Rag Darbari
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सनीचर रंगनाथ को पं. राधेलाल का क़िस्सा बड़े ही नाटकीय ढंग से सुना रहा था।
तभी उन तीनों नौजवानों में से एक बैठक के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया। वह नंगे बदन था। उसके जिस्म पर अखाडे़ की मिट्टी लगी हुई थी। लँगोटे की पट्टी कमर से पैरों तक हाथी की सूँड की तरह लटकी हुई थी। उन दिनों शिवपालगंज में लँगोटा पहनकर चलनेवालों में यही फ़ैशन लोकप्रिय हो रहा था। सनीचर ने पूछा, ‘‘क्या मामला है छोटे पहलवान ?’’
पहलवान ने शरीर के जोड़ों पर दाद खुजलाते हुए कहा, ‘‘बद्री भैया आज अखाड़े में नहीं आए ? कहाँ लपक गए ?’’
‘‘लपक कहाँ जाएँगे, इधर–उधर कहीं होंगे ?’’
‘‘कहाँ होंगे ?’’
‘‘यूनियन का सुपरवाइज़र गेहूँ लदवाकर भाग गया है। उसी की मीटिंग यूनियन में हो रही है। बद्री भी गए होंगे।’’
पहलवान ने लापरवाही से चबूतरे पर थूक दिया। कहा, ‘‘बद्री भैया मीटिंग में बैठकर क्या अण्डा देंगे? सुपरवाइज़र को पकड़कर एक धोबीपाट मारते, उसी में साला टें हो जाता! मीटिंग–शीटिंग में क्या होगा?’’
रंगनाथ को बात पसन्द आ गई। बोला, ‘‘क्या तुम्हारे यहाँ मीटिंग में अण्डा दिया जाता है ?’’
पहलवान ने इधर से किसी सवाल की आशा न की थी। उसने कहा, ‘‘अण्डा नहीं देंगे तो क्या बाल उखाड़ेंगे ? सब मीटिंग में बैठकर राँडों की तरह फाँय–फाँय करते हैं, काम–धाम के वक़्त खूँटा पकड़कर बैठ जाते हैं।’’
रंगनाथ को हिन्दी–भाषा के इस रूप का विशेष ज्ञान न था। उसने मन में सोचा, लोग यों ही कहा करते हैं कि हमारी भाषा में सशक्त शब्दों की कमी है। यदि हिन्दी के विद्वानों को छोटे पहलवान की तरह अखाड़े में चार महीने रखा जाए तो व्यक्तिगत असुविधा के बावजूद वे वहाँ की मिट्टी के जर्रे-जर्रे से इस तरह के शब्दकोश निकालने लगेंगे। रंगनाथ ने अब छोटे पहलवान को आदर की निगाह से देखा। इत्मीनान से बात करने के मतलब से कहा, ‘‘अन्दर आ जाओ पहलवान।’’
‘‘बाहर कौन गाज गिर रही है ? हम यहीं चुर्रेट हैं।’’ इतना कहकर छोटे पहलवान ने बातचीत में कुछ आत्मीयता दिखायी। पूछा, ‘‘तुम्हारे क्या हाल हैं रंगनाथ गुरू ?’’
रंगनाथ पहलवान से अपने बारे में ज़्यादा बात नहीं करना चाहता था। दोनों वक़्त दूध–बादाम पीने और कसरत करने की बात कॉफ़ी-हाउसों में भले ही लोगों की उत्सुकता न जगाये, पर छोटे पहलवान के लिए यह विषय पूरी रात पार करने को काफ़ी था। रंगनाथ बोला, ‘‘हम तो बिलकुल फ़िट हैं पहलवान, अपने हाल बताओ। इस सुपरवाइज़र को गेहूँ बेचने की क्या ज़रूरत पड़ी ?’’
पहलवान ने फिर नफ़रत के साथ चबूतरे पर थूका, लँगोट की पट्टी को आगे खींचकर कसा और इस प्रकार असफल चेष्टा से यह शुभेच्छा प्रकट की कि वह नंगा नहीं है। इसके बाद अपने को रंगनाथ की समकक्षता में लाकर बोला, ‘‘अरे गुरु, कहा है, ‘तन पर नहीं लत्ता, पान खायँ अलबत्ता’ वही हाल था। लखनऊ में दिन–रात फुटट्फैरी करता था। तो, बिना मसाले के फुटट्फैरी कैसी ? गेहूँ तो बेचेगा ही।’’
‘‘यह फुट्टफैरी क्या चीज़ है ?’’
