कोई एक पागल।
छत पर बरामदे में एक ढेले से बँधी हुई जो गन्दी–सी एक पुड़िया ज़मीन पर पड़ी थी, वह बाद में प्रेम–पत्र साबित हुई। रंगनाथ ने उसे एक बार पढ़ा, फिर बार–बार पढ़ा और उसे समझने में देर न लगी कि यह पत्र उसी ने लिखा है, जिसका दबाव अपनी छाती पर महसूस करके उस रात उसे कोणार्क और खजुराहो याद आते रहे थे। रंगनाथ को यह भी स्पष्ट हो गया कि यह प्रेम–पत्र उसके लिए नहीं, किसी और के लिए है।
वह कौन है ?
रुप्पन ?
तो क्या यह पत्र बेला ने रुप्पन को लिखा है ? और, तो उस दिन इस छत पर आनेवाली लड़की क्या बेला ही थी ?
यह समझना भूल होगी कि रंगनाथ इन सवालों का जवाब सोचते समय किसी महान् न्यायशास्त्री या तर्कशास्त्री का पार्ट अदा करते हुए दो में दो जोड़कर चार की संख्या निकाल रहा था। वास्तव में एक ओर तो वह इस पत्र की लेखिका को बेला मानते हुए रुप्पन के साथ उसकी चूल बैठा रहा था, दूसरी ओर वह इस बात पर ताज्जुब कर रहा था कि शिवपालगंज में भी फ़िल्मी गानों का कोई इतना बड़ा विद्वान मौजूद है जिसे पाकर विश्वविद्यालयों के अधिकारी उसे अपने गले लगायें या न लगायें–उसके गले में फ़िल्मी साहित्य की डॉक्टरेट ज़रूर लटका देंगे। इन विचारों के साथ–ही–साथ रंगनाथ के भीतर एक और चीज़ उभर रही थी जिसे फ़िल्मी भाषा में कहा जा सकता है–जाने फिर क्यों जलाती है दुनिया मुझे। वह जो उस दिन उसकी आवाज़ सुनकर ‘हाय मैया’ का पवित्र मन्त्र पढ़ती हुई वापस भाग गई थी, आज किसी दूसरे के लिए ‘‘अकेले हैं चले आओ, जहाँ हो तुम”–जैसी अपील ब्राडकास्ट कर रही है। रंगनाथ के लिए यह असह्य था।
पत्र अपनी जेब में रखकर वह मकान से बाहर निकला। आज शहर में जोगनाथ का मुक़दमा होनेवाला था और शिवपालगंज में जो कोई भी कुछ शुमार किया जाता था, उधर ही भाग जाता था। किसी गुण्डे पर मुक़दमा चल रहा हो तो ग्रामीण भाइयों की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वे शहर घूम आएँ और कचहरी देख लें। गुण्डे को अपमानित होते देखकर उन्हें हार्दिक सुख मिलता है और गुण्डे को भी, देखो, गाँव के कितने आदमी मेरी मदद के लिए आए हैं, ऐसा समझकर हार्दिक सुख मिलता है। इसी परम्परा के अनुसार गाँव के कई लोग शहर जा चुके थे और बहुत–से लोग अभी जानेवाले थे।
बद्री पहलवान सामने से अपने भुवन–मोहन रूप में आ रहे थे। मलमल का कुरता, जिसके नीचे बनियान पहनने की ज़रूरत नहीं समझी गई थी, फागुन के लिए ठण्डा होने पर भी, उनके जिस्म पर झलमला रहा था। कमर में लँगोट तो बँधा ही था और आश्चर्य की बात यह कि उस पर लुंगी भी थी। पाँवों में काले पॉलिशदार बूट। साफ़-सुथरे घुटे हुए सिर पर कड़वे तेल की चमक और उसके ऊपर–बहुत ऊपर नीला आसमान।
रंगनाथ ने पहले सोचा था कि वह इस प्रेम–पत्र को रुप्पन बाबू के सामने पेश करेगा। और ‘सिनेमा का संस्कृति के अध:पतन में योगदान’ जैसे विषय पर कुछ जुमले कहकर उसे बेला के प्रेम में गिरने से रोकेगा। वह जानता था कि रुप्पन बाबू से इस विषय पर बातचीत करना मुश्किल होगा, पर प्रेम–पत्र मिलने–जैसी करारी घटना को किसी कुन्द तरीक़े से खत्म कर देना भी उसे ठीक नहीं जान पड़ा था। किन्तु बद्री पहलवान को देखते ही उसने अपनी योजना बदल दी, जैसे किसी अमरीकी एक्सपर्ट को देखते ही हम कभी–कभी अपनी योजना बदल देते हैं।
