‘‘वही तो’’, दारोग़ाजी ने फुसफुसाकर कहा, ‘‘बदमाश लोग पहले साधुओं की भगल में घूमते थे। अब उन्होंने अपनी भगल बदल दी है।’’
सब सिपाहियों ने बजरंगबली का नाम लिया, अपने बीवी–बच्चों के मुँह की याद की और हथियारों से लैस होकर इन बदमाशों से मुचेहटा लेने के लिए चल दिए। सबके सिर पर कफ़न बँधा था, सबकी जान हथेली पर रखी थी, सबका कलेजा मुँह को आ रहा था।
मकान घिर जाने के बाद बड़े–बड़े इन्तज़ाम किए गए। सब सिपाही बिना तम्बाकू फाँके, बीड़ी पिये अपनी–अपनी जगह पर बुत की तरह आधा घण्टा बैठे रहे। न कोई हँसा, न किसी ने हँसाया। एक सिपाही जूते उतारकर पंजों के बल, चोर की तरह चलता हुआ सबके कान में शक्ति का महामन्त्र–जैसा फूँकता चला गया कि इत्मीनान रखो, कोई ख़तरा नहीं है। सब सिपाही अनुभवी थे और जानते थे कि किसी के कह देने–भर से ख़तरा दूर नहीं हो जाता। इसलिए वे लोग ख़तरे ही में बैठे रह गए। दारोगा़जी और हेड कांस्टेबिल हाथ में क्रमश: पिस्तौल और राइफल लिये जोगनाथ के दरवाजे़ पर खड़े रहे।
एक आदमी गली से निकल रहा था। इन्हें देखकर वह लौटने ही वाला था कि हेड कांस्टेबिल ने उसे हाथ के इशारे से बुला लिया। वह इत्मीनान से चला आया। हेड कांस्टेबिल ने उसके कान में कहा, ‘‘भाग रहे थे ?’’
उसने बेधड़क होकर कहा, ‘‘भागता क्यों? सवेरे–सवेरे आप लोगों का मुँह देखने से बचना चाहता था।’’
दारोग़ाजी ने हाेंठों पर उँगली रखकर ‘शिश्’–जैसा निकाला। हेड कांस्टेबिल ने उस आदमी के कान में कहा, ‘‘यहीं चबूतरे पर बैठ जाओ। गवाही देनी होगी।’’
उसने कहा, ‘‘तो बैठने से क्या होगा ? जब ज़रूरत पड़े, कल, परसों, तरसों बुला लेना, दे देंगे गवाही भी। आपसे बाहर थोड़ी ही हैं।’’
वह खिसकने लगा। हेड कांस्टेबिल ने उसके काम में कहा, ‘‘तब ठीक है, जाओ, पर ख़बरदार, वहाँ हमारी मौजूदगी का हाल किसी को मत बताना।’’
उसने हेड कांस्टेबिल के कान में अपनी नाक खोंसकर उसी तरह कहा, ‘‘बताना किसको है? सारा गाँव जानता है।’’
वह चला गया। मकान के पिछवाड़े बैठे हुए लोगों को बीड़ी–तम्बाकू की तलब सताने लगी। तब तक उजाला होने लगा था और एक–दूसरे के चेहरे दूर से दिखने लगे थे। अचानक पीछे बैठे सिपाहियों ने चरमराहट सुनी। शायद बाहर का दरवाजा़ खोला गया था। उन्होंने वहाँ जल्दी–जल्दी बातचीत होते हुए सुनी। वह समझ गए कि उनके लिए अब धर्मक्षेत्र–कर्मक्षेत्र प्रवेश करने का मौक़ा आ गया है। वे अपनी–अपनी संगीनें चढ़ाकर खड़े हो गए।
उधर दरवाजे़ की ओर बातचीत तेज़ और तेज़ी से दूर होती जा रही थी। सिपाही भीतर–ही–भीतर कसमसाने लगे और खाँसने के साथ–ही–साथ शरीर के प्रत्येक सुराख से हवा के दबाब को बाहर फेंकने लगे। थोड़ी ही देर में किस्से का चरम बिन्दु आ गया। ख़तरे की सीटी बजी और वे सब दौड़ते हुए दरवाजे़ के पास पहुँच गए। वहाँ से भागते हुए वे दरवाज़े से पचास गज़ दूर एक आम के बाग़ के पास पहुँचे और पहुँचते ही एक नाटकीय परिस्थिति बन गए।
देखा कि जोगनाथ ज़मीन पर बैठा है। दारोग़ाजी उसकी छाती पर तमंचा ताने खड़े हैं। हेड कांस्टेबिल दूसरी दिशा से संगीन दिखा रहा है। बढ़िया थियेटरी दृश्य है, पर उस पर पर्दा नहीं गिर रहा है। सिपाहियों ने आते ही इस दृश्य को घेर लिया और तमंचे और संगीन से उसके शरीर के जो भाग अरक्षित बचे थे, उन पर क़ब्ज़ा कर लिया।
जोगनाथ से कुछ दूरी पर एक लोटा गिरा पड़ा था। ज़मीन पर पानी बिखरा हुआ था। दारोग़ाजी ने एक सिपाही से कहा, ‘‘वह लोटा क़ब्ज़े में ले लो। सबूत के काम आएगा।’’
सिपाही ने लोटा उठाकर उसका ग़ौर से मुआइना किया और प्रशंसा के स्वरों में कहा, ‘‘मुरादाबादी है।’’ बाद में उसने कुछ सोचकर पूछा, ‘‘इसे मोहरबन्द किया जाएगा हुजूर ?’’
