Rag Darbari
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उन दिनों गाँव में लेक्चर का मुख्य विषय खेती था। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि पहले कुछ और था। वास्तव में पिछले कई सालों से गाँववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। गाँववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से ही यह मानकर चलता था कि गाँववाले इस बात का विरोध करेंगे। इसीलिए वे एक के बाद दूसरा तर्क ढूँढ़कर लाते थे और यह साबित करने में लगे रहते थे कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है। इसके बाद वे यह बताते थे कि खेती की उन्नति ही देश की उन्नति है। फिर आगे की बात बताने के पहले ही प्राय: दोपहर के खाने का वक़्त हो जाता और वह तमीज़दार लड़का, जो बड़े सम्पन्न घराने की औलाद हुआ करता था और जिसको चीको साहब की लड़की ब्याही रहा करती थी, वक्ता की पीठ का कपड़ा खींच–खींचकर इशारे से बताने लगता कि चाचाजी, खाना तैयार है। कभी–कभी कुछ वक्तागण आगे की बात भी बता ले जाते थे और तब मालूम होता कि उनकी आगे की और पीछे की बात में कोई फ़र्क नहीं था, क्योंकि घूम–फिरकर बात यही रहती थी कि भारत एक खेतिहर देश है, तुम खेतिहर हो, तुमको अच्छी खेती करनी चाहिए, अधिक अन्न उपजाना चाहिए। प्रत्येक वक्ता इसी सन्देह में गिरफ़्तार रहता था कि काश्तकार अधिक अन्न नहीं पैदा करना चाहते।
लेक्चरों की कमी विज्ञापनों से पूरी की जाती थी और एक तरह से शिवपालगंज में दीवारों पर चिपके या लिखे हुए विज्ञापन वहाँ की समस्याओं और उनके समाधानों का सच्चा परिचय देते थे। मिसाल के लिए, समस्या थी कि भारतवर्ष एक खेतिहर देश है और किसान बदमाशी के कारण अधिक अन्न नहीं उपजाते। इसका समाधान यह था कि किसानों के आगे लेक्चर दिया जाए और उन्हें अच्छी–अच्छी तस्वीरें दिखायी जाएँ। उनके द्वारा उन्हें बताया जाय कि तुम अगर अपने लिए अन्न नहीं पैदा करना चाहते तो देश के लिए करो। इसी से जगह–जगह पोस्टर चिपके हुए थे जो काश्तकारों से देश के लिए अधिक अन्न पैदा कराना चाहते थे। लेक्चरों और तस्वीरों का मिला–जुला असर काश्तकारों पर बड़े ज़ोर से पड़ता था और भोले–से–भोला काश्तकार भी मानने लगता था कि हो–न–हो, इसके पीछे भी कोई चाल है।
शिवपालगंज में उन दिनों एक ऐसा विज्ञापन खासतौर से मशहूर हो रहा था जिसमें एक तन्दुरुस्त काश्तकार सिर पर अँगोछा बाँधे, कानों में बालियाँ लटकाए और बदन पर मिर्जई पहने गेहूँ की ऊँची फसल को हँसिये से काट रहा था। एक औरत उसके पीछे खड़ी हुई, अपने–आपसे बहुत खुश, कृषि-विभाग के अफ़सरोंवाली हँसी हँस रही थी। नीचे और ऊपर अंग्रेज़ी और हिन्दी अक्षरों में लिखा था, ‘‘अधिक अन्न उपजाओ।’’ मिर्जई और बालीवाले काश्तकारों में जो अंग्रेज़ी के विद्वान थे, उन्हें अंग्रेज़ी इबारत से और जो हिन्दी के विद्वान थे, उन्हें हिन्दी से परास्त करने की बात सोची गई थी; और जो दो में से एक भी भाषा नहीं जानते थे, वे भी कम–से–कम आदमी और औरत को तो पहचानते ही थे। उनसे आशा की जाती थी कि आदमी के पीछे हँसती हुई औरत की तस्वीर देखते ही वे उसकी ओर पीठ फेरकर दीवानों की तरह अधिक अन्न उपजाना शुरू कर देंगे। यह तस्वीर शिवपालगंज में आजकल कई जगह चर्चा का विषय बनी थी, क्योंकि यहाँवालों की निगाह में तस्वीरवाले आदमी की शक्ल कुछ–कुछ बद्री पहलवान से मिलती थी। औरत की शक्ल के बारे में गहरा मतभेद था। वह गाँव की देहाती लड़कियों में से किसकी थी, यह अभी तय नहीं हो पाया था।