बद्री पहलवान ने प्रेम–पत्र का दूर से मुआइना किया और इसे आसान बनाने के लिए रंगनाथ उसे अपने दोनों हाथों में पकड़े हुए डेढ़ फीट की दूरी पर खड़ा रहा। वे चुपचाप पूरे पत्र को पढ़ते रहे, एक जगह उन्होंने जब आँख सिकोड़ी तो रंगनाथ ने उन्हें मदद देने के उद्देश्य से पढ़ा...‘‘फिर ये हसीं रात हो न हो’’ और कहा, ‘‘हसीन। मतलब है खूबसूरत।’’
बद्री पहलवान ने एक डकार–सी ली जिसका तात्पर्य शायद यह था कि समझाने की ज़रूरत नहीं, ऐसी बातें मैं खूब समझता हूँ। पूरा पत्र पढ़कर उन्होंने उसे अपने हाथ में ले लिया और मोड़कर अपने कुरते की जेब में डाल लिया।
रंगनाथ ने कहा, ‘‘रुप्पन बाबू बहुत गड़बड़ रास्ते पर चल रहे हैं। और वह लड़की ! न जाने कैसा कूड़ा–कचरा उसने इस चिट्ठी में भर दिया है।’’
जवाब में बद्री पहलवान बड़े ज़ोर से हँसे। बोले, ‘‘चिट्�
��ठी तो उस ससुरी ग्राम–सेविका ने लिखी होगी। यहाँ उसी को ऐसी बातें आती हैं।’’
‘‘तो...तो क्या रुप्पन बाबू किसी ग्रामसेविका से फँसे हैं ?’’
पहलवान पूर्ववत् हँसते रहे। फिर अपने को रोककर बोले, ‘‘नहीं–नहीं। तुम तो हर बात उल्टी ही समझते हो। वह बेचारी ऐसा काम नहीं करती। सिर्फ दूसरों की चिट्ठियाँ लिख देती है।’’
बद्री पहलवान अपनी राह पर चल दिए। रंगनाथ के चेहरे पर उलझन देखकर चलते–चलते उन्होंने कहा, ‘‘इस काग़ज़ की फिक्र न करो। मैं ठीक करा दूँगा।’’
अदालत शहर की थी पर उसमें लगभग समूचा शिवपालगंज आ गया था। जोगनाथ के ख़िलाफ़ चोरी के मुक़दमे में सबूत की गवाही हो रही थी।
वातावरण फूहड़ और अश्लील था। बरामदे में कुत्तों की तरह नागरिक लेटे हुए थे। होली नज़दीक आ गई थी, इसलिए लोगों की ज़बान पर मज़ाक और गालियाँ थीं। देह पर गन्दे पर रंग–बिरंगे कपड़े या लत्ते थे। मैले–कुचैले, बढ़ी हुई दाढ़ियोंवाले वादी– प्रतिवादी–साक्षाीगण, बीड़ी पीते हुए, या गन्दे दाँतों के पीछे तम्बाकू का चूरा सुरक्षित बनाए हुए चीख़–चीख़कर बात कर रहे थे। एक औरत फर्श पर लेटी हुई एक बच्चे के मुँह में अपना स्तन ठूँसकर दूध पिला रही थी और यह दृश्य कई उपस्थित नागरिकों के लिए बड़ा दिलचस्प बन गया था।
हवा तेज़ी से बह रही थी और धूल और पत्ते उड़कर पूरे बरामदे में फैल रहे थे।
पाँवों में ख़ाकी पट्टी लपेटे हुए, पुलिस के दो वर्दीदार सिपाही बरामदे में नंगे सिर घूम रहे थे। उनमें से एक के जूते, जो हमेशा किसी दूसरे की मरम्मत करने के लिए उद्यत रहते थे, सामने बरगद के पेड़ के नीचे एक मोची के पास मरम्मत के लिए गए थे, दूसरे के जूते इजलास के दरवाज़े पर उतारकर रख दिए गए थे, क्योंकि अभी वे नये थे और पाँव में अपने ही अँगूठे को काटने लगते थे। वकील लोग, काम कुछ न हो तब भी, काम के बोझ से दबे हुए बार–बार इजलास के भीतर जाते थे और बाहर आ जाते थे। इत्मीनान से जम्हाई लेते हुए अहलमद लोग प्रत्येक पन्द्रह मिनट पर इजलास के बाहर आकर सामने एक पान की दुकान की ओर जाते थे और फिर किसी मुक़दमेबाज़ को अपने पीछे डाले हुए, किसी को बग़ल में लटकाए, यह समझाते हुए कि आज काम बहुत है, अब परसों आना, मुँह में पान और चूना भरे हुए, ऊँट की तरह गरदन ऊपर उठाए, पुन: इजलास के सुरक्षित वातावरण में घुस जाते थे।
