खन्ना के वकील ने इजलास से कहा, ‘‘श्रीमन्, यही बात दूसरे फ़रीक़ से भी कह दी जाय।’’
इजलास गुस्से में थी। गुर्राकर- था कि अंग्रेज़ी में–बोली, ‘‘ज़रूर कह दी जाएगी। पर इन लोगों से मेरा कहना है : इन्हें अध्यापक होकर इस तरह का मुक़दमा लड़ते हुए शर्म नहीं आती ? मुझे तो यह मुक़दमा सुनते हुए शर्म महसूस होती है। मैं सोचता हूँ : विद्यार्थियों पर इसका क्या असर होगा ?’’
प्रिंसिपल साहब के वकील ने कहा, ‘‘श्रीमन्, यदि विरोधी पक्ष के मास्टरों को कसकर सज़ा दे दी जाय तो विद्यार्थियों पर इसका असर अच्छा ही होगा, क्योंकि वे जान जाएँगे कि गुंडागर्दी का नतीजा खराब होता है।’’
पर इजलास अपनी ही तर्क–श्रृंखला में उलझ गई थी। उसे अचानक शर्म ने घेर लिया था। अत: सबकुछ पीछे छोड़कर सारी बहस शर्म पर आ गई और पलटकर अध्यापक कितना सम्मानित प्राणी हुआ करता था, उस दिशा में उलट गई, फिर एक से दूसरी चीज़ पर जाते हुए, अध्यापकों में निष्ठा की कमी, संयमहीनता, देश का भविष्य आदि उन निराशावादी स्थितियों पर चली गई जिनका हवाला देकर साबित किया जाता है कि अध्यापकों को त्याग करना चाहिए और सब लोगों का काम आदर्शों को गिराना और अध्यापक का काम आदर्शों को उठाना है, यह समझकर थोड़ी तनख़्वाह और बड़ी इज़्ज़त के साथ उन्हें गाँधी और नेहरू–जैसे व्यक्तियों का सृजन करना चाहिए।
इजलास जोश में थी। बचपन में अध्यापकों ने उसे हमेशा निम्न कोटि के विद्यार्थियों में शुमार किया था और उसे आज इन अध्यापकों को निम्न कोटि का आदमी साबित करने का मौक़ा मिल गया था। इसलिए इन महत्त्वपूर्ण विषयों पर, तर्क हो या न हो, बड़े जोश के साथ वह उसी तरह बोलती रही जैसे लोग इजलास से बाहर बोलते हैं। दुनिया–भर के सिद्धान्तों के राजमार्ग पर चलकर इजलास का फै़सला आखिर में फिर उसी सुरंग से बाहर निकला कि इन अध्यापकों को शर्म आनी चाहिए।
खन्ना मास्टर को तो नहीं, पर उनके वकील को अन्त में कहना पड़ा कि मैं सिद्धान्त-रूप में स्वीकार करता हूँ कि हमें शर्म आनी चाहिए, पर दोनों पक्षों को बराबर– बराबर आनी चाहिए।
तब इजलास ने प्रिंसिपल को लथाड़ना शुरू किया। उसका आशय यह था कि उसे शर्म आनी चाहिए कि वह इस तरह से प्रिंसिपली कर रहा है।
‘‘अगर मैं प्रिंसिपल होता तो इस तरह के मास्टरों को एक दिन के लिए भी कॉलिज में बरदाश्त न करता। मास्टरों में झगड़ा हो तो थाना–कचहरी से क्या मतलब ? होशियार प्रिंसिपल होता तो इस तरह के तत्त्वों को वह पहले ही से कॉलिज में न आने देता और वे आ ही गए थे तो उन्हें निकाल बाहर करने में एक मिनट की भी देर न करता। यह विद्यार्थियों के भविष्य का प्रश्न है। इसमें रियायत कैसी ? पर, आज के प्रिंसिपल भी क्या हो गए हैं। मेरे ज़माने में...’’