वैसे सबसे ज़्यादा ज़ोर–शोरवाले विज्ञापन खेती के लिए नहीं, मलेरिया के बारे में थे। जगह–जगह मकानों की दीवारों पर गेरू से लिखा गया था कि ‘‘मलेरिया को ख़त्म करने में हमारी मदद करो, मच्छरों को समाप्त हो जाने दो।’’ यहाँ भी यह मानकर चला गया था कि किसान गाय–भैंस की तरह मच्छर भी पालने को उत्सुक हैं और उन्हें मारने के पहले किसानों का हृदय–परिवर्तन करना पड़ेगा। हृदय–परिवर्तन के लिए रोब की ज़रूरत है, रोब के लिए अंग्रेज़ी की ज़रूरत है–इस भारतीय तर्क–पद्धति के हिसाब से मच्छर मारने और मलेरिया–उन्मूलन में सहायता करने की सभी अपीलें प्राय: अंग्रेज़ी में लिखी गई थीं। इसीलिए प्राय: सभी लोगों ने इनको कविता के रूप में नहीं, चित्रकला के रूप में स्वीकार किया थ
ा और गेरू से दीवार रँगनेवालों को मनमानी अंग्रेज़ी लिखने की छूट दे दी थी। दीवारें रँगती जाती थीं, मच्छर मरते जाते थे। कुत्तो भूँका करते थे, लोग अपनी राह चलते रहते थे।
एक विज्ञापन भोले–भाले ढंग से बताता था कि हमें पैसा बचाना चाहिए। पैसा बचाने की बात गाँववालों को उनके पूर्वज मरने के पहले ही बता गए थे और लगभग प्रत्येक आदमी को अच्छी तरह मालूम थी। इसमें सिर्फ़ इतनी नवीनता थी कि यहाँ भी देश का ज़िक्र था, कहीं–कहीं इशारा किया गया था कि अगर तुम अपने लिए पैसा नहीं बचा सकते तो देश के लिए बचाओ। बात बहुत ठीक थी, क्योंकि सेठ–साहूकार, बड़े–बड़े ओहदेदार, वकील डॉक्टर–ये सब तो अपने लिए पैसा बचा ही रहे थे, इसलिए छोटे–छोटे किसानों को देश के लिए पैसा बचाने में क्या ऐतराज हो सकता था ! सभी इस बात से सिद्धान्तरूप में सहमत थे कि पैसा बचाना चाहिए। पैसा बचाकर किस तरह कहाँ जमा किया जाएगा, वे बातें भी विज्ञापनों और लेक्चरों में साफ़ तौर से बतायी गई थीं और लोगों को उनसे भी कोई आपत्ति न थी। सिर्फ़ लोगों को यही नहीं बताया गया था कि कुछ बचाने के पहले तुम्हारी मेहनत के एवज़ में तुम्हें कितना पैसा मिलना चाहिए। पैसे की बचत का सवाल आमदनी और ख़र्च से जुड़ा हुआ है, इस छोटी–सी बात को छोड़कर बाक़ी सभी बातों पर इन विज्ञापनों में विचार कर लिया गया था और लोगों ने इनको इस भाव से स्वीकार कर लिया था कि ये बेचारे दीवार पर चुपचाप चिपके हुए हैं, न दाना माँगते हैं, न चारा, न कुछ लेते हैं न देते हैं। चलो, इन तस्वीरों को छेड़ो नहीं।
पर रंगनाथ को जिन विज्ञापनों ने अपनी ओर खींचा, वे पब्लिक सेक्टर के विज्ञापन न थे, प्राइवेट सेक्टर की देन थे। उनसे प्रकट होनेवाली बातें कुछ इस प्रकार थीं : ‘‘उस क्षेत्र में सबसे ज़्यादा व्यापक रोग दाद है, एक ऐसी दवा है जिसको दाद पर लगाया जाए तो उसे जड़ से आराम पहुँचता है, मुँह से खाया जाए तो खाँसी–जुकाम दूर होता है, बताशे में डालकर पानी से निगल लिया जाए तो हैजे में लाभ पहुँचता है। ऐसी दवा दुनिया में कहीं नहीं पायी जाती। उसके आविष्कारक अब भी ज़िन्दा हैं, यह विलायतवालों की शरारत है कि उन्हें आज तक नोबल पुरस्कार नहीं मिला है।’’
