Rag Darbari

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Rag Darbari Page 61

by Shrilal Shukla


  रिपुदमन ने कहा, ‘‘मान लो, उसके बाद प्रधान का फिर से चुनाव हो और तुम प्रधान बनना चाहो तो क्या हालत होगी ?’’

  सर्वदमन काग़ज़-पेंसिल ले आये और जोड़–बाकी लगाकर बोले, ‘‘दादा, अगर तुम और शत्रुघ्नसिंह अपने पचीस–पचीस आदमियों के साथ मर जाओ तो फिर मैं क्या, मेरी तरफ़ का कोई भी आदमी दूसरी तरफ़ के किसी भी आदमी से पचास वोट ज़्यादा ले गिरेगा। क्योंकि गाँव के वोटरों में उस तरफ़ से सचमुच मर–मिटनेवाले ज़्यादा–से–ज़्यादा पचीस आदमी निकलेंगे, जबकि हमारी तरफ़ ऐसे आदमी चालीस से भी ज़्यादा हैं। उधर वे पचीस आदमी अगर मर जाएँ तो समझ लो उनका पूरा मुहल्ला मर गया, जबकि हमारे पचीस आदमियों के मर जाने के बाद भी मैदान हमारे बाक़ी पन्द्रह आदमियों के हाथ में रहेगा।’’

  चुनाव के तीन दिन पहले सब–डिवीज़नल मैजिस्ट्रेट की अदालत में रिपुदमन ने शत्रुघ्नसिंह और उनके पचीस आदमियों के ख़िलाफ़ एक दरख़्वास्त दी कि उन्हें उनसे जान व माल का ख़तरा है और चुनाव में शान्ति–भंग का अन्देशा है। पुलिस ने दरख़्वास्त की ताईद की। जवाब में शत्रुघ्नसिंह ने रिपुदमन और उनके चालीस आदमियों के ख़िलाफ़ ऐसी ही दरख़्वास्त दी और पुलिस ने उसकी भी ताईद की, पर उसमें यह गणित लगा दी कि यह बात रिपुदमन और उसके केवल पचीस आदमियों के लिए सही है। चुनाव के दिन पहले दोनों उम्मीदवारों और दोनों ओर के पचीस–पचीस आदमियों की पेशी हुई। मैजिस्ट्रेट ने, जैसाकि किताब में लिखा था, शत्रुघ्नसिंह और उनकी पार्टी से ज़मानत और मुचलके माँगे जिन्हें वे देने की सोचने लगे। फिर मैजिस्ट्रेट ने रिपुदमन और उनकी पार्टी से ज़मानत और मुचलके माँगे। रिपुदमन ने कहा, ‘‘हुजूर, हम ज़मानत और मुचलके नहीं देंगे। हमारी बात याद रखिएगा, कल हमारे गाँव में क़त्लेआम होगा। बड़ी–से–बड़ी ज़मानत शत्रुघ्नसिंह और इनके गुण्डों को झगड़ा करने से न रोक पाएगी। हम लोग सीधे–सादे खेतिहर हैं, हम इनका क्या खाकर मुक़ाबला करेंगे। इसलिए ऐसा कीजिए हुजूर, कि हमें ज़मानत न दे सकने के कारण हवालात में बन्द करा दीजिए। हवालात में बन्द हो जाने से हमारी जान तो बच जाएगी। सिर्फ़ इतना कीजिएगा हुजूर, कि शत्रुघ्नसिंह की ज़मानत का ऐतबार न कीजिएगा। हमारे ख़ानदान के दो–चार लोग गाँव में रह जाएँ, उनको बचाने का इन्तजाम कर दीजिएगा।’’ इसके बाद उन्होंने कटघरे को गले लगाकर रोने की कोशिश की।

  पुलिस ने इस वक्तव्य की भी ताईद की। अत: मैजिस्ट्रेट ने यही तय किया कि जब रिपुदमनसिंह और उनकी पार्टी चुनाव के दौरान जेल में रहेगी तो शत्रुघ्नसिंह और उनकी पार्टी की ज़मानत मंजूर नहीं की जाएगी, उन्हें भी जेल में रहना पड़ेगा।

