‘‘कल ही तो पेशी थी। हमसे कहा गया कि सुलह कर लो। हमने कहा कि सुलह की क्या बात है ! सीधे–सीधे हमें फाँसी दे दो, सब झगड़ा मिट जाएगा। शिवपालगंज में बस एक खन्ना मास्टर रहें और उनके गुण्डे रहें, फिर न कोई झगड़ा, न टण्टा।...
‘‘हम तो चुपचाप लौट आए। उधर उनके ये हाल कि सत्तर लड़कों को लेकर “प्रिंसिपल मुर्दाबाद’ के नारे लगवाने लगे। शहर की कचहरी। सैकड़ों भले आदमी मौजूद थे। पूछने लगे कि ये लोग कौन हैं, तो खन्ना मास्टर ने खुद कहा कि ये छंगामल कॉलिज के लड़के हैं...
‘‘बेशरम हो तो ऐसा हो।’’
उन्होंने अवधी की एक तीसरी कहावत कही, ‘नंगा के चूतर माँ बिरवा जामा, तो नाचै लागा। कहिसि के चलौ छाँह होई।’
‘‘समझे बाबू रंगनाथ ! ये हैं आपके खन्ना मास्टर ! रुप्पन बाबू को बता देना। उन्हें मुँह न लगायें, नहीं तो किसी दिन रोवेंगे।’’
वे थाने के सामने से निकले। लालटेनें लिये हुए कई सिपाही इधर–उधर चक्कर काट रहे थे। शोरगुल हो रहा था। कुछ लड़के सड़क पर खड़े हुए कोरस–जैसा गा रहे थे। थाने के पास दारोग़ाजी के क्वार्टर के सामने तीन ट्रक खड़े थे। उन पर सामान लद रहा था। सिपाहियों की दौड़धूप और शोरगुल का असली कारण यही था।
प्रिंसिपल साहब ने कहा, ‘‘लगता है दारोग़ाजी लद गए।’’
यह कहते–कहते इसका अर्थ सबसे पहले उन्हीं पर पूरे तौर से स्पष्ट हुआ। रंगनाथ का कन्धा हिलाकर चहके, ‘‘यह बात है ! इलाक़ा गँधा गया था। अब साफ़ हुआ।’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘पता नहीं, इतनी जल्दी हुक्म कैसे आ गया ? दोपहर तक तो कोई ख़बर नहीं थी।’’
प्रिंसिपल साहब की प्रसन्नता देखते ही बनती थी। लगता था, वे हाथ फैलाकर एकदम से हवा में उड़ जाएँगे और सामने के पेड़ की फुनगी पर बैठकर बुलबुल की तरह कोई तराना छेड़ देंगे। उन्होंने कहा, ‘‘बाबू रंगनाथ, इतने दिन अपने मामा के साथ रहकर भी तुमने उन्हें नहीं पहचाना। इससे पहलेवाले थानेदार को उन्होंने बारह घण्टे में शिवपालगंज से भगाया था। इन्हें तो, लगता है, चौबीस घण्टे मिल गए।’’
वे फुसफुसाने लगे, ‘‘वैद्यजी से कोई पार पा सकता है ? जोगनाथ की जिस दिन इन्होंने ज़मानत नहीं ली, तभी मैं समझ गया कि इनके लदने के दिन आ गए। उसी के साथ हमारा 107 वाला मामला। तुम खुद बताओ बाबू रंगनाथ, मेरा चालान करने की क्या ज़रूरत थी ! पर इन्हें कौन समझाए? रामाधीन इनके बाप बन गए थे। जैसा चाहते थे इन्हें वैसे ही घुमाते थे, और वही देख लिया आपने, अभी दस दिन भी नहीं हुए थे कि लद गए।’’
लड़कों का कोरस पूर्ववत् चल रहा था, ‘‘दारोग़ाजी लद गए, दारोग़ाजी लद गए !’’
वे ट्रकों पर सामान का लदना देखने के लिए खड़े हो गए।
एक ट्रक पर शीशम के कुछ बड़े–बड़े पलँग थे और बाक़ी जगह में एक बढ़िया गाय और उसकी बछिया थी। प्रिंसिपल साहब ने देखकर कहा, ‘‘भैंस नहीं दिख रही है। बड़ी फस्र्ट क्लास भैंस है !’’
रंगनाथ को उन्होंने समझाया, ‘‘यह गाय टिकैतगंज के ठाकुरों ने दी थी। बेवा पतोहू के हमलवाला मामला। गोदान करके छुटकारा पा गए।’’
उन्होंने किसी ख़ास व्यक्ति को लक्ष्य किए बिना ज़ोर से पूछा, ‘‘भैंस कहाँ गई ? दिख नहीं रही है ?’’
