Rag Darbari

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Rag Darbari Page 80

by Shrilal Shukla


  गयादीन ने लड़के के मुँह को गौर से देखा। उस पर झेंप के निशान थे, पर कुल मिलाकर वह सुन्दर था। उन्होंने कहा, ‘‘यहाँ कैसे आए थे ?’’

  जवाब में लड़के ने रुक–रुककर देश में आए दिन पैदा होनेवाले लड़कों के बारे में बोलना शुरू किया। कुछ देर बाद गयादीन को आभास मिल गया कि दूसरे लोग लगातार बच्चे पैदा कर रहे हैं और इस नौजवान का व्यवसाय है कि वह उन्हें वैसा करने से रोके ? उन्होंने नौजवान की तनख्वाह के बारे में एक सवाल किया और फिर इस ताज्जुब में चुप होकर बैठ गए कि बच्चों की रोकथाम पर सिर्फ़ भाषण देकर कोई अपना पेट पाल सकता है।

  सहसा उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हारे कितने बच्चे हैं ?’’

  ‘‘एक भी नहीं। मेरी शादी नहीं हुई है।’’

  गयादीन ने अब दिलचस्पी के साथ उस नौजवान को नीचे से ऊपर तक देखा। एक बार फिर उन्होंने पूछा, ‘‘तुम वैश्य अगरवाले हो ?’’

  उसने सिर हिलाकर इस सम्मानसूचक विचार की पुष्टि की। तब गयादीन चारपाई पर धीरे–से हुमसकर उसके पास खिसक आए। उन्होंने नौजवान से उसके घर का पता पूछा, जो कि पास के शहर ही में था। फिर उन्होंने उसके बाप का नाम पूछा, जो एक जाने–पहचाने हुए व्यापारी निकले। फिर उनका हाल–चाल पूछा और उन्हें मालूम हुआ कि बहुत–से छोटे व्यापारियों की तरह वे भी एक छोटे–मोटे नेता हो गए हैं, जिसका प्रमाण यह है कि उनके लड़के को नौकरी करने के लिए उनके घर से बहुत दूर न भेजकर पन्द्रह मील के फ़ासले पर ही तैनात किया गया है। फिर उसके भाइयों और बहनों का हाल पूछा तो पता चला कि बहन की शादी एक अमीर सेठ से हुई है और नौजवान का बहनोई कलकत्ते का रईस है और उसका छोटा भाई अपने बहनोई के साथ लगकर कारोबार कर रहा है। फिर कुछ और पूछताछ करने पर पता चला कि उस अमीर सेठ की यह तीसरी शादी है। फिर जब गयादीन ने घुमा–फिराकर उससे पूछा कि उसे भी शादी करनी है या नहीं, तो उसने कहा कि पिताजी की आज्ञा है कि इसी साल करनी है।

  गयादीन ने अन्त में नौजवान से कहा, ‘‘तुम भैया, पढ़े–लिखे आदमी हो, तुम तो सिर्फ़ बी.ए., एम.ए. लड़की को छोड़कर कहीं और ब्याह करोगे ही नहीं।’’

  इस बार उस नौजवान ने, देश के औसत नौजवानों की तरह जो प्रेम अपने साथ पढ़नेवाली लड़कियों से और ब्याह अपने बाप के द्वारा दहेज की सीढ़ी से उतारकर लायी गई लड़की से करता है, कहा, ‘‘मैं कुछ नहीं जानता। पिताजी जैसा हुक्म देंगे, करूँगा।’’

  यह सुनकर, इसके पहले कि नौजवान चारपाई से उठ खड़ा हो, गयादीन ने कहा, ‘‘तुम तो बिरादरी के हो, घर पर आ गए हो तो शरबत पीकर जाओ। शरबत नहीं, तो दूध पियो। अच्छा, दूध भी अच्छा नहीं लगता तो चाय पी लो।’’

  कहकर उन्होंने बेला को आवाज़ दी।

  सनीचर जिस मेंड़ पर बैठा था उसके एक ओर एक खेत था जिसकी फ़सल कट चुकी थी और जिसमें नहर का पानी लगा था। दूसरी ओर के खेत में गेहूँ की सूखी फ़सल खड़ी थी, पर उसे चिड़ियों से कोई ख़तरा नहीं था क्योंकि खेत में गेहूँ के पौधे थे, पर पौधों में बालियाँ न थीं।