अब प्रिंसिपल साहब के वकील को भी कहना पड़ा कि मैं सिद्धान्त-रूप में स्वीकार करता हूँ कि मास्टरों के साथ प्रिंसिपल साहब कमज़ोरी से पेश आए हैं और उनके विरुद्ध उन्होंने अब तक कड़ी कार्रवाई नहीं की है और ऐसा करने और न करने के कारण प्रिंसिपल को शर्म आनी चाहिए।
इस बिन्दु पर पहुँचकर इजलास ने खन्ना मास्टर से कहा कि यह तमाशा बहुत हो चुका है, अब यह झगड़ा ख़त्म होना चाहिए; या तो आपस में सुलह कर लो या कॉलिज छोड़कर बाहर चले जाओ। नहीं तो इस मुक़दमे में मुझे फ़ैसला लिखना पड़ेगा।
इस पर दारोग़ाजी ने इजलास की दयालुता पर एक संक्षिप्त भाषण देते हुए कहा कि हुजूर फ़ैसला न लिखें, नहीं तो ग़ज़ब हो जाएगा। जो भी हो, ये बेचारे मास्टर लोग हैं। बहकावे में आ गए हैं। आपने फ़ैसला लिख दिया तो घपले में पड़ जाएँगे। आपने इतनी ताकीद कर दी, यह बहुत है। इन्हें काफ़ी समझा दिया गया है। समझ गए होंगे। अब मुझे विश्वास है कि सुलह हो जाएगी। इन्हें एक पेशी का मौका दे दिया जाए। तब तक सब ठीक हो जाएगा। हुजूर को फ़ैसला न लिखना पड़ेगा।
रंगनाथ ने कहा, ‘‘तो इसका मतलब यह हुआ कि...।’’
खन्ना मास्टर बोले, ‘‘मतलब यह कि पेशी से लौटते ही प्रिंसिपल साहब ने मास्टर मोतीराम को हमारे पीछे लगा दिया है। अब तक वे चुपचाप साइन्स पढ़ाते थे और अपनी आटाचक्की का काम देखते थे। अब परसों से वे हमें यही समझा र
हे हैं कि मास्टरी के मुकाबले आटाचक्की खोल देने में ज़्यादा मुनाफ़ा है। मुनाफ़े की बात करते हुए वे लकड़ी चीरनेवाली आरा–मशीन का भी ज़िक्र कर रहे हैं। कल शाम उन्होंने मालवीयजी को पान की दुकान चलाने का फ़ायदा समझाया। अब बताइए, इसका क्या जवाब है ?’’
गयादीन ने जम्हाई लेकर कहा, ‘‘सुलह कर लो।”
“पर इसका मतलब.. ?’’
‘‘वह तो तुम बता चुके हो मास्टर साहब; सुलह शिवपालगंज छोड़ देने से ही हो, तो वही करो। दिन–रात की खिचखिच से क्या फ़ायदा ? बेकार ही तो हो जाओगे। बेकारी उतनी बुरी चीज़ नहीं है। बेकार तो करोड़ों लोग हैं। असल चीज़ खिचखिच है। इससे दूर रहना चाहिए।’’
रंगनाथ को अब तक शिवपालगंज में रहते हुए छ: महीने हो गए थे। उसकी तन्दुरुस्ती अच्छी हो गई थी। ज़बान खराब हो गई थी। सही मौके पर चुप हो जाने और ग़लत जगह पर जोश दिखाने की आदत पड़ने लगी थी। इस झगड़े में वह कहीं नहीं है, यह मजबूरी उसके मन में हीनता–भाव पैदा करने लगी थी। परिस्थिति के ख़िलाफ़ उसके मन में स्वाभाविक रोष भी पैदा होता था, पर वह हर हिन्दुस्तानी के रोष की तरह बहस–मुबाहसे के रास्ते निकल जाता था और बचा–खुचा अच्छे खाने–पीने से दब जाता था। पर आज इस हीनता की अनुभूति और रोष के भाव ने मिलकर उसे न जाने कैसा बना दिया कि उसने डपटना शुरू कर दिया। उसने बात डपट से शुरू की और डपट ही पर जाकर छोड़ी। जो भी हो, उसकी बात का अर्थ यही निकला कि ‘इस परिस्थिति का डटकर विरोध किया जाना चाहिए–खन्ना मास्टर को पीछे नहीं हटना चाहिए, अन्याय से समझौता नहीं करना चाहिए,’ कहते–कहते रंगनाथ को ऐसा लगा कि वह अंग्रेज़ी पढ़े–लिखे देसी आदमी की तरह टूटी–फूटी ज़बान में कोई धार्मिक ग्रन्थ बाँच रहा है। वह चुपचाप हो गया।
मास्टर ने कहा, ‘‘हम लोग कुछ नहीं कर सकते।’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘और आप गयादीनजी ?’’