किसी ने अँधेरे में जवाब दिया, ‘बिक गई।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘शहर से एक घोसी आया था।’’
‘‘कितने में ?’’
‘‘सौ में। और तुम क्या समझे थे–हज़ार में ?’’
‘‘हम तो अब भी यही समझते हैं।’’ प्रिंसिपल साहब ने मौज से जवाब दिया और रंगनाथ का कन्धा पकड़कर इस आशय से हिलाया कि कथोपकथन को वह भी मौज के साथ सुने।
ट्रक के पास सिर्फ़ पलँग पड़े थे। रंगनाथ ने सुन रखा था कि दारोग़ाजी पलँगों के शौक़ीन हैं। उसने आज देख भी लिया। ट्रक पर इस समय भयंकर कोलाहल और उत्साह के वातावरण में वे पलँग लद रहे थे। कुछ लद चुके थे, कुछ लद रहे थे, कुछ लदनेवाले थे। सड़क पर कोरस गानेवाले लड़के अँधेरे के बावजूद अब घटनास्थल पर गोल बाँधकर खड़े हो गए थे और पलँगों का लदना देखने लगे। एक सिपाही पलँग के ऊपर चढ़ा हुआ, लालटेन नीचे को लटकाए, लादनेवालों को बढ़ावा दे रहा था, ‘‘अबे वो ! तोड़ दिया न चूल ! मैं तो पहले से जानता था, यह चूल तोड़े बिना मानेगा नहीं।’’ उसकी ल
लकार सुनकर यक़ीन हो जाता था कि किसी पलँग की चूल टूटना आज के दिन भारतीय प्रजातन्त्र की सबसे बड़ी दुर्घटना होगी। रंगनाथ ने भी पलँग लादनेवालों को सान्त्वना देते हुए ठण्डी आवाज़ में कहा, ‘‘हाँ भाई, चूलवूल मत तोड़ो। सँभलकर लादे जाओ।’’
प्रिंसिपल साहब रंगनाथ की बात सुनकर काफ़ी ज़ोर से हँसे। एक सिपाही पलँगों की परिचर्या में कोई बाधा डाले बिना अपनी जगह से बोला, ‘‘कौन है ? प्रिंसिपल साहब ? जयहिन्द प्रिंसिपल साहब !’’
‘‘क्या हुआ भाई ? जयहिन्द ! तबादला हो गया क्या ?’’
‘‘जी हाँ प्रिंसिपल साहब। दारोग़ाजी ने कप्तान साहब को दरख़्वास्त दी थी। लड़की की पढ़ाई का सवाल है, शहर में तबादला कराना चाहते थे।’’
‘‘हमारे कॉलिज में पढ़ाते। शिवपालगंज किस शहर से कम है ?’’
‘‘आपका कॉलिज तो हिन्दुस्तानी स्कूल है। वे अंग्रेज़ी पढ़ायेंगे। भगतिन स्कूल में। बेबी की वर्दी बन गई है। नीली–नीली है। पहनकर बिलकुल अंग्रेज़–जैसी दिखती है।’’
‘‘तो तबादले पर शहर जा रहे हैं। यह तो ख़ैर, अच्छा ही है। पर यह गाय कहाँ रखेंगे ? भूसा कहाँ से आएगा ? बेचेंगे नहीं क्या ?’’
सिपाही ने पूरी ताक़त के साथ एक पलँग ऊपर उठाया। काँखता हुआ बोला, ‘‘नहीं, गाय फ़ौजी फारम में रहेगी। दारोग़ाजी के भाई साहब वहीं नौकर हैं। यहाँ इस बेचारी गाय के लिए क्या था ! खिलाई के दिन तो अब आए हैं ?’’
