न जाने कितने लड़के गाँधी–चबूतरे के पास जमा हो गए थे। उनकी आँखों से कीचड़ बह रहा था, मुँह से लार टपक रही थी। पेट लगभग सभी के निकले हुए थे और यह स्पष्ट था कि उनके घरों में खाने की कमी नहीं है। लड़कों की आवाज़ चिचिहाती हुई और कभी–कभी भर्राती हुई निकलती थी और उससे भी ज़्यादा अस्वाभाविक उनके चेहरे पर फैली हुई खुशी थी। हर समझदार समझ सकता था कि आगे की पीढ़ी ज़ोर से चीख़कर बोलेगी और हर हालत में फूले हुए पेट और हँसते हुए चेहरे के साथ रह लेगी। भंग पहले इन्हीं लड़कों में बँटनी शुरू हुई और वे दूध का स्वाद भले ही न जानते हों, भंग के स्वाद पर ‘बहुत बढ़िया,’ ‘फस्ट किलास’ जैसी राय देकर उसे मुदितमन पीने लगे।
उसी रात जोगनाथ ने शराबख़ाने पर ख़ास– ख़ास लोगों को दारू का भोज दिया। उसमें मुख्य अतिथि उस आदमी को बनाया गया जो कुछ दिन पहले पड़ोस के गाँव में हत्या के जुर्म से बरी होकर वापस आया था। उसकी उपस्थिति में वातावरण पहले तो बड़ा सम्मानपूर्ण और शान्त रहा, बाद में जब एक आदमी ने फौजी भाषा में कहा कि ‘‘सोते हुए इन्सान को बकरे–जैसा काट डालना बहादुरी नहीं है जवान, यह चिकवे का काम है’’, तो वातावरण की शान्ति दुम दबाकर किसी सूराख़ में घुस गई।
‘‘तुमने कभी कोई बकरा काटा है ?’’ मुख्य अतिथि ने पूछा।
‘‘हम चिकवा नहीं हैं।’’
‘‘मैं सीधी बात पूछ रहा हूँ।’’ मुख्य अतिथि ने अपनी बात दुहरायी, ‘‘तुमने कभी कोई बकरा काटा है ?’’
वह अपने चुग्गड़ पर निगाह टिकाकर बहुत धीमी और सीधी आवाज़ में बोल रहा था। उसने जब अपनी बात दुहरायी तो कई लोग घबराकर उसके पास खिसक आए। किसी ने उसका हाथ छूकर कहा, ‘‘जाने दो।’’
उसने अपना हाथ झटककर हटा लिया और तिबारा कहा, ‘‘तुमने कभी कोई...।’’
‘‘जाने दो, जाने दो भाई...।’’ लोगों ने उसकी खुशामद करनी शुरू कर दी, पर फ़ौजी भाषा बोलनेवाला आदमी भी अब तक वहाँ पहुँच चुका था जहाँ पर हर चीज़ को तिनका और हर आदमी को भुनगा समझा जाता है। उसने जनसाधारण से कहा, ‘‘इस जवान को दारू चढ़ गया है। इसे उधर कोने में लिटा दो। सिर पर ठण्डा पानी डालो।’’
यह शुरुआत थी। चुग्गड़ों और बोतलों की तोड़–फोड़ में ज़्यादा देर नहीं लगी। फिर वे लोग शराबघर से बाहर आकर सड़क पर कुछ देर गालियों का भोज करते रहे। एक बजने पर लातों–मुक्कों और लाठियों का भोज शुरू हुआ।
पड़ोस के मकानों में लोग जाग गए थे और थाने पर लोग सो गए थे।
रंगनाथ छत पर बरामदे में लेटा था। उसकी नींद खुल गई थी। वह थोड़ी देर चुपचाप लेटा रहा और गाँव के एक कोने से आती हुई इन चीख़–पुकारों को सुनता रहा। बाद में रुप्पन से बोला, ‘‘मुझे यहाँ से नफ़रत हो रही है। मैं कल ही वापस चला जाऊँगा।’’
रुप्पन बाबू आज के जलसे में शरीक नहीं हुए थे, पर घर पर उनके पीने के लिए भंग पहुँचा दी गई थी। नींद भरी आवाज़ में बोले, ‘‘कहाँ जाओगे दादा ? वहाँ भी इसी तरह के हरामी मिलेंगे।’’
रंगनाथ ने तेज़ी से कहा, ‘‘मुझे वहाँ से भी नफ़रत हो रही है।’’
रुप्पन बाबू ने करवट बदलकर जम्हाई लेते हुए कहा, “नफ़रत करनेवाले तुम होते कौन हो ? कोई इनसे बाहर हो क्या ?’’