‘‘किया जाएगा, पर बाद में।’’
सिपाही ने कुछ सोचकर पानी में भीगी हुई ज़मीन की ओर उँगली उठाई और कहा, ‘‘यह मिट्टी भी क़ब्ज़े में ली जाएगी?’’
हेड कांस्टेबिल ने उसे घुड़क दिया, ‘‘बहुत क़ाबिल न बनो। जितना कहा गया है, करो।’’
दारोग़ाजी ने जोगनाथ को खड़ा कराया। उसके जिस्म की तलाशी ली गई। फिर संगीनें म्यान में चली गईं, पि
स्तौल चमड़े के दरबे में घुस गया। सिपाहियों में बातें होने लगीं।
एक ने कहा कि हो–न–हो, सवेरे–सवेरे यह हाजत रफ़ा करने जा रहा था। दूसरा बोला कि क्या पता आसपास कोई गिरोह हो, उसे दाना–पानी देने जा रहा हो। तीसरे ने कहा कि अब वैद्यजी शोर मचायेंगे। चौथे ने धीरे–से कहा कि वैद्यजी को दारोग़ाजी अपनी जेब में डाले घूम रहे हैं। गिरफ़्तारी कप्तान के हुक्म से हुई है। पाँचवें ने कहा कि चुप ! चुप ज़रा देख, तमाशा देख !
जोगनाथ अपनी जगह पर किसी लोकनृत्य की मुद्रा में खड़ा था, पर उसके चेहरे से ज़ाहिर था कि वह नाचेगा नहीं। अचानक दारोग़ा ने उसके गाल पर एक ज़ोरदार तमाचा मारकर पूछा, ‘‘लोटा लेकर कहाँ जा रहा था?’’
उसने चोट के असर को दूर करने के लिए आँखें मिलमिलाईं। उसके बाद ही दारोग़ाजी की आँखों–में–आँखें डालकर कहा, ‘‘बोटी–बोटी काट डालो, तब भी, जब तक मेरा वकील नहीं कहेगा, मैं कुछ नहीं बताऊँगा।’’
दारोग़ाजी ने हेड कांस्टेबिल को हुक्म दिया, ‘‘हथकड़ी डालकर इसे ले चलो। अभी इसके मकान की तलाशी लेनी है।’’
‘‘इनकी ख़बर भी लेनी है।’’ हेड कांस्टेबिल ने कहा।
पूरी घटना के बारे में अगर कोई दारोग़ाजी से पूछता तो वे उसका विवरण इस प्रकार देते :
आज से कुछ दिन पहले गाँव में चोर आए थे। पुलिस ने ग्राम–रक्षा–समिति की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशिश की। पर जैसा कि इस मौक़े पर अक्सर हो जाता है, चोर अपने गिरोह का एक मुक़ामी आदमी पीछे छोड़कर निहायत चालाकी के साथ अँधेरे में गायब हो गए और पुलिस और ग्राम–रक्षा–समिति की मुस्तैदी के कारण, दस्तयाब न होने पर भी, वे अपने मुजरिमाना इरादों में कामयाब न हो पाए। पर उनके गिरोह का मुक़ामी आदमी, जिस वक़्त गाँव में चोरों की आमद से चहल–पहल मची थी, गाँववालों की घबराहट का नाजायज़ फ़ायदा उठाकर गयादीन के मकान में बनीयत चोरी करने दाख़िल हो गया। ग्राम–रक्षा–समितिवालों के आवाज़ लगाने पर गयादीन के घर में लोग जाग गए और तभी उन्होंने किसी शख्स को सीढ़ी से चढ़कर छत पर जाते हुए देखा। पुलिस बात–की–बात में हवा की तरह मौक़े पर पहुँच गई, तब तक वह आदमी ग़ायब हो चुका था। मौक़े पर गयादीन ने पुलिस के हाथ में एक फ़ेहरिस्त देते हुए कहा कि यह उन जे़वरात की फ़ेहरिस्त है जो अभी–अभी चोरी में गए हैं। मौक़ा-मुआइना करके पुलिस वापस चली आयी और फिर लगभग पन्द्रह दिन ज़ोर–शोर की तफ़तीश करती रही। तफ़तीश करने के बाद पुलिस इस नतीजे पर पहुँची कि गयादीन के घर उस रात को चोरी ही हुई थी। यही नहीं, जो शख्स जल्दी–जल्दी सीढ़ी पर चढ़कर छत पर पहुँचता हुआ पाया गया था, यक़ीन के साथ कहा जा सकता है कि वह चोर ही था।