ट्रक के ऊपरवाले सिपाही का सारा ध्यान चूल पर लगा था। वह दाँत पीस रहा था, ‘‘ठीक से ! अबे ठीक से ! अरे, अरे, अब दूसरे पलँग को न तोड़ देना। अगर टूटा, तो साले, समझ लो...।’’
किसी ने कहा कि वैद्यजी अभी–अभी दारोग़ाजी से मिलने आए हैं। कह रहे थे कि उनके होते हुए दारोग़ाजी का तबादला कैसे हो सकता है। वे उसे रुकवा देंगे।
प्रिंसिपल ने रंगनाथ से कहा, ‘‘हयादार होगा तो कल सवेरे मुर्गा बोलने के पहले ही शिवपालगंज छोड़ देगा।’’
वे थोड़ी देर सामान का मुआइना करते रहे। रंगनाथ ने कहा, ‘‘दारोग़ाजी पलँगों के शौक़ीन हैं।’’
‘‘जो भी फोकट में मिल जाय, उसी के शौक़ीन हैं।’’ अचानक वे ट्रक के ऊपर चढ़े हुए सिपाही से बोले, ‘‘अरे भाई सिपाही, वह टूटी चूलवाली चारपाई छोड़े जाओ न ! रुपया–धेली में नीलाम होनी हो तो हमीं ले लेंगे।’’
सिपाही बोला, ‘‘आप बड़े आदमी होकर कैसी टुच्ची बात करते हैं। लेना हो तो पूरा ट्रक ले जाइए। कहिए, हँकवा दूँ इस वक़्त।’’
‘‘हें–हें–हें, ट्रक लेकर मैं क्या करूँगा ! मामूली मास्टर आदमी।’’ फिर आवाज़ बदलकर उन्होंने ग़ैरमामूली आदमी की तरह कहा, ‘‘दारोग़ाजी घर ही पर हैं न ? वैद्यजी भी हैं ? तो चलिए बाबू रंगनाथ, दारोग़ाजी को भी सलाम कर लिया जाय। बेचारे भले आदमी थे। किसी को कभी सताया नहीं, किसी से कभी कुछ माँगा नहीं। भगवान् ने जितना दिया, उसे आँख मूँदकर ले लिया।’’
सचमुच ही बेचारे भले आदमी थे, गुज़र गए : रंगनाथ ने सोचा।
24
गाँव के किनारे एक छोटा–सा तालाब था जो बिलकुल ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ था। गन्दा कीचड़ से भरा–पूरा, बदबूदार। बहुत क्षुद्र घोड़े, गधे, कुत्ते, सूअर उसे देखकर आनन्दित होते थे। कीड़े–मकोड़े और भुनगे, मक्खियाँ और मच्छर–परिवार नियोजन की उलझनों से उन्मुख–वहाँ करोड़ों की संख्या में पनप रहे थे और हमें सबक़ दे रहे थे कि अगर हम उन्हीं की तरह रहना सीख लें तो देश की बढ़ती हुई आबादी हमारे लिए समस्या नहीं रह जाएगी।
गन्दगी की कमी को पूरा करने के लिए दो दर्जन लड़के नियमित रूप से शाम–सवेरे और अनियमित रूप से दिन को किसी भी समय पेट के स्वेच्छाचार से पीड़ित होकर तालाब के किनारे आते थे और–ठोस, द्रव तथा गैस–तीनों प्रकार के पदार्थ उसे समर्पित करके, हल्के होकर वापस लौट जाते थे।
अपने पिछड़ेपन के बावजूद किसी देश का जैसे कोई–न–कोई आर्थिक और राजनीतिक महत्त्व अवश्य होता है, वैसा ही इस तालाब का भी, गन्दगी के बावजूद, अपना महत्त्व था। उसका आर्थिक पहलू यह था कि उसमें ढालू किनारों पर दूब अच्छी उगती थी और वह शिवपालगंज के इक्कावालों के घोड़ों की खाद्यसमस्या दूर करती थी। उसका राजनीतिक पहलू यह था कि वहाँ घास छीलनेवालों के बीच सनीचर ने �
��ैन्वेसिंग की और अपने लिए वोट माँगे।
सनीचर जब तालाब के किनारे पहुँचा, दो घसियारे घास छील रहे थे। वे पेशे से घसियारे नहीं, बल्कि इक्कावाले थे जो साइकिल-रिक्शा चल जाने के बाद भी अपने घोड़ों के साथ अब तक जीवित थे। आज़ादी के मिलने के बाद इस देश में साइकिल–रिक्शा–चालकों का वर्ग जिस तेज़ी से पनपा है, उससे यही साबित होता है कि हमारी आर्थिक नीतियाँ बहुत बढ़िया हैं और यहाँ के घोड़े बहुत घटिया हैं। उससे यह भी साबित होता है कि समाजवादी समाज की स्थापना के सिलसिले में हमने पहले तो घोड़े और मनुष्य के बीच भेदभाव को मिटाया है और अब मनुष्य और मनुष्य के बीच भेदभाव को मिटाने की सोचेंगे। ये सब बातें तो तर्क से साबित हो जाती हैं, पर इसका कोई तर्क समझ में नहीं आता कि शिवपालगंज और शहर के बीच चलनेवाले दर्जनों साइकिल-रिक्शों के होते हुए वहाँ के ये दो इक्केवान और उनके घोड़े अब तक ख़त्म क्यों नहीं हुए थे। घोड़े इस तालाब के किनारे उगनेवाली घास खाकर भले ही ज़िन्दा रह लें, पर इक्केवान भी इसी तरकीब से जी लेते होंगे, यह मानना कठिन है, क्योंकि यह खाद्य-विज्ञान का सिद्धान्त है कि आदमी की अक़्ल तो घास खाकर ज़िन्दा रह लेती है, आदमी खुद इस तरह नहीं रह सकता।
Rag Darbari Page 58