पहलवान हँसा, ‘‘फुट्टफैरी नहीं समझे। वह ससुरा बड़ा लासेबाज़ था। तो लासेबाज़ी कोई हँसी–ठट्ठा है ! बड़ों–बड़ों का गूदा निकल आता है। जमुनापुर की रियासत तक इसी में तिड़ी–बिड़ी हो गई।’’
देसी विश्वविद्यालयों के लड़के अंग्रेज़ी फिल्म देखने जाते हैं। अंग्रेज़ी बातचीत समझ में नहीं आती, फिर भी बेचारे मुस्कराकर दिखाते रहते हैं कि वे सब समझ रहे हैं और फ़िल्म बड़ा मज़ेदार है। नासमझी के माहौल में रंगनाथ भी उसी तरह मुस्कराता रहा। पहलवान कहता रहा, ‘‘गुरू, इस रामसरूप सुपरवाइज़र की नक्शेबाज़ी मैं पहले से देख रहा था। बद्री पहलवान से मैंने तभी कह दिया था कि वस्ताद, यह लखनऊ लासेबाजी की फिराक में जाता है। तब तो बद्री वस्ताद भी कहते रहे कि ‘टाँय–टाँय न कर छोटू, साला आग खायेगा तो अंगार हगेगा।’ अब वह आग भी खा गया और गेहूँ भी तिड़ी कर ले गया। पहले तो बैद महाराज भी छिपाए बैठे रहे, अब जब पानी का हगा उतरा आया है तो सब यूनियन के दफ़्तर में बैठकर फुसर–फुसर कर रहे हैं। सुना है प्रस्ताव पास करेंगे। प्रस्ताव न पास करेंगे, पास करेंगे घण्टा। गल्ला–गोदाम �
��ा सब गल्ला तो रामसरूप निकाल ले गया। अब जैसे प्रस्ताव पास करके ये उसका कुछ उखाड़ लेंगे।’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘बद्री से तुमने बेकार ही बात की। बैदजी से अपना शुबहा बताते तो वह तभी इस सुपरवाइज़र को यहाँ से हटवा देते।’’
‘‘अरे गुरू, मुँह न खुलवाओ, बैदजी तुम्हारे मामा हैं, पर हमारे कोई बाप नहीं लगते। सच्ची बात ठाँस दूँगा तो कलेजे में कल्लायेगी, हाँ !’’
सनीचर ने कहा, ‘‘छोटू पहलवान, आज बहुत छानकर चले हो क्या ? बड़ी रंगबाज़ी झाड़ रहे हो।’’
छोटे पहलवान बोले, ‘‘रंगबाज़ी की बात नहीं बेटा, मेरा तो रोआँ–रोआँ सुलग रहा है ! जिस किसी की दुम उठाकर देखो, मादा ही नज़र आता है। बैद महाराज के हाल हमसे न कहलाओ। उनका खाता खुल गया तो भम्भक–जैसा निकल आएगा। मूंदना भी मुश्किल हो जाएगा। यही रामसरूप रोज बैदजी के ही मुँह–में–मुँह डालकर तीन–तेरह की बातें करता था और जब दो ठेला गेहूँ लदवाकर रफूचक्कर हो गया तो दो दिन से टिलटिला रहे हैं। हम भी यूनियन में हैं। कह रहे थे, प्रस्ताव में चलकर हाथ उठा दो। हम बोले कि हमसे हाथ न उठवाओ महाराज; मैं हाथ उठाऊँगा तो लोग काँखने लगेंगे। हाँ ! यही रामसरूप रोज़ शहर में घसड़–फसड़ करता घूमता है, उसे पकड़वाकर एक–लक्खी इमारत में बन्द कराते नहीं, कहते हैं कि प्रस्ताव कर लो। बद्री वस्ताद खुद बिलबिलाये हुए हैं, पर सगे बाप का मामला, यह जाँघ खोलो तो लाज और वह खोलो तो लाज।’’
तब तक बैठक के सामने लोगों के आने की आवाज़ें सुनायी दीं। चबूतरे पर खद्दर की धोती, कुरता, सदरी टोपी और चादर में भव्यमूर्ति वैद्य महाराज प्रकट हुए। उनके पीछे कई और चेले–चपाड़े। बद्री पहलवान सबसे पीछे थे। चेहरा बिना तोबड़े की सहायता के ही तोबड़ा–जैसा हो रहा था। उन्हें देखते ही छोटे ने कहा, ‘‘वस्ताद, एक बड़ा फण्टूश मामला है। बड़ी देर से बताने के लिए खड़ा हूँ।’’