बरामदे के एक कोने में लंगड़ भी बैठा था।
प्रधान होने के नाते यहाँ तमाशबीनों में सनीचर का होना बहुत अनिवार्य था; इसलिए भी कि आज छोटे पहलवान पुलिस की ओर से जोगनाथ के ख़िलाफ़ गवाही देने आए थे। इस घटना का ऐतिहासिक महत्त्व था, क्योंकि छोटे पहलवान वैद्यजी के आदमी समझे जाते थे, और जोगनाथ भी वैद्यजी का आदमी था, और अचानक ही ऐसी बात पैदा हो गई थी कि एक ही आदमी के दो आदमी अभियुक्त और सबूत के गवाह की हैसियत से अलग–अलग खड़े हो गए थे जिसके लिए रुप्पन बाबू ने कुछ दिन हुए, नौटंकी–शैली में कहा था, कि दो फूल साथ फूले, क़िस्मत जुदा–जुदा है।
सनीचर और गाँव के बहुत–से लोग इजलास के अन्दर चले गए थे। लंगड़, जिसे सनीचर सिर्फ़ तफ़रीह के लिए अपने रिक्शे पर बिठा लाया था, बाहर बरामदे में बैठा हुआ अपने नये श्रोताओं को अपने जीवन के अनुभव सुना रहा था। उसका सिर्फ़ एक जीवन था और उसमें सिर्फ़ एक अनुभव था, उसी को इस समय वह काफ़ी विस्तार से बताता चल रहा था।
‘‘...तो बापू, इतने दिन के बाद, पूरा एक साल तीन महीना बीत जाने पर, अब मामला ठीक हुआ है। नक़ल की दरख़्वास्त में अब कोई कमी नहीं रही, मिसिल भी सदर से तहसील वापस पहुँच गई है। कल तहसील गया था तो पता लगा, नकल बाबू ने अब हमारा काम हाथ में ले लिया है। आज तैयारी हो रही होगी। फिर उसका असल से मुक़ाबला होगा।
‘‘...बस अब तीन–चार दिन की कसर है।’’
एक वकील जो बरामदे के खम्भे से टिके हुए सिगरेट पी रहे थे, वहीं से बोले, “इत्ते दिन मारे–मारे फिरते रहे। पहले हमारे पास, बल्कि किसी भी वकील के पास चले आए होते तो तीन दिन में यह काम हो गया होता।’’
लंगड़ ने इन दिनों सन्तोंवाली मधुर मुस्कान का इस्तेमाल करना सीख लिया था, जिसे चेहरे पर ओढ़ते ही लगता था कि दूसरा आदमी बचकानी बात कर रहा है �
�र यह मेरी साधुता है कि मैं उसे झेल रहा हूँ। उसी मुस्कान का काफ़ी बड़ी मात्रा में प्रयोग करते हुए लंगड़ ने कहा, ‘‘वकील की दरकार नहीं थी बापू, यह तो सत्ता की लड़ाई थी। पाँच रुपिया बाबू को दे दिया होता तो नक़ल तीन दिन नहीं, तीन ही घण्टे में मिल जाती। पर उस तरह न तो उसे लेना था, न मुझे देना था।’’
वकील ने कहा, ‘‘उसे लेना क्यों नहीं था ? रुपिया दिया और उसने लिया नहीं ?’’
लंगड़ थककर फ़र्श पर लेटने की तैयारी करने लगा था। बोला, “ सत्त की लड़ाई थी बापू; तुम वकील हो, नहीं समझोगे।’’
लोग हँसने लगे, पर लंगड़ ने लेटकर चुपचाप आँखें मूँद लीं। फिर वह धीरे–से कराहा।
किसी ने पूछा, ‘‘क्या मामला है लंगड़ ? ठण्डे पड़ रहे हो।’’
उसने आँखें मूँदे–ही मूँदे सिर हिलाया, कुछ कहा नहीं। उसके पास बैठे हुए एक आदमी ने उसकी देह छूकर कहा, ‘‘बुखार–जैसा जान पड़ता है।’’
एक बुढ़िया चुपचाप बैठी हुई घुग्घू की–सी आँखों से संसार को दार्शनिकतापूर्वक देख रही थी। बोली, ‘‘ख़राब दिन लगे हैं। मेरे दो लड़के भी बुखार में पड़े हैं। फ़सल पक गई है। कोई काटनेवाला नहीं। चूहे नुक़सान कर रहे हैं।’’
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