Rag Darbari
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दारोग़ाजी ने पूछा, ‘‘यह बोली कौन–सी है ?’’
एक सिपाही ने कहा, ‘‘बोली ही से तो हमने पहचाना कि जोगनाथ है। वह सर्फ़री बोली बोलता है। इस वक़्त होश में नहीं है, इसलिए गाली बक रहा है।’’
दारोग़ाजी शायद गाली देने के प्रति जोगनाथ की इस निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए कि वह बेहोशी की हालत में भी कम–से–कम इतना तो कर ही रहा है। उन्होंने उसकी गरदन ज़ोर से हिलाई और पकड़कर बोले, ‘‘होश में आ !’’
पर जोगनाथ ने होश में आने से इंकार कर दिया। सिर्फ़ इतना कहा, ‘‘सर्फ़ाले!’’
सिपाही हँसने लगे। जिसने उसे पहले पहचाना था, उसने जोगनाथ के कान में चिल्लाकर कहा, “ जर्फ़ोगनाथ, हर्फ़ोश में अर्फ़ाओ।’’
इसकी भी जोगनाथ पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई; पर दारोग़ाजी ने एकदम से सर्फ़री बोली सीख ली। उन्होंने मुस्कराकर कहा, ‘‘यह साला हम लोगों को साला कह रहा है।’’
उन्होंने उसे मारने के लिए अपना हाथ उठाया, पर एक सिपाही ने रोक लिया। कहा, ‘‘जाने भी दें हुजूर !’’
दारोग़ाजी को सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण कुछ पसन्द नहीं आ रहा था। उन्होंने अपना हाथ तो रोक लिया, पर आदेश देने के ढंग से कहा, ‘‘इसे अपने साथ ले जाओ और हवालात में बन्द कर दो। दफ़ा 109 ज़ाब्ता फ़ौजदारी लगा देना।’’
एक सिपाही ने कहा, ‘‘यह नहीं हो पाएगा हुजूर ! यह यहीं का रहनेवाला है। दीवारों पर इश्तहार रँगा करता है और बात–बात पर सर्फ़री बोली बोलता है। वैसे बदमाश है, पर दिखाने के लिए कुछ काम तो करता ही है।’’
वे लोग जोगनाथ को उठाकर उसे अपने पैरों पर चलने के लिए मजबूर करते हुए सड़क की ओर बढ़ने लगे। दारोग़ाजी ने कहा, ‘‘शायद पीकर गाली बक रहा है। किसी–न–किसी जुर्म की दफ़ा निकल आएगी। अभी चलकर इसे बन्द कर दो। कल चालान कर दिया जाएगा।’’
उस सिपाही ने कहा, ‘‘हुजूर ! बेमतलब झंझट में पड़ने से क्या फ़ायदा ? अभी गाँव चलकर इसे इसके घर में ढकेल आएँगे। इसे हवालात कैसे भेजा जा सकता है ? वैद्यजी का आदमी है।’’
दारोग़ाजी नौकरी में नये थे, पर सिपाहियों का मानवतावादी दृष्टिकोण अब वे एकदम समझ गए। वे कुछ नहीं बोले। सिपाहियों से थोड़ा पीछे हटकर वे फिर अँधेरे, हल्की ठण्डक, नगरवासिनी प्रिया और ‘हाय मेरा दिल’ से सन्तोष खींचने की कोशिश करने लगे।
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कोअॉपरेटिव यूनियन का ग़बन बड़े ही सीधे–सादे ढंग से हुआ था। सैकड़ों की संख्या में रोज़ होते रहनेवाले ग़बनों की अपेक्षा इसका यही सौन्दर्य था कि यह शुद्ध ग़बन था, इसमें ज़्यादा घुमाव–फिराव न था। न इसमें जाली दस्तखतों की ज़रूरत पड़ी थी, न फ़र्ज़ी हिसाब बनाया गया था, न नकली बिल पर रुपया निकाला गया था। ऐसा ग़बन करने और ऐसे ग़बन को समझने के लिए किसी टेक्नीकल योग्यता की नहीं, केवल इच्छा– शक्ति की ज़रूरत थी।