  किसान ने यह खेत एक प्रगतिशील आदमी की सलाह से बोया था, इसलिए गेहूँ के पौधे बराबर के फ़ासले पर बिलकुल सीधी लाइन में उगे थे। फ़सल उग आने पर इस खेत का बड़ा सम्मान हुआ और उसे प्रगतिशील खेती का नमूना कहकर उन अफ़सरों के निरीक्षण के लिए पेश किया गया जो ज़मीन पर पैर रखना ही नहीं, मेंड़ों पर चलना जानते थे। खेत में फ़सल जब एक–एक बालिश्त उग आयी तो पूरा दृश्य बड़ा मनोरम और काव्यपूर्ण हो गया। मुआयना करनेवाले अफ़सरों को उसने मार गिराया। दो–तीन महीने तक वे वहाँ नियमित रूप से आते रहे और चिड़ियों की तरह क़तार बाँधकर क़तार में लगे हुए गेहूँ को देखते रहे। पर चूँकि गेहूँ की क़तार देखी जा सकती है और बीज के गुण–दोष और खाद की मात्रा और पानी का प्रबन्ध–यह सब पहली निगाह में नहीं देखा जा सकता, इसलिए किसान और उसके सलाहकार और निरीक्षण करनेवाले हाकिम–इन बातों के बारे में हमेशा चुप रहे।

  पकने के समय तक खेत में महत्त्व की एकमात्र चीज़ पौधों की क़तार-भर रह गई थी। खाद, बीज और पानी का कहीं ज़िक्र ही नहीं हुआ था। इसलिए खेती की यह प्रगतिशीलता आँख को दो महीने सुख देकर किसान के लिए शर्म और जगहँसाई का कारण बन चुकी थी। अब मुआयना कर
नेवाले अफ़सर लोग भी नहीं आते थे, वे दूसरे प्रकार की क़तारों का मुआयना करने के लिए शायद दूसरी ओर निकल गए थे। गेहूँ की फ़सल, जो बैलों ने इतने परिश्रम से पैदा की थी, बैलों को ही अर्पित हो जानेवाली थी।

  किसान इस समय सनीचर को अपनी प्रगतिशीलता का इतिहास बताकर अपने सलाहकार को गाली ही देनेवाला था कि वह रुक गया। सनीचर पहले ही गाली देने लगा था। गाली देते–देते उसकी ज़बान से कुछ देर में तुक की बातें निकलने लगीं। उसने कहा–

  ‘‘ज़माना ख़राब है। तुम्हें बहकाकर खेत चौपट कर डाला। तुम्हें क्या कहें, तुम तो थे पोंगा। चरके में आ गए। हम होते तो कहते कि बेटा हम बीस लड़कों के बाप हैं, हमीं को बताने चले हो कि औरत क्या चीज़ होती है। तुम सात पीढ़ी से खेती कर रहे हो और ये लौंडे तुम्हीं को खेती की तरकीब सिखा रहे हैं। जिसे देखो, पाँव के नीचे साइकिल दबा लेता है और किर्र-किर्र करता हुआ यहाँ पहुँच जाता है। चले हैं खेती–किसानी सिखाने। समझते हैं कि यह काम भी वैसा ही है जैसे...’’ गालियाँ और गालियाँ।

  उन्नतिशील खेती के समर्थकों को जैसे–ही–जैसे वह गाली देता जाता था, उसे उसमें मज़ा आता जा रहा था। दस–पाँच मिनट उसने इस बौद्धिक पद्धति से अपना मनोरंजन किया और उस किसान के दुख को हल्का कर दिया। बाद में स्वाभाविक आवाज़ में उसने पूछा, “सिंचाई कब की थी ?’’

  किसान ने कतराकर जवाब दिया, “सिंचाई किसने की थी ? पूस में बौछार तो पड़ ही गई थी।’’

  सनीचर की आवाज़ कड़ी हो गई, ‘‘तुम भी बस–क्या कहें–पोंगा के पोंगा ही रहे। उस चिरैयामूतन बौछार के सहारे तुमने खेत ऐसे ही पड़ा रहने दिया ?’’

  किसान ने कहा, ‘‘पानी तो बड़े झर्राटे से गिरा था।’’

  ‘‘तो अब क्यों चिचिहा रहे हो ? झर्राटे से गेहूँ भी अरोर डालो।’’

  कुछ रुककर सनीचर ने फिर पूछा, ‘‘खाद डाली थी कि नहीं ? नमकवाली खाद डाली, राखवाली खाद डाली ?’’

  ‘‘इतने–इतने खेत हैं, कहाँ–कहाँ डालते फिरें ?’’