कहते–कहते वे चारपाई पर बैठ गए और बोले, ‘‘कई दिन से तुम ऐसी ही बातें कर रहे हो। तुम तो इस तरह बोलते हो, जैसे तुम विलायत से आए हो और बाक़ी सब काला–आदमी–ज़मीन–पर–हगनेवाला है।
‘‘सोना हो तो चुपचाप सो रहो; नहीं तो बैठकर रात–भर नफ़रत करते रहो।’’
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घर वापस आकर बद्री पहलवान ने देखा, वैद्यजी दुखी हैं। उनके दुखी होने की पहचान यह थी कि उनका साफा कुछ ढीला हो जाता, मूँछें बेतरतीब हो जातीं और हर तीसरे वाक्य के बाद वे कहने लगते, ‘‘मैं क्या बताऊँ, जो मन में आवे, करो।’’
बद्री पहलवान के एक मित्र को पड़ोस के ज़िले में नाजायज़ तौर से हथियार रखने के जुर्म में सज़ा हो गई थी। उसके मकान पर एक स्टेनगन, कुछ हैण्डग्रिनेड, एक रायफ़ल और बन्दूक पाई गई थी और यह प्रमाणित हो गया था कि वह मित्र इस शस्त्रागार का मालिक है। मित्र ने मुक़दमे में कहा था कि न शस्त्रागार उसका है और न वह मकान ही उसका है। मकान अभियुक्त के अनुसार उसकी पत्नी का था। पर कोर्ट का
दिल, सुना जाता है, ये अस्त्र-शस्त्र देखते ही दहल गया और उसने मित्र को, जैसे ही मौका मिला, दो साल की कैद सुनाकर जेल भेज दिया।
बद्री पहलवान की दिलचस्पी अस्त्र-शस्त्र में न थी, पर उन्होंने मित्र की मातमपुर्सी में जाना आवश्यक समझा। मित्र ने इस समय हाईकोर्ट में अपील दायर कर रखी थी और खुद जमानत पर था। बद्री को उसने बहुत बार दोहराकर बताया कि हाईकोर्ट में हार गए तो सुप्रीम कोर्ट जाना होगा और इस सबमें बहुत रुपिया खर्च होगा जो उसे ही बरदाश्त करना होगा, क्योंकि आजकल कोई किसी का नहीं है। बद्री ने इसका यह अर्थ लगाया कि इस मुक़दमेबाज़ी का खर्च अड़ोस–पड़ोस की सड़कों पर सूरज डूबने के बाद निकलनेवाले राहगीरों को बरदाश्त करना पड़ेगा। चूँकि वे लूटपाट की घटनाओं को हिकारत की निगाह से देखते थे, इसलिए उन्होंने मित्र को आश्वासन दिया कि रुपये की चिन्ता मत करो, सब कमी भगवान पूरी करेगा, पर मित्र ने मुस्कराकर कहा कि ‘जो कुछ है वह भगवान का ही दिया हुआ है’ और यह कहते हुए उसने छप्पर के फूँस में ठुँसी हुई एक कपड़े की पोटली निकाल ली। पोटली में बहुत–से नोट मुड़े हुए रखे थे। उनमें से दो हज़ार रुपये के नोट मित्र ने बद्री के हाथ में इसरार करके रख दिए और कहा कि इन्हें अपने पास रखे रहो। मेरा क्या है ? रमता जोगी, बहता पानी। एक पैर यहाँ है, एक पैर जेल में। अगर हाईकोर्ट में अपील ख़ारिज़ हो गई तो जमानत वहीं पर ख़त्म हो जाएगी। उस समय इसी रुपये से सुप्रीम कोर्ट जाने का इंतज़ाम करना। भगवान ने इस बीच दो–चार हज़ार का और हिसाब कर दिया तो वह भी तुम्हारे पास पहुँचवा दूँगा। मेरे दिन खराब हैं। एक भगवान का और एक तुम लोगों का सहारा है...।
इस तरह भगवान की चर्चा समाप्त करके बद्री पहलवान जब अपने घर वापस आए, तो अमानत ही के क्यों न हों, उनकी जेब में दो हज़ार रुपये थे। आकर उन्होंने वैद्यजी को अपने मित्र की विपत्ति सुनायी और बताया कि शायद सुप्रीम कोर्ट तक जाने की ज़रूरत पड़ेगी और उस हालत में मुझे भी कुछ दौड़धूप करनी पड़ेगी। वैद्यजी ने गिरी आवाज़ में जवाब दिया, ‘‘मैं क्या बताऊँ ? जो मन में आवे...।’’