कोअॉपरेटिव यूनियन का एक बीजगोदाम था जिसमें गेहूँ भरा हुआ था। एक दिन यूनियन का सुपरवाइज़र रामसरूप दो ट्रक साथ में लेकर बीजगोदाम पर आया। ट्रकों पर गेहूँ के बोरे लाद लिये गए और दूर से देखनेवाले लोगों ने समझा कि यह तो कोअॉपरेटिव में रोज़ होता ही रहता है। उन्हें पड़ोस के दूसरे बीजगोदाम में पहुँचाने के लिए रामसरूप खुद एक ड्राइवर की बग़ल में बैठ गया और ट्रक चल पड़े। सड़क से एक जगह कच्चे रास्ते पर मुड़ जाने से पाँच मील आगे दूसरा बीजगोदाम मिल जाता; पर ट्रक उस जगह नहीं मुड़े, वे सीधे चले गए। यहीं से ग़बन शुरू हो गया। ट्रक सीधे शहर की गल्लामण्डी में पहुँच गए। वहाँ गेहूँ के बोरे उतारकर दोनों ट्रक ग़बन के बारे में सबकुछ भूल गए और दूसरे दिन आस–पास के क्षेत्र में पूर्ववत् कोयला और लकड़ी ढोने लगे। रामसरूप का उसके बाद काफ़ी दिन तक पता नहीं चला और लोगों ने विश्वास कर लिया कि गेहूँ बेचकर, कई हज़ार रुपये जेब में भरकर वह बम्बई की ओर भाग गया है। यह पूरी घटना स्थानीय थाने में ग़बन की एक रिपोर्ट की शक्ल में आ गई और बक़ौल वैद्यजी के, ‘काँटा–सा निकल गया।’
पर यूनियन के एक डायरेक्टर ने कल शहर जाकर एक ऐसा दृश्य देखा जिससे पता चला कि रामसरूप ने वे रुपये ख़र्च करने के लिए बम्बई को नहीं, अपने इलाके़ के शहर को ही प्राथमिकता दी है। डायरेक्टर साहब यों ह�
�, सिर्फ़ शहर देखने के मतलब से, शहर देखने गए थे। इन अवसरों पर और कार्यक्रमों के साथ उनका कम–से–कम एक स्थायी कार्यक्रम होता था–किसी पार्क में पहुँचना, किसी पेड़ के नीचे बेंच पर बैठना, लइया–चना चबाना, रंगीन फूलों और लड़कियों को ध्यानपूर्वक देखना और किसी कम–उम्र छोकरे से सिर पर तेल–मालिश कराना। जब वे इस कार्यक्रम की आख़िरी मद पर पहुँचे तो एक घटना हुई। वे उस समय पेड़ के नीचे बेंच पर बैठे थे, उनकी आँखें मुँदी हुई थीं और उनके सिर पर छोकरे की पतली और मुलायम उँगलियाँ ‘तिड्–तिड्– तिड्’ की आवाज़ निकाल रही थीं। लड़का उल्लास के साथ उनके बालों पर तबले के कुछ टेढ़े–मेढ़े बोल निकाल रहा था और वे आँखें मूँदे अफ़सोस के साथ सोच रहे थे कि शायद वह तेल–मालिश का कार्यक्रम जल्द ही ख़त्म कर देगा। एक बार उन्होंने आँख खोलकर पीछे की ओर गरदन घुमाने की कोशिश की, पर तेल–मालिश का असर–उसमें इतनी अफ़सरी आ गई थी कि वह घूमी ही नहीं। अत: उन्होंने लड़के का मुँह तो नहीं देखा, जो कुछ सामने था उसे ही देखकर सन्तोष करना चाहा।
उन्होंने देखा, सामने एक पेड़ था और उसके नीचे बेंच पर रामसरूप सुपरवाइज़र बैठा था। वह भी एक लड़के से सिर पर तेल–मालिश करा रहा था और ‘तिड्–तिड्–तिड्’ की सुखपूर्ण अनुभूति में खोया हुआ था। दोनों पक्ष उस समय परमहंसों के भाव से अपने–अपने जगत में तल्लीन थे। शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए यह आदर्श स्थिति थी। अत: उन्होंने एक–दूसरे के मामले में हस्तक्षेप नहीं किया। लगभग पन्द्रह मिनट वे अपनी–अपनी बेंच पर अच्छे पड़ोसियों की तरह बैठे हुए एक–दूसरे को देखकर भी अनदेखा करते रहे। फिर देह तोड़कर दोनों पक्ष उठ खड़े हुए और अपने–अपने मालिशकर्ता को यथोचित पारिश्रमिक देकर, उन्हें दोबारा वहीं मिलने के लिए प्रोत्साहित करके, पंचशील के सिद्धान्तों के अनुसार वे अपने–अपने रास्ते लग गए।
