Rag Darbari

Home > Other > Rag Darbari > Page 45
Rag Darbari Page 45

by Shrilal Shukla


  ‘‘बस, बजरंगबली का ध्यान करके और लाल लँगोटा बाँधकर मैं भी कालिकाप्रसाद के घर की ओर पहुँच गया। कालिकाप्रसाद से मैंने कोई पालिसी नहीं खेली। हमने कहा, बेटा सनीचर, खरा खेल फरक्खाबादी लगाओ, तभी काम चलेगा। वहीं हम दोनों ने मिलकर ऐसी इस्कीम बनायी कि ब्लाक के ए.डी.ओ.–फे.डी.ओ., सबकी लेंड़ी तर। ए.डी.ओ. साहब ने हमारी पीठ ठोंकी और बोले कि गँजहा हो तो ऐसा हो। कल ही हमने बात कही और आज ही इस्कीम तैयार।

  ‘‘गुरुजी, हुआ यह है कि अब इस गाँव में एक कुअॉपरेटिव फारम खुलेगा। ऐसा फारम इलाके–भर में नहीं है। पच्छिम की तरफ़वाले ऊसर पर फारम लहकेगा। ऊसर होने से कोई हरज नहीं। कागद-पत्तरवाला काम ब्लाकवाले सँभालेंगे। कागद-पत्तर के मामले में वे तहसील–थानेवालों के भी बाप हैं? कहो तो आसमान में कुअॉपरेटिव बना दें, यहाँ तो धरती की ही बात है।

  ‘‘सहर में जाकर हम सब फिट कर आए हैं। हमने सोचा था कि जैसे पारसाल गुरु महराज तुम कॉलिज में एक मिनिस्टर को पकड़ लाए थे, वैसे ही इस बार हम भी एक मिनिस्टर को गाँठें। पर वह काम बिना तुम्हारे हाथ लगाए न होता। उधर कालिकाप्रसाद बोले कि काम बनाना हो तो मिनिस्टर से क्या मतलब। हाकिम को पटाओ।

  ‘‘उसके बाद तो सब कालिकाप्रसाद के ही दम की बात थी। सहर में सब जगह घूमकर कहीं उसने बारूद उगली और कहीं बन गया भुनगा। वहाँ हमने देखा कि कालिका की पकड़ कितनी सच्ची है। जो कुछ है सो हाकिम है। वह ठीक ही कहता था। वहाँ उसने एक ऐसे हाकिम को पकड़ लिया जिसे माला पहनने और लेक्चर देने का शौक है। सवेरे जब तक उसके गले में दस माला नहीं पड़तीं, वह साला दातून तक नहीं करता। निन्ने–मुँह बैठा रहता है। उस हाकिम को हमने पकड़ लिया।

  ‘‘अब गुरूजी, खोपड़ी पर हमने भारी काम धर लिया है। तीन दिन के बाद ही यहाँ फारम पर सभा होगी। आगे–आगे तुम्हीं को चलना है। गाजा–बाजा, माला–शामियाना, फोटू–सोटू इन सबके लिए तो ब्लाकवाले हैं ही, पर हमें भी भारी सरंजाम करना पड़ेगा। खाने के लिए मटर की घुँघनी से काम चल जाएगा। हाकिम बोला कि हम किसानों में किसानों की तरह खाएँगे। हमने भी सोचा कि गुरू, हम जानते हैं, चाहे जिस तरह खाओ, पर खाए बिना मानोगे नहीं। मटर सहर से मँगानी पड़ेगी। यहाँ मटर कहाँ ?’’

  सनीचर जलसे के इन्तज़ाम की बातें करने लगा तो छोटे पहलवान ने डाँटकर पूछा, ‘‘अब यह मटर की सटर–पटर बन्द करो। असली बात बताओ, हाथ क्या लगा ?’’

  सनीचर ने नि:स्पृह होकर लापरवाही से कहा, ‘‘हमारे हाथ क्या लगना है पहलवान ? जो सुसाइटी बनेगी, उसे फारम का काम चालू करने के लिए पाँच सौ रुपया मिलेगा, यही सब जगह का रेट है। जो मिलना है, सुसाइटी को मिलेगा।’’

  छोटे पहलवान ठहाका मारकर हँसे, ‘‘अरे वाह बेटा मंगलदास ! क्या बात निकाली है। कहाँ से चली और कहाँ गिरायी !’’