  इस तरह कुछ दिनों के लिए उम्मीदवार और उनके पचीस–पचीस आदमी मर गए।

  इसके बाद चुनाव बड़े शान्त और सभ्यतापूर्ण वातावरण में हुआ। जहाँ तक विभिन्न पक्षों की दक्षता का सवाल है, उनमें शत्रुघ्नसिंह के सहायक बहुत निकम्मे साबित हुए; वास्तव में पता ही नहीं चल पाया कि उनका कोई सहायक गाँव में बचा भी है या नहीं। उधर रिपुदमन की ओर से सर्वदमन चुनाव लड़ने के लिए मौजूद थे, क्योंकि पुलिस की ताईद और वकालत की डिग्री के सहारे वे शान्तिप्रिय आदमी समझे जाते थे और उनका हवालात में जाना ज़रूरी नहीं समझा गया था। उन्होंने जमकर चुनाव लड़ा और उसका नतीजा वही निकला जो वे पहले काग़ज़ पर जोड़ चुके थे।

  चुनाव जीतने का यह तरीक़ा रामनगर के नाम से पेटेंट हुआ।

  नेवादावाला तरीक़ा कुछ ज्य़ादा आदर्शवादी था।

  वहाँ कई जातियों के लोग चुनाव लड़ने के लिए खड़े थे, पर उनमें मुख्य उम्मीदवार केवल दो थे जिन्हें ऋग्वेद में पुरुष–ब्रह्‌म का क्रमश: मुँह और पैर माना गया है। आज के हिसाब से यह ब्राह्‌मणों और हरिजनों का संघर्ष था, पर नेवादा में यह मामला बड़े ही सांस्कृतिक और लगभग वैदिक ढंग पर पनपा।

  ब्राह्‌मण उम्मीदवार ने सवर्णों के बीच ऋग्वेद के पुरुष–सूक्त का कई बार पाठ किया और समझाया कि ब्राह्‌मण ही पुरुष-ब्रह्‌म का मुँह है। उसने यह भी बताया कि शूद्र पुरुष-ब्रह्‌म का पैर है। प्रधान के पद के बारे में उसने कई उदाहरण देकर बताया कि उसका सम्बन्ध मेधा और वाणी से ह�
�� जो पैर में नहीं होती, सिर में होती है, जिसमें मुँह भी होता है। अत: ब्राह्‌मण को स्वाभाविक रूप से प्रधान बनना चाहिए, न कि शूद्र को।

  ब्राह्‌मण उम्मीदवार ने शूद्रों का तिरस्कार करने के लिए प्रचलित गाली–गलौज का सहारा नहीं लिया था, वह अपनी बात को इसी सांस्कृतिक स्तर पर समझाता रहा। उसने रिआयत के तौर पर यह भी मान लिया कि कोई दौड़–धूप का ऐसा काम, जिसमें पैरों की आवश्यकता हो–जैसे न्याय–पंचायत के चपरासी का काम–निश्चित रूप से शूद्र को ही मिलना चाहिए, पर प्रधान के पद के लिए शूद्र का खड़ा होना वेद-विपरीत बात होगी।

  पर जैसाकि प्राय: होता है, वोटरों ने बातचीत के इस सांस्कृतिक स्तर को स्वीकार नहीं किया और मजबूरन ब्राह्‌मण उम्मीदवार को अपने प्रचार का ढंग बदलना पड़ा। उसने पुरुष-ब्रह्‌म के मुख की हैसियत से अपने मुँह का ज़रा ज़्यादा उदार उपयोग करना शुरू किया। साथ ही उसके सहायक प्रचार के मौक़ों पर अपने मुँह का और भी खुलकर प्रयोग करने लगे और कुछ दिन बाद बात उसी पुराने स्तर पर आ गई कि बताओ ठाकुर किसनसिंह, हमें छोड़कर क्या अब तुम उस चमार को वोट दोगे ?

  गाँव में ब्राह्‌मण उम्मीदवार की ओर से देखते–देखते गाली–गलौज का उग्र वातावरण बन गया और तब अचानक एक दिन उसे पुरुष–सूक्त की उस ऋचा का ठीक मतलब मालूम हो गया जिसमें शूद्र को पैर माना गया है।

  एक जगह ब्राह्‌मण उम्मीदवार का एक सहायक खुलकर दूसरे उम्मीदवार को गाली दे रहा था। वह चबूतरे पर बैठा था और उसके मुँह से धारावाहिक गालियों के बीच जो केन्द्रीय प्रश्न निकल रहा था वह यही था कि ‘‘बताओ ठाकुर किसनिसंह, क्या अब तुम उस...।’’ ‘उस’ के बाद कुछ गालियाँ, बाद में वाक्य का दूसरा अंश ‘‘...को ही वोट दोगे ?’’

