उसने गयादीन को यह स्थिति काफ़ी विस्तार के साथ समझाई। इसका निष्कर्ष यही था कि ‘‘लड़का आपका है। जब चाहें, ब्याह कर लें, पर आजकल हमारे बुरे दिन आ गए हैं, इसलिए लड़के को मैं सस्ते दामों में बेचने के लिए तैयार नहीं हूँ।’’
लड़कियों को फुसलाकर और उन्हें चोलियाँ बेचकर जो अपनी रोज़ी कमायेगा, वह कभी–न–कभी दुखी ज़रूर होगा–गयादीन ने सोचा। उन्होंने नौजवान के बाप से हमदर्दी दिखाकर बताया कि वे जब दामाद खरीदने निकले हैं तो अच्छी क़ीमत भी देने को तैयार हैं। उस पर शादी बिना किसी दिक्कत के तय हो गई, सिर्फ़ लड़के की क़ीमत के बारे में बात पक्की नहीं हो पायी। नौजवान के बाप ने, पड़ोस में पंजाबी लड़के के आने के दिन से आज तक के घाटे का हिसाब लगाकर गयादीन से पन्द्रह हज़ार रुपये की माँग की। गयादीन ने अपनी जाति की सराहना करते हुए बताया कि यह माँग वाजिब ही है, क्योंकि हाथी का लेंड़ भी एक क्विंटल का होता है और एक दुकानदार दीवालिया होते हुए भी अपने लड़के की क़ीमत पन्द्रह हज़ार आँक सकता है। इसके बाद उन्होंने आख़िरी बात कही कि मेरी हैसियत आपसे बहुत छोटी है और मैं लड़के की क़ीमत सात हज़ार से ज़्यादा नहीं दे सकता।
इसके बाद बात उसी तरह होने लगी जैसी कि ऐसे मौक़ों पर करोड़ों बार हुई है। नौजवान के बाप ने कहा कि सात हज़ार बहुत कम है, क्योंकि चौदह हज़ार तक क़ीमत तो पहले ही लग चुकी है। गयादीन ने कहा कि मैं क़ीमत देने लायक़ नहीं हूँ, मैं तो अपनी हैसियत बता रहा हूँ। तब नौजवान के बाप ने कहा कि मैं अब लड़के के चाचा से बात करूँगा जो कि फलाँ जगह पर असिस्टेंट सेल्स टैक्स आफ़िसर है और मैं लड़के के मामा के चचेरे भाई के साढ़ू से बात करूँगा जो कि फलाँ जगह डिस्ट्रिक्ट एण्ड सेसन जज हैं और जो लड़के को बिलकुल अपने लड़के की तरह मानते हैं और मैं अपने मौसेरे भाई के साले से बात करूँगा जो कि कलकत्ता में लोहे का कारोबार करते हैं और मैं लड़के की माँ–चाची–बुआ–मौसी–मामी–ताई–दादी–परदादी से भी बात करूँगा।
उसने गयादीन को आश्वासन दिया कि इन सबकी राय लेकर मैं लड़के की क़ीमत अन्तिम रूप में दस दिन के भीतर बता दूँगा और भगवान चाहेगा तो हम और आप समधी बन जाएँगे। उसने बेला के बारे में कुछ भी जानने से इनकार कर दिया और कहा कि लड़की पढ़ी–लिखी है तो अच्छा है और नहीं है तो बहुत अच्छा है, क्योंकि मुझे उससे मास्टरी नहीं करानी है; और लड़की सुन्दर है तो अच्छा है और नहीं है तो बहुत अच्छा है, क्योंकि मुझे उसे कोठे पर नहीं बैठाना है।
तो जिस समय वैद्यजी ने गयादीन से अन्तर्जातीय विवाहों की सुन्दरता पर बहस शुरू की, उनकी पहली प्रतिक्रिया यह हुई वे उठकर भाग लें और शहर जाकर नौजवान के बाप के हाथ में पन्द्रह हज़ार रुपये रख दें। वैद्यजी के यहाँ से टलते ही वे शहर जाने की तैयारी करने लगे।
थोड़ी देर में जब वे मकान के बाहर आए, उन्हें खन्ना मास्टर, मालवीय और रंगनाथ आते हुए दीख पड़े। ये घण्टा–भर के पहले नहीं टलेंगे, उन्होंने सोचा। फिर यह भी सोचा कि शहर जाने की बस अभी दो घण्टे तक नहीं मिलेगी।
खन्ना मास्टर ने कुछ स्थानीय खबरें सुनाकर एक वक्तव्य दिया, ‘‘देश रसातल को जा रहा है !’’
