हकीम ने कहा, ‘बन्दापरवर, अब बेगम साहिबा मेरे सामने आकर बात करें और उनसे जो पूछा जाय, उसका वे सही–सही जवाब दें।’

  ‘‘नवाब साहब भी वहाँ से हट गए। बेगम साहिबा हकीम के सामने पेश की गईं। हकीम ने उन्हें कड़ी निगाह से देखा और कहा, ‘देखिए बेगम साहिबा, अगर शाहज़ादे की जान प्यारी हो तो साफ़-साफ़ बताइए, यह शाहज़ादा किसका लड़का है ? किसके नुत्फ़े से पैदा हुआ है ?’

  ‘‘बेगम साहिबा आँसू बहाने लगीं। बोलीं, ‘आप किसी से कहिएगा नहीं। पर असलियत यही है कि शाहज़ादा महल में काम करनेवाले एक भिश्ती का लड़का है। मुआ ताज़ा–ताज़ा दिहात से आया था, और मालूम नहीं कि कैसे क्या हुआ कि...।’

  ‘‘इतना सुनते ही हकीम ने कहा, ‘शुक्रिया ! अब और कुछ बताने की ज़रूरत नहीं।’ उसने चुटकी बजायी और इत्मीनान से कहा, ‘बात–की–बात में मैं अब शाहज़ादे को सेहत पहुँचाता हूँ।’

  ‘‘इसके बाद हकीम ने जितनी दवाएँ थीं, सब फिंकवा दीं। एक–से–एक क़ीमती चीज़ें, हीरा–मोती, सोने–चाँदी के लटके। तरह–तरह के नायाब अर्क। सब नाबदान के रास्ते निकाल दिए गए। उसके बाद हकीम ने शाहज़ादे की आँखों पर पानी का छींटा मारा और कहा, ‘अबे उठ ! भिश्ती की औलाद !’

  ‘‘बस, चौंककर शाहज़ादे ने आँखें खोल दीं। उसके बाद हकीम ने मैदान में जाकर कौड़िल्ला के कुछ पौधे उखाड़े और उन्हें पानी में पीसकर शाहज़ादे को पिला दिया। तीन दिन तक इसी तरह कौड़िल्ला पीकर शाहज़ादा चंगा हो गया।’’

  प्रिंसिपल यह क़िस्सा वैद्यजी की बैठक में सुना रहे थे। मुख्य श्रोता थे रंगनाथ। मुख्य विषय था–पंचायत अदालत। किस्सागोई की मुख्य प्रेरक शक्ति थी भंग।

  उन्होंने कहा, ‘‘तो रंगनाथ बाबू, इसको कहते हैं कौड़िल्ला–छाप इन्साफ़। दिहातियों को ऐसा ही समझा जाता है। ओछी नस्ल के आदमी। उन्हें और क्या चाहिए ? चले जाओ पंचायत अदालत में और कौड़िल्ला–छाप इन्साफ़ लेकर लौट आओ।

  ‘‘और जो बड़े आदमी हैं। रईस–वईस, हाकिम–हुक्काम, ऊँची नस्ल के लोग, उनके लिए कीमती इन्साफ़ चाहिए ? घास खोदनेवाले सरपंच नहीं, मोटा चश्मा लगानेवाले, अंग्रेज़ों जैसी अंग्रेज़ी बोलनेवाले जज। तो बड़े आदमियों के लिए ज़िलों की बड़ी–बड़ी अदालतें हैं। जैसी चाहें, वैसी अदालत मौजूद है।

  ‘‘उनसे भी बड़े लोगों के लिए बड़े–बड़े हाईकोर्ट हैं। सबसे ऊँची नस्लवालों के लिए सुप्रीम कोर्ट। किसी ने आँख तरेरकर देख लिया तो उसी बात पर सीधे दिल्ली जाकर एक रिट ठोंक दी।

  ‘‘कौड़िल्ला–छापवाला, ओछी नस्ल का आदमी, वहाँ एक बार फँस जाय तो समझ लो, बैठकर उठ न पाएगा। दाने–दाने को मोहताज हो जाएगा।

  ‘‘हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट की शौकीनी सबके बूते की बात है ? एक–एक वकील करने में सौ–सौ रण्डी पालने का ख़र्च है।

  ‘‘तभी तो दिहातियों के लिए कौड़िल्ला–छाप इन्साफ़ का इन्तज़ाम हुआ है। न हर्रा लगे न फिटकरी, रंग चढ़ा भरपूर। एक खुराक ले लो, बुखार उतर जाएगा। अपने देश का कानून बहुत पक्का है, जैसा आदमी वैसी अदालत।’’

  वे अचानक अवधी पर उतरे और बोले, ‘‘जइस पसु, तइस बँधना।’’

  गाँव के बाहर एक लम्बा–चौड़ा मैदान था जो धीरे–धीरे ऊसर बनता जा रहा था। अब उसमें घास तक न उगती थी। उसे देखते ही लगता था, आचार्य विनोबा भावे को दान के रूप में देने के लिए यह आदर्श ज़मीन है। और यही हुआ भी था। दो साल पहले इस मैदान को भूदान–आन्दोल�
� में दिया गया था। वहाँ से वह दान के रूप में गाँव–सभा को वापस मिला। फिर गाँव–सभा ने इसे दान के रूप में प्रधान को दिया। प्रधान ने दान के रूप में इसे पहले अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को दिया और उसके बचे–खुचे हिस्से को सीधे क्रय–विक्रय के सिद्धान्त पर कुछ ग़रीबों और भूमिहीनों को दे दिया। बाद में पता चला कि जो हिस्सा इस तरह गरीबों और भूमिहीनों को मिला था वह मैदान में शामिल न था, बल्कि किसी किसान की ज़मीन में पड़ता था। अत: उसे लेकर मुक़दमेबाज़ी हुई, जो अब भी हो रही थी और आशा थी कि अभी होती रहेगी।

  जो भी हो, भूदान-यज्ञ का धुआँ इस पूरे मैदान में छाया हुआ था। मैदान में खेत बन गए थे, जिसका सबूत यह था कि क़दम-क़दम पर मेंड़ बाँध दी गई थीं और उन पर बबूल की डालें रख दी गई थीं। पानी–खाद–बीज आदि चीज़ों के बिना ही, सिर्फ़ इच्छा–शक्ति के सहारे, इस ज़मीन पर पिछले साल से ज़ोरदार खेती हो रही थी और सिर्फ़ गणित के सहारे यह साबित हो चुका था कि गाँव–सभा में पिछले साल और सालों की अपेक्षा ज़्यादा अन्न पैदा हुआ है। गाँव के जानवर उस मैदान को अपनी पुरानी चरागाह समझकर अब भी कभी–कभी उधर से निकल जाते थे, पर उनकी इस हरकत के बाद किसानों में गाली–गलौज, मार–पीट, काँजीहाउस, थाना, अदालत आदि की शुरुआत हो जाती थी। इसलिए धीरे–धीरे जानवरों का उस दिशा में प्रवेश निषेध होने लगा था। मैदान में अब प्राय: सन्नाटा छाया रहता था और अगर आदमी आशावादी हो तो उसे वहाँ जाते ही लगता था कि इस सन्नाटे में तरक़्क़ी का बिगुल बजने ही वाला है।

 

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