वकील-सफ़ाई ने फिर ऐतराज़ किया, ‘‘श्रीमन्, यह दरख़्वास्त पहले ही की लिखी है।’’
‘‘उससे कोई फ़र्क़़ नहीं पड़ता।’’ अदालत ने विद्वत्तापूर्वक कहा।
पर उधर से इसकी सफ़ाई में कुछ कहना ज़रूरी हो गया। पब्लिक प्रॉसीक्यूटर बोला, ‘‘हुजूर, ये तो रोज़ का कारोबार है। अदालती दाँवपेंच। हर मौक़े के लिए पहले से तैयार होकर आते हैं।’’
‘‘ठीक है, ठीक है, आप जिरह कीजिए।’’
पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने छोटे पहलवान की ओर मुड़कर अपना सवाल दोहराया, ‘‘ये जो तीन ज़ेवरात तुम्हारे सामने रखे हैं, ये तलाशी के वक़्त जोगनाथ के घर से बरामद हुए थे ?’’
इस अदा से, जैसे वे बेमतलब की झाँय–झाँय नहीं करना चाहते, छोटे पहलवान ने, अदालत से कहा, ‘‘मेरा जो बयान था, वह हो चुका। तलाशी में कुछ नहीं निकला।’’
पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने मिसिल से एक काग़ज़ निकालकर कहा, ‘‘यह फ़र्द बरामदगी तुम्हारे सामने लिखी गई है ?’’
‘‘मेरे सामने तो बस गाली–गलौज होता रहा, लिखा–पढ़ी की नौबत नहीं आयी।’’
‘‘इस फ़र्द पर तुमने दस्तख़त किया है ? देखकर बताओ।’’
छोटे पहलवान ने काग़ज़ को देखा भी नहीं। अकड़कर कहा, ‘‘नहीं।’’
पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने एक स्थान पर छोटे के दस्तख़तों की ओर इशारा करके कहा, ‘‘ये देखो, अच्छी तरह देख लो। ये दस्तख़त तुम्हारे ही हैं।’’
छोटे पहलवान ने अदालत से कहा, ‘‘मेरा बयान तो हो गया सरकार, अब ये क्यों बार–बार उसी सवाल को थेप रहे हैं ?’’
पर अदालत ने इस बार सहानुभूति नहीं दिखायी। चेतावनी दी, ‘‘काग़ज़ देखकर जवाब दो। ग़लतबयानी की तो जेल हो जाएगी।’’
छोटे पर इसका कोई असर नहीं हुआ। सीना तानकर बोले, ‘‘जेल का तो कारोबार ही होता है हुजूर। जब अदालत में आ गए तो एक टाँग जेल में रखी है और एक बाहर। पर मैं काग़ज़ में क्या देखूँ ! पढ़ना–लिखना मेरे लिए ऊना–मासी हराम है।’’
पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने आवाज़ ऊँची करके कहा, ‘‘तब तुम दस्तख़त कैसे कर लेते हो, यह दस्तख़त तुमने नहीं किया है ?’’
इतनी देर बाद जोगनाथ के वकील ने मुँह खोला। जैसे कोई किसी बछड़े को प्यार से पुचकार रहा हो, उसने कहा, ‘‘धीरे–धीरे एक–एक सवाल कीजिए। गवाह कहीं भागा नहीं जा रहा है।’’
पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने इस पर बिना ध्यान दिए सवाल किये, ‘‘तब तुम दस्तख़त कैसे कर लेते हो ?’’
‘‘दस्तख़त कौन करता है ? किसी ने हमारी सात पीढ़ी में भी दस्तख़त किया है कि हमीं करेंगे ? देख लो जाकर, पाँच सौ काग़ज़ रखे हैं। हरएक में मैंने अँगूठे का निशान लगाया है। बराबर।’’
छोटे पहलवान ने अभिमानपूर्वक अदालत में चारों तरफ़ निगाह फेंकी। पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने फिर पूछा, ‘‘मैं कहता हूँ कि इस काग़ज़ पर तुमने दस्तख़त किया है ?’’
‘‘बोलने को तुम तीतर–जैसे बोले जाओ, कौन मना करता है ?’’
अदालत ने टोका, ‘‘तमीज़ से बात करो।’’
छोटे पहलवान जोश में आ गए। बोले, ‘‘अपनी–अपनी तमीज़ है सरकार, इनकी धौंस में आकर ग़लत बात क्यों कहूँ ?’’
पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ने अपने काग़ज़ समेट लिये। कहा, ‘‘मुझे कुछ नहीं पूछना है।’’
छोटे पहलवान लुंगी समेटते हुए खिसकने लगे। तभी जोगनाथ के वकील ने कहा, ‘‘मैं कुछ सवाल पूछूँगा श्रीमान् !’’