स्वयं नीरस और निराशावादी होते हुए भी गयादीन को ये मास्टर काफ़ी दिलचस्प जान पड़ते थे और उनको उनकी हर बात में मूर्खता की बिजली कौंधती हुई नज़र आ रही थी। उन्होंने पूछा, ‘‘यह रसातल है कहाँ ?’’
खन्ना मास्टर इतिहास पढ़ाते थे, उन्हें भूगोल का पता न था। वे इस सवाल से उखड़ गए। जवाब में उन्होंने बुजुर्गों से सुनी हुई एक बात कही, ‘‘कहाँ बताया जाय? सरग, नरग, पाताल, रसातल–सबकुछ हमारे मन ही में है।’’
गयादीन कुछ देर इस दर्शन पर ग़ौर करते रहे। फिर बोले, ‘‘मन ही में है तो परेशानी कैसे ? जाने दो देश को रसातल में। किसी का नुकसान क्या है ?’’
खन्ना मास्टर का उत्साह बुझ गया। बोले, ‘‘नुकसान पर क्या बहस ? मैं तो एक बात कह रहा था।’’
गयादीन ने उन्हें पुचकारते हुए कहा, ‘‘सभी लोग जब कुछ कहते हैं तो कोई बात ही कहते हैं।’’
ऐसी उखड़ी हुई बातें गयादीन कभी नहीं करते थे। खन्ना मास्टर ने चौंककर गयादीन के मुँह की ओर दे�
�ा, पर उदासीनता की चरम–सीमा पर पहुँचकर वह दूसरी ओर मुड़ गया था। वे नये सिरे से अपने सामने भैंस की उछल–कूद देखने में लग गए थे। खन्ना मास्टर ने अभी तक उधर ध्यान न दिया था। अब उन्होंने भी देखा, वह खूँटे के इर्द-गिर्द उछलकर चक्कर काट रही है और किसी काल्पनिक पाली में खड़ी हुई किसी काल्पनिक भैंस के साथ कबड्डी–जैसी खेल रही है। बराबर रँभाती जाती है। पेशाब का परनाला बह रहा है। गयादीन ने धीरे–से साँस खींची–इतने धीरे से कि किसी को उनकी साँस के चलने का शुबहा न हो–और अपना चेहरा घुमाकर खन्ना मास्टर के मुआयने के लिए पेश कर दिया।
खन्ना मास्टर ने परिवार के आदमी की–सी आत्मीयता दिखाते हुए कहा, ‘‘भैंस गरम हो रही है। इसका इन्तज़ाम करवाइए।’’
‘‘क्या इन्तज़ाम करें ? इलाके के सारे भैंसे तो बधिया हो गए। रमजानी घोसी के भैंसे को देखने के लिए आदमी भेज रखा है। दो घण्टे हुए लौटा ही नहीं है...’’
खन्ना मास्टर ने उसकी बात काटकर कहा, ‘‘ए. आई. करवाइए, ए. आई.। दिक़्कत हो तो मुझसे कहिए। मवेशी डॉक्टर मेरा दोस्त है। मेरे फ़ादर और, उसके फ़ादर...’’