‘‘खड़े हो तो कौन पिघले जा रहे हो ? क्या मामला है ?’’ कहकर बद्री पहलवान ने छोटे का स्वागत किया। गुरु–शिष्य चबूतरे के दूसरे छोर पर बातचीत करने के लिए चले गए।
वैद्यजी और चार–पाँच आदमी अन्दर आ गए। एक ने इत्मीनान की बड़ी लम्बी साँस खींची जो ख़त्म होते–होते एक सिसकी में बदल गई। दूसरा तख़्त पर बैठ गया और उसने इतने ज़ोर से जम्हाई ली कि पहले तो वह जम्हाई रही, पर आख़िर में सीटी पर आकर ख़त्म हुई। वैद्यजी ने भी तकिये के सहारे बैठकर अपनी टोपी और कुरता इस अन्दाज़ से तख़्त के दूसरे छोर पर फेंका जैसे कोई बड़ा गवैया एक लम्बी तान लगा चुकने के बाद सम पर आ गया हो। यह स्पष्ट हो गया कि सभी लोग कोई बड़ा काम करके थकान उतारने की स्थिति में आ गए हैं। सनीचर बोला, ‘‘महाराज, बहुत थकान आ गई हो तो एक बार फिर छनवा दूँ।’’
वैद्यजी कुछ नहीं बोले। यूनियन के एक डायरेक्टर ने कहा, ‘‘दुबारा तो वहीं यूनियन में छन चुकी है। बढ़िया माल। दूधिया। अब घर चलने का नम्बर है।’’
वैद्यजी कुछ देर पूर्ववत् चुप बैठे हुए दूसरों की बातें सुनते रहे। यह आदत उन्होंने तभी से डाल ली थी जब से उन्हें विश्वास हो गया था कि जो खुद कम खाता है, दूसरों को ज़्यादा खिलाता है; खुद कम बोलता है, दूसरों को ज़्यादा बोलने देता है; वही खुद कम बेवकूफ़ बनता है, दूसरे को ज़्यादा बेवकूफ़ बनाता है। फिर वे अचानक बोले, ‘‘रंगनाथ, तुम्हारी क्या राय है ?’’
जिस तरह बिना बात बताये हुए वैद्यजी ने राय माँगी थी, उसी तरह बिना बात समझे हुए रंगनाथ ने कहा, ‘‘जी, जो होता है, अच्छा ही होता है।’’
वैद्यजी मूँछों–ही–मूँछों में मुस्कराए। बोले, ‘‘तुमने बहुत उचित कहा। बद्री प्रस्ताव के विरुद्ध था, पर बाद में वह भी चुप हो गया। प्रस्ताव एकमत से पास हो गया। जो हुआ, अच्छा ही हुआ !’’
रंगनाथ को बाद में ध्यान आया कि वह अपनी राय यों ही लुटा चुका है। उसने उत्सुकतापूर्वक पूछा, ‘‘क्या प्रस्ताव किया आप लोगों ने ?’’
‘‘हम लोगों ने प्रस्ताव किया है कि सुपरवाइज़र ने जो हमारी आठ हज़ार रुपये की हानि की है, उसकी पूर्ति के लिए सरकार अनुदान दे।’’ रंगनाथ इस तर्क से लड़खड़ा गया। बोला, ‘‘सरकार से क्या मतलब ? ग़बन आपकी यूनियन के सुपरवाइज़र ने किया और उसका हरजाना सरकार दे ?�
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‘‘तो कौन देगा ? सुपरवाइज़र तो अलक्षित हो चुका है। हमने पुलिस में सूचना दे दी है। आगे सरकार का दायित्व है। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। होता, तो सुपरवाइज़र को पकड़कर उससे गेहूँ का मूल्य वसूल लेते। अब जो करना है, सरकार करे। या तो सरकार सुपरवाइज़र को बन्दी बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत करे या कुछ और करे। जो भी हो, यदि सरकार चाहती है कि हमारी यूनियन जीवित रहे और उसके द्वारा जनता का कल्याण होता रहे तो उसे ही यह हरजाना भरना पड़ेगा। अन्यथा यह यूनियन बैठ जाएगी। हमने अपना काम कर दिया, आगे का काम सरकार का है। उसकी अकर्मण्यता भी हम जानते हैं।’’