अदालत को कोई ऐतराज़ नहीं था। वकील ने पूछा :
‘‘गयादीन की लड़की बेला को तुम जानते हो ?’’
‘‘कौन नहीं जानता है !’’
‘‘इधर–उधर की बात न करो। अपने बारे में बताओ। तुम खुद जानते हो कि नहीं ?’’
‘‘जानता क्यों नहीं हूँ !’’
‘‘वह लड़की कैसी है ?’’
‘‘बदचलन है।’’
अदालत ने कहा, ‘‘यह जिरह निरर्थक है। इसका मुक़दमे से कोई सम्बन्ध नहीं है।’’
‘‘है क्यों नहीं श्रीमान् ! बात अभी साफ़ हुई जाती है।’’ वकील ने चुटकी बजाते हुए कहा। कसकर उसने छोटे पहलवान से पूछा :
‘‘तुम कैसे कहते हो कि बेला बदचलन है ?’’
‘‘आँख से देखा है।’’
‘‘क्या देखा है ?’’
‘‘कि वह जोगनाथ के साथ बदचलनी कर रही थी। गयादीन ने इसीलिए जोगनाथ को इस मुक़दमे में फँसाया है।’’
इसके बाद जिरह उसी पुराने ढ�
�ँचे पर आ गई जिससे अदालतों में हज़ार बार प्रमाणित किया जा चुका है कि संसार में कोई चोर नहीं होता, बल्कि जिसे चोर समझा गया है वह गृहस्वामी की पत्नी, बहिन या बेटी का प्रेमी था, जिसे उसने रात्रि के एकान्त में शय्या–लाभ के लिए बुलाया था, पर गृहस्वामी ने उसे अपना बन्धु, बहनोई या दामाद नहीं कहा। वह उसे चोर कहने पर उतर आया और श्रीमन्, उसका परिणाम यह है कि...।
वे दारोग़ाजी अब शिवपालगंज में नहीं थे। अपने टूटे–फूटे पलँग, दुधारू गाय और कन्वेंटगामिनी कन्या के साथ वे शहर में आ गए थे और किसी गली में बड़ी मुश्किल से ढूँढ़कर पाया हुआ एक छोटा–सा किराये का मकान लेकर रहने लगे थे। वे किसी विशेष कार्य में लगा दिए गए थे जिसमें उन्हें सामान्य नागरिक की तरह रहना पड़ता था और चूँकि सरकारी आदमियों के लिए सामान्य नागरिक की तरह रहना बड़ी खेदजनक दशा का द्योतक है, इसीलिए उन्हें देखकर खेद होता था।
पर चूँकि उन्होंने जोगनाथ के विरुद्ध चोरी के मुक़दमे की जाँच की थी, इसलिए उन्हें आज इजलास में आकर फिर से गँजहों के सम्पर्क में आना पड़ गया था। छोटे की गवाही सुनते ही उन्होंने ‘छी:–छी:’ कहना शुरू कर दिया और इसके पहले कि अदालत की निगाह उन पर पड़े, वे गयादीन का हाथ पकड़कर बाहर निकल आए। थोड़ी देर दोनों चुपचाप खड़े रहे।
अन्त में दारोग़ाजी ने कहा, ‘‘ये गँजहे...बेईमानी की भी हद है। ऐसी कन्या के लिए इस तरह की बातें करते हुए इनकी ज़बान भी नहीं टूट गिरती !’’
गयादीन फ़र्श की ओर देख रहे थे। एक आलपिन दो ईंटों के बीच पड़ी हुई थी। लगता था कि वे सोच रहे हैं, इसे उठाया जाए या नहीं।
दारोग़ाजी धिक्कार–भरी आवाज़ में बोले, ‘‘कोई किसी के लिए कुछ भी कह सकता है। भले आदमी को कोई भी पूछनेवाला नहीं।’’
तब गयादीन ने कहा, अपनी चिरपरिचित थकी हुई ठण्डी आवाज़ में–‘‘यह तो होना ही था, दारोग़ाजी ! जिस दिन आपने जोगनाथ को पकड़ा था, मैं समझ गया था कि मेरे घर में अब किसी की भी इज़्ज़त बच नहीं सकती।’’
‘‘मुझे बड़ा अफ़सोस है।’’
“अफ़सोस की कोई बात नहीं। आपका क्या कुसूर ? जिसे चोर बनाकर जेल भिजवाना चाहोगे, वह अपनी ओर से कोई कसर थोड़े ही उठा रखेगा।’’
‘‘मेरी तो देह जलने लगी।’’
‘‘मेरे लिए देह न जलाओ दारोग़ाजी ! यह तो अपने देश का चलन है। जब कचहरी का मुँह देखा है तो सभी कुछ झेलना पड़ेगा। जिसे यहाँ आना पड़े, समझ लो उसका करम ही फूट गया। तुम देह जलाकर क्या कर लोगे दारोग़ाजी... ?’’