जवाब में गयादीन ने रुक–रुककर एक क़िस्सा सुनाया: ‘‘हमारे इलाक़े में बहुत दिन हुए, एक मातापरशाद हुए थे। इस इलाके़ के वे पहले नेता थे। लोग उनकी बातें बड़े प्रेम से सुनते थे। वे ज़रूरत पड़ने पर जेल भी जाते थे, तब लोग उनकी याद और भी बड़े प्रेम से करते थे। जब वे जेल से वापस आते तो लोग ज़्यादातर उनसे इसी तरह की बातें करते रहते कि जोश में आकर वे फिर जेल चले जाएँ। एक बार वे कई साल तक बिना जेल गए हुए रह गए। इसका नतीजा यह हुआ कि लोग उनके व्याख्यानों से ऊबने लगे। ज़मींदारी–विनाश, स्त्री-शिक्षा, विदेशी चीज़ों और शराब की दुकान का बहिष्कार–इन विषयों पर उनके व्याख्यान लोगों को इस तरह याद हो गए कि वे जब बोलने खड़े होते तो स्कूली लड़के उनके कुछ कहने से पहले ही उनके व्याख्यान के टुकड़े करके उसे दोहरा देते। उनके कहने के लिए कुछ बचता नहीं था। जब चन्दा माँगने के लिए जाते तो लोग समझते कि वह भीख माँग रहा है। वे जब भारत माता की जय बोलते तो लोगों को लगता कि वह अपने ख़ानदान का प्रचार कर रहा है और वे जब ज़मींदारी–विनाश की बात करते तो लोग जान जाते कि वह बिना लगान दिए साल पार कर जाना चाहता है। मतलब यह है कि मातापरशाद की लीडरी इस इलाक़े में पाँच साल तो चली, बाद में उन्हें लगा कि कुछ जम नहीं रहा है। तब मुझे ही समझाना पड़ा कि भैया मातापरशाद, लीडर में जो गुण होना चाहिए वह तुममें नहीं है। चाहिए यह कि लीडर तो जनता की नस–नस की बात जानता हो, पर जनता लीडर के बारे में कुछ भी न जानती हो। यहाँ सब बात उल्टी है। तुम खुद तो जनता का हाल जानते नहीं हो, पर जनता तुम्हारी नस–नस से वाकिफ़ है। इसलिए यह इलाक़ा लीडरी में तुम्हारे मुआफ़िक नहीं आ रहा है। तुम या तो यहाँ से किसी दूसरे इलाक़े में चले जाओ या कुछ दिनों के लिए जेल हो आओ। मातापरशाद मेरी राय मानकर जेल चले गए। उसी के साल–भर बाद किसी दूसरे ज़िले से तुम्हारे मामा वैद्यजी यहाँ आए। उनके बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम था, लोग सिर्फ़ इतना जानते थे कि उनकी काली–काली मूँछें हैं, मज़बूत देह है और उनकी वीर्यपुष्टि की दवाओं की धाक है। उन्होंने कोअॉपरेटिव सोसायटी बनायी, यहाँ एक मिडिल स्कूल खुलवाया, अपना आयुर्वेदिक दवाख़ाना खोला और जब तक लोग जान पायें कि वे किसके कौन हैं, वे यहाँ के नेता बन बैठे। एक गाँव की ज़मींदारी �
�ी उन्होंने रेहन में रख ली, कोअॉपरेटिव में कर्ज़ा देर से मिलने के कारण किसी को तकलीफ़ न हो, इसलिए साथ–साथ अपना रुपिया भी कर्ज़ पर चलाना शुरू कर दिया। उधर मातापरशाद जेल में पड़े रहे और ये इधर लड़ाई में सिपाहियों की भरती कराने लगे। शहर की अमन–सभाओं में जाने लगे। आज़ादी मिलने के बाद उन्होंने ज़मींदारी के विरोध में रेहनवाला गाँव बिकवा दिया और रुपिया लेकर भूतपूर्व ज़मींदार कहलाने से बच गए। उधर मातापरशाद जेल से निकलकर सरकारी पेंशन लेकर शहर में अपना पेट पालने में लग गए। इधर, बाबू रंगनाथ, तुम्हारे मामा अकेले डील पूरा, इलाक़ा बन गए।
‘‘बाबू रंगनाथ, लीडरी ऐसा बीज है जो अपने घर से दूर की ज़मीन में ही पनपता है। इसलिए मैं यहाँ लीडरी नहीं कर सकता। लोग मुझे बहुत ज़्यादा जानते हैं। उनमें मेरी लीडरी न चल पाएगी। कुछ बोलूँगा तो कहेंगे, देखो गयादीन लीडरी कर रहे हैं।
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