शिवपालगंज की ओर लौटते समय डायरेक्टर को जान पड़ने लगा कि मालिश के सुख के पीछे उन्होंने कोअॉपरेटिव आन्दोलन के साथ विश्वासघात किया है। उन्हें याद आया कि रामसरूप फ़रार है और पुलिस उसकी तलाश में है। अगर वे रामसरूप को पकड़वा दें तो ग़बन का मुक़दमा चल निकलता। शायद उनका नाम अख़बार में भी छपता। यह सब सोचकर वे दुखी हुए। उनकी आत्मा उनको कुरेदने लगी। अत: वापस आते ही आत्मा के सन्तोष के लिए वे वैद्यजी से मिले और हिंग्वाष्टक चूर्ण की एक पुड़िया फाँककर उनसे बोले, ‘‘मुझे आज पार्क में ऐसा आदमी दिखायी दिया था जो बिलकुल रामसरूप–जैसा था।’’
वैद्यजी ने कहा, ‘‘होगा। कुछ आदमियों की आकृतियाँ एक–सी होती हैं।’’
डायरेक्टर को लगा कि इतने से उनकी आत्मा उनका पीछा न छोड़ेगी, थोड़ी देर इधर–उधर देखकर उन्होंने कहा, ‘‘मैंने तभी सोचा था कि हो–न–हो, यह रामसरूप ही है।’’
वैद्यजी ने डायरेक्टर पर अपनी आँखें गड़ा दीं। उन्होंने फिर कहा, ‘‘रामसरूप ही था। मैंने सोचा कि यह साला यहाँ क्या कर रहा है। मालिश करा रहा था।’’
‘‘तुम वहाँ क्या कर रहे थे ?’’
डायरेक्टर ने अनमने ढंग से कहा, ‘‘मैं थककर एक पेड़ के नीचे आराम कर रहा था।’’
वैद्यजी ने कहा, ‘‘उसी समय पुलिस को सूचना देनी थी।’’
डायरेक्टर थोड़ी देर सोचते रहे। फिर सोच–समझकर बोले, ‘‘मैंने सोचा, कहीं रामसरूप यह जान न जाए कि उसे देख लिया गया है। इसीलिए पुलिस को इत्तला नहीं दी।’’
ग़बन का अभियुक्त बम्बई में नहीं, बल्कि पन्द्रह मील की दूरी पर ही है और तेल–मालिश कराने के लिए उसका सिर अब भी कन्धों पर सही–सलामत रखा है, इस सूचना ने वैद्यजी को उलझन में डाल दिया। डायरेक्टरों की बैठक बुलाना ज़रूरी हो गया। पूरी बात उन्होंने खाली–पेट सुनी थी, उसे भंग पीकर भी सुना जा सके इसलिए बैठक का समय सायंकाल के लिए रखा गया।
सनीचर पृथ्वी पर वैद्यजी को एकमात्र आदमी और स्वर्ग में हनुमानजी को एकमात्र देवता मानता था और दोनों से अलग–अलग प्रभावित था। हनुमानजी सिर्फ़ लँगोटा लगाते हैं, इस हिसाब से सनीचर भी सिर्फ़ अण्डरवीयर से काम चलाता था। जिस्म पर बनियान वह तभी पहनता जब उसे सज–धजकर कहीं के लिए निकलना होता। यह तो हुआ हनुमानजी का प्रभाव; व
ैद्यजी के प्रभाव से वह किसी भी राह–चलते आदमी पर कुत्ते की तरह भौंक सकता था, पर वैद्यजी के घर का कोई कुत्ता भी हो, तो उसके सामने वह अपनी दुम हिलाने लगता था। यह दूसरी बात है कि वैद्यजी के घर पर कुत्ता नहीं था और सनीचर के दुम नहीं थी।
उसे शहर की हर चीज़ में, और इसलिए रंगनाथ में काफ़ी दिलचस्पी थी। जब रंगनाथ दरवाज़े पर होता, सनीचर भी उसके आसपास देखा जा सकता था। आज भी यही हुआ। वैद्यजी कोअॉपरेटिव यूनियन की बैठक में गए थे। दरवाज़े पर सिर्फ़ रंगनाथ और सनीचर थे। सूरज डूबने लगा था और जाड़े की शाम के साथ हर घर से उठनेवाला कसैला धुआँ मकानों के ऊपर लटक गया था।
कोई रास्ते पर खट्–खट् करता हुआ निकला। किसी भी शारीरिक विकार के लिए हम भारतीयों के मन में जो सात्त्विक घृणा होती है, उसे थूककर बाहर निकालते हुए सनीचर ने कहा, ‘‘लँगड़वा जा रहा है, साला !’’ कहकर वह उछलता हुआ बाहर चबूतरे पर आ गया और वहाँ मेंढक की तरह बैठ गया।