  वह चबूतरे पर बैठा था और बोलता जाता था। अचानक उसका वाक्य अधूरा ही रह गया। उसे अपनी कमर पर इतने ज़ोर से चोट का अहसास हुआ कि वह ‘तात लात रावन मोहिं मारा’ कहने लायक़ भी न रहा। वह चबूतरे से नीचे लुढ़ककर गिरा ही था कि उस पर दस ठोकरें और पड़ गईं और जब उसने आँख खोली तो पता लगा कि संसार स्वप्न है और मोह–निद्रा का त्याग हो चुका है। इसके बाद इस तरह की कई घटनाएँ हुईं और ब्राह्‌मण उम्मीदवार को मालूम हो गया कि पुरुष–ब्रह्‌म का मुख पुरुष–ब्रह्‌म के पैर से ज़्यादा दूर नहीं है और संक्षेप में जहाँ मुँह चलता हो और जवाब में लात चलती हो, वहाँ मुँह बहुत देर तक नहीं चल पाता।

  इस अनुसन्धान ने ब्राह्‌मण उम्मीदवार को हैरान कर दिया। पर ऐसे मौके पर उसकी मदद के लिए एक बाबाजी का आविर्भाव हुआ जो उन अनेक बाबाजियों में से थे, जो विपन्नताग्रस्त किसानों से लेकर ऊँचे–से–ऊँचे अफ़सरों, नेताओं और व्यापारियों में बड़ी आसानी से अपने चेलों को पहचान लेते हैं।

  घटना सिंहासनबत्तीसी और बैतालपचीसी की कथाओं की तरह घटी। ब्राह्‌मण उम्मीदवार एक दिन, अपने मुँह का बहुत सीमित उपयोग करने के बावजूद, पुरुष-ब्रह्‌म के पैर की ठोकर खाकर ढेर हो चुका था और इस चमार से प्रधान–पद को अछूता बचाकर किस तरह उसे ब्राह्‌मण के नीचे रखा जाए, इस समस्या पर विचार कर रहा था। विचार करने का काम गाँव के बाहर एक कुएँ की जगत पर ‘नव नील–नील कोमल–कोमल छाया तरुवन में तम श्यामल’ के सायंकालीन वातावरण में एक बरगद के पेड़ के पास हो रहा था। तभी उसे पेड़ के नीचे कुछ चिनगारियाँ उड़ती हुई नज़र आईं और साथ ही शंकरजी के कई विशेषण भर्रायी हुई आवाज़ में सुनायी दिए। ब्राह्‌मण उम्मीदवार को यक़ीन हो गया कि पेड़ के नीचे कोई बाबाजी हैं।

  यही था भी। बाबाजी शंकर का नाम ले रहे थे और गाँजा पी रहे थे। आदमी दुखी न हो और सामने कोई बाबाजी खड़े हों, तब भी साष्टांग गिर पड़ता है। यहाँ तो ब्राह्‌मण उम्मीदवार दुखी था और बाबाजी प्रकट हो गए थे, बिना कुछ सोचे हुए वह बाबाजी के चरणों पर गिर पड़ा और गिड़गिड़ाने लगा।

  बाबाजी की ज़िन्दगी में ऐसे मौक़े कई बार आ चुके थे। इन्हीं तजुर्बों के आधार पर उन्होंने ब्राह्‌मण उम्मीदवार को अभयदान देते हुए समझाया कि घबराओ नहीं बेटा, अगर तुम्हें स्वप्नदोष की बीमारी है या शीघ्रपतन होता है या बचपन की कुटेव के कारण तुममें नपुंसकता व्याप्त हो गई है त�
� यक़ीन रखो, मेरे नुस्खे का इस बार प्रयोग करके तुम एक हज़ार स्त्रियों का मान–मर्दन कर सकोगे, पर ब्राह्‌मण उम्मीदवार ने सिर हिलाकर बाबाजी की इस उदारता से लाभ उठाना नामंजूर कर दिया। तब बाबाजी ने उसे बताया कि इस अत्यन्त गोपनीय नुस्खे से तुम तो बाजीकरण के उस्ताद तो हो ही जाओगे, साथ ही इसके आधार पर अगर दवाएँ बनाकर तुमने उसे बेचना शुरू कर दिया तो कुछ दिनों में ही तुम्हें करोड़पति का पार्ट भी शुरू कर देना पड़ेगा। इसके बावजूद ब्राह्‌मण उम्मीदवार रोता रहा और सिर हिलाता रहा और बाबाजी ने उसे जब ज़्यादा कोंचा तो उसने कहा कि मुझे एक हज़ार स्त्रियों का मान–मर्दन नहीं करना है, मेरा काम तो सिर्फ़ एक चमार का मान–मर्दन होने से चल जाएगा।

 

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