इसके बाद पुलिस को बज़रिये मुख़बिर मालूम हुआ कि जोगनाथ वल्द रामनाथ साक़िन मौज़ा शिवपालगंज के घर पर चन्द ऐसे जे़वरात हैं जो गयादीन के हो सकते हैं। पूरा पता लग जाने पर आज सुबह मुँह–अँधेरे उसके घर पर दविश दी गई। जोगनाथ लोटा लेकर उस वक़्त कहीं बाहर जा रहा था। पुलिस के सामने उसने जुर्म का इक़बाल किया और ख़ुद उसने अपनी मौजूदगी में मकान की तलाशी करवायी। तलाशी, जैसाकि क़ानून में लिखा गया है, मुहल्ले के एक बाइज़्ज़त आदमी की मौजूदगी में हुई। यह बताना भी ज़रूरी है कि इस मौज़े में अव्वल तो आदमी ही नहीं मिलते हैं और दूसरे यह कि अगर कोई आदमी मिल भी जाय तो उसे बाइज़्ज़त मानना मुश्किल है। जो भी हो, यह तलाशी छोटे पहलवान वल्द कुसहरप्रसाद और बैजनाथ वल्द त्रिवेनीसहाय की मौजूदगी में हुई। बैजनाथ इस गाँव का वाशिन्दा नहीं है। इस बाइज़्ज़त आदमी को पड़ोस के गाँव से बुला लिया गया था।
जोगनाथ के दिखाने पर अन्दर कोठरी में एक जगह खोदा गया। उससे एक हाँड़ी निकली और हाँड़ी के अन्दर चार जे़वरात–एक करधनी चाँदी की, क़ीमत लगभग पचास रुपिया, एक जोड़ी बिछिया, क़ीमत लगभग तीन रुपिया, एक हमेल चाँदी की, क़ीमत लगभग पचीस रुपिया और एक नाक की कील सोने की, क़ीमत लगभग तीस रुपिया बरामद हुए। इनकी फ़र्द-बरामदगी तैयार करके गवाहान के दस्तख़त लिये गए। इस सामान को मय हाँड़ी के एक कपड़े में बाँधकर मोहरबन्द किया गया। यह सारी कार्रवाई वहीं मौक़े पर यानी कोठरी के अन्दर की गई।
 
; जोगनाथ ने गिरफ़्तारी के वक़्त झगड़ा किया था। उसे पकड़ने के सिलसिले में हेड कांस्टेबिल की कमीज़ फट गई और हाथ में चोट आयी। जोगनाथ पर क़ाबू पाने के लिए कम–से–कम जितनी ताक़त ज़रूरी थी, उसका इस्तेमाल किया गया। बाद में जोगनाथ और घायल सिपाही का डॉक्टरी मुआइना कराया गया। सिपाही दो हफ़्ते की डॉक्टरी छुट्टी लेकर घर चला गया है। जोगनाथ के जिस्म पर बीस नीले–नीले निशान और चालीस खरोंचें हैं। सभी चोटें मामूली हैं और ज़मीन पर गिर पड़ने की वजह से आयी हैं।
यह आख्यान वैद्यजी को बहुत घुमा–फिराकर सुनाया गया। पर आज पहली बार वैद्यजी को इस शाश्वत सत्य में सन्देह हो रहा था कि पुलिस जो करती है, ठीक ही करती है।
वैद्यजी की राय जोगनाथ के बारे में बहुत अच्छी न थी। पर वे उस दुनिया में रहते थे जहाँ आदमी का सम्मान उसकी अच्छाई के कारण नहीं, उसकी उपयोगिता के कारण होता है। उनके आदमियों में जोगनाथ ही ऐसा था जो जी खोलकर दारू पीता था। और चाहे अपने पैसे से पी रहा हो, चाहे किसी दूसरे के पैसे पर, दारू की मात्रा में अन्तर नहीं आने देता था। कुल मिलाकर वह एक मँझोली हैसियत का गुण्डा था।
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