जोगनाथ का वकील तीर की तरह बाहर आकर किसी दूसरे इजलास की ओर भागा। पीछे–पीछे भागते हुए मुवक्किलों से उसने कहा, ‘‘जल्दी न करो, अभी छूटने दो जोगनाथ को। फिर एक–एक को समझा जाएगा। हाँ–हाँ, पुलिस को भी।’’
दारोग़ाजी ने चौंककर देखा, पर उनके देखने को कुछ भी बाक़ी न था।
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गिरिजाकुमार माथुर ने
हमने बितायी है ज़िन्दगी कसाले की,
हमने परवाह कभी की न किसी...की।
वाली कविता प्रिंसिपल साहब के व्यक्तित्व से ही प्रेरणा लेकर लिखी होगी, क्योंकि हर बात पर ज़िद करना, वैद्यजी को छोड़कर और सब किसी के आगे अपनी टेक पर अड़े रहना और ‘‘कोई परवाह नहीं, मौक़ा आने पर समझ लेंगे’’ का बराबर इस्तेमाल करना उनके जीवन–दर्शन का एक अनिवार्य अंग बन गया था।
अपनी बात पर अड़े रहने का नियम प्रिंसिपल साहब ने अपने पिता से सीखा था।
उनके पिता एक अॉनरेरी मजिस्ट्रेट के पेशकार थे और इसके बावजूद ईमानदार थे। उन्हें प्राय: शहर ही में रहना पड़ता था, पर वे अपने देहातीपन को वहाँ बड़ी निष्ठा से निभाते थे। उनके जीवन के कुछ सिद्धान्त थे जिन पर वे, सैकड़ों बाधाओं की चिन्ता न करके, अपनी पत्थर–जैसी ठोस अक्ल के सहारे, पत्थर की ही तरह अड़े थे : (1) मलमूत्र–त्याग के लिए कभी टट्टी-पेशाबख़ाने में न जाना, क्योंकि वह अपनी प्राचीन ऋषि–संस्कृति के प्रतिकूल है, (2) बम्बे का पानी न पीना, क्योंकि उसमें चमड़े का वाशर हो सकता है, (3) रेलगाड़ी पर यात्रा करते समय कुछ भी न खाना, क्योंकि वहाँ शूद्रों का स्पर्श होता है, (4) खड़ी बोली और अंग्रेज़ी को त्याज्य बनाकर हमेशा अवधी बोलना, क्योंकि उन्हें इसके सिवाय कोई दूसरी ब
ोली नहीं आती थी और (5) चमरौधा जूता, लम्बी मूँछ और दुपल्ली टोपी पहनना, क्योंकि उनके बाप भी यही पहनते थे। उनके यही मुख्य सिद्धान्त थे। यही उनके जीवन का पंचशील था।
एक बार प्रिंसिपल साहब ने अपने पिता से ‘मकान के अन्दर शौचालय का प्रयोग न करके बहुत सवेरे उठकर सुनसान सड़क पर जाना मूर्खता है”–इस विषय पर बहस की थी और उन्हें बताना चाहा था कि ऐसा करना ठीक नहीं है, क्योंकि चुंगीवाले आजकल सफ़ाई-अभियान चला रहे हैं और उस हल्ले में उनका किसी भी वक़्त चालान हो जाने का डर है। इस पर पेशकार साहब ने उन्हें समझाया कि इस बात का सम्बन्ध समझ से नहीं, आदर्श से है। प्रिंसिपल साहब उस दिन की बहस से समझ गए कि आदर्शवाद की तारीफ़ हम आदर्श के अन्तर्निहित मूल्य पर नहीं, उसके पीछे सहे जानेवाले त्याग, बलिदान और कष्ट के कारण करते हैं। उदाहरण के लिए, नमक-क़ानून भंग करना अपने–आपमें देश की दरिद्रता दूर करने का कोई बड़ा उपाय न था, पर उसके पीछे जिस निष्ठा और विद्रोह की भावना थी, वही उस घटना को नाटक न बनाकर इतिहास बना देती थी। प्रिंसिपल ने निष्कर्ष निकाला कि आदर्श का महत्त्व प्रतीक के रूप में है, तथ्य के रूप में नहीं; और उसी को उलटकर उन्होंने यह भी निष्कर्ष निकाल लिया कि अपने पंचशील पर टिके रहकर उनके पिता प्रतीक–रूप से भले ही आदर्श व्यक्ति हों, पर तथ्य की दृष्टि से वे निहायत चोंचलेबाज़ इन्सान हैं...।
Rag Darbari Page 66