उनकी भी बात काटकर रंगनाथ ने ए.आई. का अर्थ पूछा। खन्ना मास्टर इस बात पर प्रसन्न हुए कि एक ऐसी बात भी है जो वे जानते हैं, पर रंगनाथ नहीं जानता। उन्होंने कहा, “आर्टिफ़िशल इन्सेमिनेशन। देखो, इसे क्या कहते हैं हिन्दी में–बड़ी आसान चीज़ है। जब भैंस गरम हो रही हो तो उसे ए. आई. सेण्टर पर ले जाइए और उसका ए. आई. करवा डालिए।’’
रंगनाथ गयादीन की ओर इस आशा से देखने लगा कि शायद उसे उधर से ए. आई. का अर्थ समझने में कुछ मदद मिल जाय, पर वे चिन्तित दृष्टि से भैंस की ही ओर ताक रहे थे। भैंस ने इस बार खूँटे से कुछ दूर आकर एक ऐसा राक–एन–रोल दिखाया कि लगा अब भैंस की जगह यहाँ एल्विस प्रिस्ले को बुलाना पड़ेगा। गयादीन ने कहा, ‘‘इस भैंस को दो बार उस सेण्टर पर भेज चुका हूँ। पर न जाने कैसी पिचकारी लगाते हैं। गाभिन ही नहीं होती।’’
खन्ना मास्टर बोले, ‘‘क्या पता नकली और मिलावट का माल वहाँ भी इस्तेमाल होता हो। मैं मवेशी डॉक्टर से बात करूँगा।’’
गयादीन ने सिर हिलाकर इसका विरोध किया। बोले, ‘‘नहीं, क़सूर उस माल का नहीं, मेरी क़िस्मत का है। तीन भैंसों को पिचकारी लगायी जाय तो किसी–न–किसी एक भैंस पर वह बेकार हो जाती है। कुछ ऐसा है कि हर बार वह एक भैंस मेरी ही होती है।’’
रंगनाथ उस वार्तालाप से आर्टिफ़िशल इन्सेमिनेशन का अर्थ समझ गया था और अकारण झेंपने लगा था। झेंप मिटाने के लिए ही बातचीत में शामिल हो गया। बोला, ‘‘आप हमेशा मजबूरी की ही बात करते हैं।’’
‘‘गाँव में मजबूरी नहीं तो और क्या मिलेगा ?’’ गयादीन ने उदासी से कहा। वे हुमसकर धीरे–से बैठ गए थे। चारपाई चरमरायी, पर आज उन्होंने उसके साथ कोई मुरव्वत नहीं की। वे हुमसे हुए बैठे रहे। काँखते हुए बोले, ‘‘रंगनाथ बाबू, तुम शहर के आदमी हो। शहर में हर बात का जवाब होता है। मान लो कोई आदमी मोटर से कुचल जाय, तो कुचला हुआ आदमी अस्पताल में पहुँच जाएगा। अस्पताल में डॉक्टर बदमाशी करे तो उसकी शिकायत हो जाएगी। शिकायत सुननेवाला चुप बैठा रहे तो दस–पाँच लफंगे मिलकर जुलूस निकाल देंगे। उस पर कोई लाठी चला दे तो लोग जाँच बैठलवा देंगे। तो वहाँ हर बात की काट आसानी से निकल आती है। इसीलिए वहाँ मजबूरी की मार नहीं जान पड़ती। और अगर कभी मजबूरी हो जाय तो आदमी के पास उसकी भी काट है। आसानी से वह फाँसी लगाकर मर जाता है और दूसरे दिन उसका नाम अखबार में छप जाता है। लोग जान जाते हैं कि वह मजबूरी से मरा था, फिर कुछ दिनों तक अखबारों में मजबूरी की बात चलती रहती है। और समझ लो, यह भी मजबूरी की एक काट ही है।’’
Rag Darbari Page 88