  वैद्यजी खुश होकर सुन रहे थे। उन्हें देखते ही लगता था कि भविष्य उज्ज्वल है। उन्होंने एक पंचतन्त्रनुमा कहानी सुनाकर सनीचर की तारीफ़ करते हुए कहा कि जब शेर का बच्चा पहली बार शिकार करने निकला तो उसने पहली छलाँग में ही एक बारहसिंघा मारा।

  19

  जनवरी आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी जिसके बाद फ़रवरी आनी थी, जिसमें गाँव–सभा के चुनाव होने थे, और उसके बाद मार्च का महीना था जिसमें हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षाएँ शुरू होनी थीं। चुनाव ने एक ओर सनीचर और बद्री पहलवान के अखाड़े को, और दूसरी ओर रामाधीन भीखमखेड़वी और उनके जुआरी सेनानायकों को प्रजातन्त्र की सेवा में फँसा दिया था, जिसे करने का अभी तक मुख्य ढंग यह था कि दोनों दल एक–दूसरे को पीठ–पीछे चीख़–चीख़कर गालियाँ देते थे। आशा थी कि फ़रवरी के महीने में यह काम आमने–सामने भी होने लगेगा। जहाँ तक मार्च में होनेवाली परीक्षाओं की बात है, वे अभी किसी को भी नहीं फँसा पायी थीं; विद्यार्थी, अध्यापक और ख़ासतौर से प्रिंसिपल साहब–वे अभी बिलकुल बेलौस थे।

  पर प्रिंसिपल साहब एक दूसरे मामले में फँस गए थे। कुछ दिन पहले, जब कॉलिज की कमेटी की सालाना बैठक हुई थी, वैद्यजी को एक राय से दोबारा मैनेजर चुना गया था। इस बात को लेकर कुछ मेम्बरों ने एक शिकायत शिक्षामन्त्री के पास भेजी थी। उनका कहना था �
��ि विरोध प्रकट करनेवाले मेम्बरों को बैठक में आने ही नहीं दिया गया और तमंचे से धमकाया गया। शिकायत में इसी बात को ऐसे विस्तार से लिखा गया था कि शिकायती–पत्र का पढ़ा जाना असम्भव जान पड़ता था और अगर उसे पढ़ भी लिया जाय तो उस पर विश्वास करना तो बिलकुल ही असम्भव था, क्योंकि उसका निष्कर्ष यही था कि शिवपालगंज में क़ायदा-कानून मिट गया है, वहाँ थाना–पुलिस नाम की कोई चीज़ ही नहीं है और चार गुण्डे मिलकर वहाँ जैसा चाहें वैसा कर सकते हैं। स्पष्ट था कि इस बात को ग़लत मानने के लिए किसी जाँच की ज़रूरत नहीं थी; फिर भी कुछ विरोधी मेम्बरों ने शहर पहुँचकर इस शिकायत की नक़ल शिक्षा–विभाग के बड़े–बड़े अफ़सरों को दी थी और फिर लौटकर वे पूरे इलाक़े में प्रचार करने लगे थे कि मामले की जाँच डिप्टी डायरेक्टर ऑफ़ एजुकेशन नामक एक अफ़सर करेंगे जो वैसे तो बहुत गऊ आदमी हैं, पर इस बार उन्हें वैद्यजी के बाप भी नहीं दुह पायेंगे, क्योंकि ऊपर से सच्ची जाँच करने का हुक्म हो गया है।

  प्रिंसिपल साहब को फँसाने के लिए इतना काफ़ी था। वे जानते थे कि जाँचवाली बात वैद्यजी खुद देखेंगे, पर जाँच के सिलसिले में हाकिमों के दौरे भी होंगे और उसके बारे में प्रिंसिपल साहब को ही देखना होगा। हाकिम लोग जब कॉलिज में आएँगे तो सबसे पहले क्या देखेंगे ? प्रिंसिपल ने अपने–आपको जवाब दिया : इमारतें !

  इसीलिए वे इस समय इमारत की सुन्दरता बढ़ाने पर तुले हुए थे।

  उन्होंने शहर में देखा था, अगर एक छोटा–सा पौधा लगाकर उसके चारों ओर ईंटों का घेरा बना दिया जाय और उसे लाल-पीले-सफ़ेद रंग से पोत दिया जाय, तो बिना किसी बात के ही अधूरा मैदान बाग़–जैसा दिखने लगता है। उन्होंने तय किया कि कॉलिज की इमारत के सामने एक क़तार गुलमोहर और अमलतास के पेड़ों की लगा दी जाय और हाकिमों के आने के पहले ही ईंट के रंग–बिरंगे घेरे सज़ा दिए जाएँ। आते वक़्त आँख के आगे साफ़-सुथरी, रंग–बिरंगी इमारत हो और जाते वक़्त पेट के अन्दर फ़र्स्ट क्लास चाय और नाश्ता हो तो कोई हमारे ख़िलाफ़ क्या लिखेगा ? प्रिंसिपल साहब ने सोचा और जनवरी के जाड़े–पाले का लिहाज़ छोड़कर, पेड़ लगाने के लिए हर मौसम अच्छा होता है, इस वैज्ञानिक धड़ल्लेबाज़ी से आगे बढ़कर वे अपने काम में जुट गए।