  सनीचर ने बिगड़कर कहा, ‘‘तब किसी को क्या कहा जाय ! जैसे वे पोंगा, वैसे तुम पोंगा।’’

  लाइन। शिवपालगंज में जनता को पढ़ाया गया था : लाइन प्रगति का नाम है। यही तरक्की है। हर काम लाइन से करो। लाइन से पेड़ लगाओ और उन्हें लाइन से सूख जाने दो। बस के टिकट के लिए लाइन में खड़े रहो और जब बस आ जाय और अपनी राह चली जाय तो दूसरी बस के इन्तज़ार में दस घण्टे लाइन में खड़े होकर मक्खियाँ मारो। जानवरों को लाइन में बाँधो, घूरे लाइन में डालो। जलसे में झण्डियाँ लाइन से बाँधो, स्वागत–गीत गवाने के लिए लड़कों को लाइन में खड़ा करो, गले में माला झोंकने के लिए लाइन से खड़े हो जाओ। सबकुछ लाइन से करो। क्योंकि वह आँख से दिखती है और जो आँख से दिखती है, वही उन्नति है। इसके आगे देखने की और सोचने की तुम्हें ज़रूरत नहीं है, क्योंकि उस काम के लिए दूसरे लोग हैं।

  एक आदमी दूर से आता हुआ दिखायी दिया। सनीचर वहाँ से कुछ तिरछे पड़ता था। पहले खेत की वह मेंड़–मेंड़ आ रहा था; फिर शायद उसने ज्योमेट्री पढ़ ली और जान लिया कि त्रिभुज की दो भुजाएँ मिलकर तीसरी भुजा से बड़ी होती हैं। उसने मेंड़ छोड़ दी और गन्ने के एक नये उगते हुए खेत को लाँघता हुआ वह कौवे के उड़नेवाली लकीर को पकड़े हुए सीधे सनीचर की ओर बढ़ने लगा। एक बार उसने अकड़कर अपने दायीं ओर देखा और इस कार्रवाई में उसके कन्धे से अँगोछा ज़मीन पर गिर पड़ा। वह निश्चित चाल से सात–आठ कदम आगे बढ़ आया, फिर उसने पीछे मुड़कर ज़मीन पर गिरे हुए अँगोछे को देखा। सिर्फ़ देखकर वह फिर पूर्ववत् आगे बढ़ने लगा। उसने ज़ोर से आवाज़ लगायी, ‘‘गिरधरिया, गिरधरिया, गिरधरिया रे....।’’ लगभग डेढ़ सौ गज पर खड़े हुए एक चरवाहे ने, जो एक लम्बी लाठी को ही गिरि के वज़न पर धारण किये हुए था, इस ललकार का जवाब दिया। उस आदमी ने कहा, ‘‘अँगोछा गिर गया है, उठाकर दे जा। मैं वहाँ सनीचर के पास खड़ा हूँ।’’

  सनीचर को तब मालूम पड़ा कि ये छोटे पहलवान हैं और उसकी ओर आ रहे हैं।

  छोटे पहलवान ने आते ही सनीचर से कहा, ‘‘यहाँ पर बैठे–बैठे क्या उखाड़ रहे हो ? वहाँ बैदजी घण्टा–भर से राह परखे हैं।’’

  सनीचर ने जम्हाई लेकर कहा, ‘‘क्या बतायें कि क्�
��ा कर रहे हैं ! हमको तो यह प्रधानी बड़ी वाहियात चीज़ लगी। सबेरे से मारे–मारे घूम रहे हैं।’’

  सनीचर की बात से न तो वह किसान ही प्रभावित हुआ, न छोटे पहलवान ही, दोनों ने समझ लिया कि वह बक रहा है। पर जिस तरह कई नौकरी–पेशा लोगों की आदत बिना प्रभाव की चिन्ता किये अपनी ईमानदारी के किस्से सुनाते रहने की पड़ जाती है, सनीचर भी प्रधान की परेशानियों के बारे में बोलता चला गया।

  छोटे पहलवान ने अचानक उसे टोककर कहा, ‘‘चलो, इतनी रंगबाज़ी बहुत है। अब सीधे बैदजी के दरवाज़े जाकर अपना नाटक दिखाओ।’’

  सनीचर कुछ हिचक के साथ बोला, ‘‘हम तो यहाँ अपने खेत में नहर का पानी लगाए बैठे थे। ईख बोनी है। कुछ रुककर जानेवाले थे।’’

  खेत वैद्यजी का था जिसे इस साल उन्होंने सनीचर को बो लेने की इजाज़त दे दी थी।

  छोटे ने सिर उठाकर कुछ दूर देखने की कोशिश की। बोले, ‘‘नहर के पानी का आज तुम्हारा नम्बर तो था नहीं, कल रात को चुरइया के खेत में लगा था।’’

 

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