इस देश में और भी बड़े–बड़े डॉक्टर हैं जिनको नोबल पुरस्कार नहीं मिला है। एक क़स्बा जहानाबाद में रहते हैं और चूँकि वहाँ बिजली आ चुकी है, इसलिए वे नामर्दी का इलाज बिजली से करते हैं। अब नामर्दों को परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। एक दूसरे डॉक्टर, जो कम–से–कम भारतवर्ष-भर में तो मशहूर हैं ही, बिना अॉपरेशन के अण्ड–वृद्धि का इलाज करते हैं। और यह बात शिवपालगंज में किसी भी दीवार पर तारकोल के हरूफ़ में लिखी हुई पायी जा सकती है। वैसे बहुत–से विज्ञापन बच्चों में सूखा रोग, आँखों की बीमारी और पेचिश आदि से भी सम्बद्ध हैं, पर असली रोग संख्या में कुल तीन ही हैं–दाद, अण्डवृद्धि और नामर्दी; और इनके इलाज की तरकीब शिवपालगंज के लड़के अक्षर-ज्ञान पा लेने के बाद ही दीवारों पर अंकित लेखों के सहारे जानना शुरू कर देते हैं।
विज्ञापनों की इस भीड़ में वैद्यजी का विज्ञापन ‘नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश’ अपना अलग व्यक्तित्व रखता था। वह दीवारों पर लिखे ‘नामर्दी का बिजली से इलाज’ जैसे अश्लील लेखों के मुक़ाबले में नहीं आता था। वह छोटे–छोटे नुक्कड़ों, दुकानों और सरकारी इमारतों पर–जिनके पास पेशाब करना और जिन पर विज्ञापन चिपकाना मना था–टीन की खूबसूरत तख्तियों पर लाल–हरे अक्षरों में प्रकट होता था और सिर्फ़ इतना कहता था, ‘नवयुवकों के लिए आशा का सन्देश’ नीचे वैद्यजी का नाम था और उनसे मिलने की सलाह थी।
एक दिन रंगनाथ ने देखा, रोगों की चिकित्सा में एक नया आयाम जुड़ रहा है। सवेरे से ही कुछ लोग एक दीवार पर बड़े–बड़े अक्षरों में लिख रहे हैं : बवासीर ! शिवपालगंज की उन्नति का लक्षण था। बवासीर के चार आदम-क़द अक्षर चिल्लाकर कह रहे थे कि यहाँ पेचिश का युग समाप्त हो रहा है, मुलायम तबीयत, दफ़्तर की कुर्सी, शिष्टतापूर्ण रहन–सहन, चौबीस घण्टे चलनेवाले खान–पान और हल्के परिश्रम का युग धीरे–धीरे संक्रमण कर रहा है और आधुनिकता के प्रतीक–जैसी बवासीर सर्वव्या�
��ी नामर्दी का मुकाबला करने के लिए मैदान में आ रही है। शाम तक वह दैत्याकार विज्ञापन एक दीवार पर रंग–बिरंगी छाप छोड़ चुका था और दूर–दूर तक ऐलान करने लगा था : बवासीर का शर्तिया इलाज !
देखते–देखते चार–छ: दिन में ही सारा ज़माना बवासीर और उसके शर्तिया इलाज के नीचे दब गया। हर जगह वही विज्ञापन चमकने लगा। रंगनाथ को सबसे बड़ा अचम्भा तब हुआ जब उसने देखा, वही विज्ञापन एक दैनिक समाचार–पत्र में आ गया है। यह समाचार–पत्र रोज़ दस बजे दिन तक शहर से शिवपालगंज आता था और लोगों को बताने में सहायक होता था कि स्कूटर और ट्रक कहाँ भिड़ा, अब्बासी नामक कथित गुण्डे ने इरशाद नामक कथित सब्ज़ी-फ़रोश पर कथित छुरी से कहाँ कथित रूप में वार किया। रंगनाथ ने देखा कि उस दिन अखबार के पहले पृष्ठ का एक बहुत बड़ा हिस्सा काले रंग में रँगा हुआ है और उस पर बड़े–बड़े सफ़ेद अक्षरों में चमक रहा है : बवासीर ! अक्षरों की बनावट वही है जो यहाँ दीवारों पर लिखे विज्ञापन में है। उन अक्षरों ने बवासीर को एक नया रूप दे दिया था, जिसके कारण आसपास की सभी चीज़ें बवासीर की मातहती में आ गई थीं। काली पृष्ठभूमि में अखबार के पन्ने पर चमकता हुआ ‘बवासीर’ दूर से ही आदमी को अपने में समेट लेता था। यहाँ तक कि सनीचर, जिसे बड़े–बड़े अक्षर पढ़ने में भी आन्तरिक कष्ट होता था, अख़बार के पास खिंच आया और उस पर निगाह गड़ाकर बैठ गया। बहुत देर तक गौर करने के बाद वह रंगनाथ से बोला, ‘‘वही चीज़ है।’’