  वे कॉलिज की चहारदीवारी के पास खड़े हुए कुछ गड्ढे खुदवा रहे थे। उनके हाथ में एक मोटी और चिकनी किताब थी जो देखने से ही बहुत क़ीमती जान पड़ती थी। वे अपनी काम–काजवाली पोशाक, यानी बिना मोज़े के जूतों और हाफ़ पैण्ट में–देखनेवाले चाहे जैसा समझें–अपने को निहायत चुस्त और चालाक समझते हुए खड़े थे। किताब को वे एक पालतू बिल्ली की तरह प्यार के साथ पकड़े हुए थे।

  एक मज़दूर ने फावड़ा चलाना रोककर प्रिंसिपल साहब से कहा, ‘‘देखिए मास्टर साहब, गड्ढा इतना ही रहेगा न ?’’

  प्रिंसिपल साहब सिर हिलाते हुए बोले, ‘‘हुँह, यह भी कोई गड्ढा है ! चिड़िया भी एक बार मूत दे तो उफना चलेगा। खोदे जाओ बेटा, अभी खोदे जाओ।’’

  कहकर उन्होंने पास खड़े हुए एक मास्टर की ओर अभिमान से देखा। वे उस मास्टर को बहुत पहले से जानते थे क्योंकि वह उनका चचेरा भाई था। उसने भी इधर–उधर देखकर मैदान को दुश्मनों यानी दूसरे मास्टरों से साफ़ पाकर, भाईचारे के साथ कहा, ‘‘भैया, इस कॉलिज में तो तुम बाग़वानी के भी एक्सपर्ट हो गए।’’

  प्रिंसिपल ने किताब सीने से लगा ली। कहा, ‘‘सब इसी की बदौलत है। पर साले ने बड़ी कड़ी अंग्रेज़ी लिखी है। समझने में दिमाग़ मामूली हो तो चकरघिन्नी खा जाएगा।’’

  चचेरा भाई बोला, ‘‘आप तो लोहे के बने हैं। कॉलिज का इतना–इतना काम। पॉलिटिक्स ही में सिर भन्ना जाता होगा। उसके ऊपर आप किताब भी पढ़ लेते हैं। अपने साथ तो यह है कि कोई दस जूते मार ले, पर पढ़ने को न कहे। जी घिन्ना गया किताबों से।’’

  प्रिंसिपल ने पचास प्रतिशत बड़े भाई और उतने ही प्रतिशत प्रिंसिपल के लहज़े में कहा, ‘‘चुप रहो। ऐसी बात न कहनी चाहिए। सफ़र तक में अपनी किताब साथ रखनी चाहिए। नहीं तो, अकेले कोट–पैण्ट से क्या होता है ? उसी से कोई तुम्हें मास्टर थोड़े ही कहेगा ? कोट–पैण्ट तो कुँजड़े भी पहन सकते हैं।’’

  भा�
�� ने कहा, ‘‘आप ठीक कहते हैं। मैं बात काटता नहीं हूँ। पर हममें और कुँजड़ों में अब फ़र्क़ ही क्या ? ये साली टेक्स्ट–बुकें, समझ लीजिए, सड़े–गले फल ही हैं। लौंडों के पेट में इन्हीं को भरते रहते हैं। कोई हज़म करता है, कोई क़ै करता है।’’

  प्रिंसिपल हँसने लगे। बोले, ‘‘बात ज़रा ऊँची खींच दी तुमने। समझदार की मौत है।’’

  कहकर वे एक गड्‌ढे की ओर झाँकने लगे जैसे समझदार के मर जाने पर उसे वे वहीं दफ़न करेंगे।

  तभी खन्ना मास्टर लपलपाते हुए वहाँ आ पहुँचे और प्रिंसिपल को एक काग़ज़ पकड़ाकर बोले, ‘‘यह लीजिए।’’

  प्रिंसिपल ने चचेरे भाई की ओर मदद के लिए देखा। फिर गड्‌ढे के पास खड़े–खड़े वे एकदम तन गए और अफ़सर हो गए। बोले, ‘‘यह क्या है ?’’

 

‹ Prev