बद्री ने चौंककर उनकी ओर देखा। वे साफ़ा नहीं बाँधे थे, पर उनकी मूँछें बेतरतीब थीं। वे चिन्तित हो उठे। समझ गए कि वैद्यजी दुखी हैं।
कुरेद–कुरेदकर दुख के कारण का अनुसन्धान किया गया। मालूम हुआ कि इधर दो–चार दिन में कई लोगों ने बहुत–से गलत काम किये हैं।
प्रिंसिपल ने शहर में जाकर डिप्टी–डायरेक्टर ऑफ़ ऐजुकेशन को कॉलिज–समिति की वार्षिक रिपोर्ट दिखायी थी। रिपोर्ट अत्यन्त सुन्दर अक्षरों में लिखी गई थी। उसकी भाषा प्रांजल और शैली अलंकारपूर्ण थी। वैद्यजी के सौन्दर्य का निरूपण करते हुए उसमें उन्हें इस क्षेत्र का नरकेसरी कहा गया था। यह अच्छी तरह प्रमाणित था कि वैद्यजी को सर्वसम्मति से ‘सहर्ष’ मैनेजर के पद पर फिर चुना गया है। उसमें यह नहीं लिखा था कि कुछ सदस्यों को कॉलिज के बाहर तमंचे के ज़ोर से धमकाया गया और उन्हें अन्दर नहीं जाने दिया गया। इस लिखित प्रमाण के बाद भी डिप्टी–डायरेक्टर रामाधीन भीखमखेड़वी के इस आरोप की जाँच करना चाहते हैं कि मैनेजर के पद का चुनाव तमंचे के ज़ोर पर आतंकपूर्ण वातावरण में हुआ। जाँच की गुंजाइश न होते हुए भी उन्होंने प्रिंसिपल को नोटिस दिया है कि वे स्वयं जाँच करेंगे और उसके लिए एक तारीख निश्चित कर दी है।
खन्ना मास्टर ने भी डिप्टी–डायरेक्टर को एक लिखित शिकायत दी है और कई आरोपों के बीच यह भी कहा है कि यहाँ अध्यापकों को जितना वेतन मिलता है उससे दुगुनी रक़म पर उनके दस्तखत कराये जाते हैं। ऐसा तो सत्तर फ़ीसदी कॉलिजों में हुआ ही करता है और ऐसी बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए था, पर डिप्टी–डायरेक्टर ने वादा किया है कि वे इसकी भी जाँच करेंगे। सारे संसार में एक अटल नियम है कि रसीद जितने की होती है उतने की ही मानी जाती है, पर इस लिखित प्रमाण के बावजूद वे जाँच करने पर तुले हुए हैं।
मालवीय मास्टर के दुराचरण के विरुद्ध किसी ने गुमनाम पर्चा छपाया है। आरोप ग़लत हो या सही, पर गुमनाम शिकायत करना एक कायरतापूर्ण कार्य है। किसी बालक के साथ व्यभिचार करना �
��ी कायरतापूर्ण कार्य है और यदि मालवीय ने ऐसा किया था तो किसी को खुलकर इसकी निन्दा करनी चाहिए थी। पर सुना गया है कि खन्ना मास्टर कॉलिज के कुछ लड़कों की गवाही दिलाकर साबित करने जा रहे हैं कि यह पर्चा बेचारे प्रिंसिपल ने छपाया है। रुप्पन कुछ बोलते नहीं, पर सुना गया है कि खन्ना को पर्चे की छपाई का प्रमाण उन्हीं की सहायता से मिला है। कई विद्यार्थियों को भड़काकर शिकायत करायी गई है कि कॉलिज में सबकुछ होता है, सिर्फ़ पढ़ाई नहीं होती। बेचारे मास्टर मोतीराम के विरुद्ध आरोप लगाया गया है कि वे कक्षा में विज्ञान नहीं, आटाचक्की का कारोबार सिखाते हैं। इन सबका कोई लिखित प्रमाण नहीं है, पर इसकी भी जाँच होनेवाली है।
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