Rag Darbari

Home > Other > Rag Darbari > Page 22
Rag Darbari Page 22

by Shrilal Shukla


  वैद्यजी इतनी तर्कसंगत बातें कर रहे थे कि रंगनाथ का दिमाग चकरा गया। वे ‘शासन की अकर्मण्यता’, ‘जनता का कल्याण,’ ‘दायित्व’ आदि शब्द बार–बार अपनी बात में ला रहे थे। रंगनाथ को यक़ीन हो गया कि नये ज़माने में लोग जैसी भाषा समझते हैं, उसके मामा पुरानी पीढ़ी के होकर भी वैसी ही भाषा बोलना जानते हैं।

  बद्री पहलवान छोटे से बातचीत करके वापस आ गए थे। बोले, ‘‘रामाधीन के यहाँ डाका तो नहीं पड़ा, पर इधर–उधर चोरियाँ होने की ख़बरें आयी हैं।’’

  वे अपने बाप के सामने प्राय: अदब से बोलते थे। यह बात भी उन्होंने इस तरह से कही जैसे छोटे और उनके बीच की बात का यही निष्कर्ष था और उसे बताना उनका कर्त्तव्य था।

  वैद्यजी ने कहा, ‘‘चोरी ! डकैती ! सर्वत्र यही सुन पड़ता है। देश रसातल को जा रहा है।’’

  बद्री पहलवान ने इसे अनसुना करके, जैसे कोई हेल्थ–इंस्पेक्टर हैज़े से बचाव के उपाय बता रहा हो, जनसाधारण से कहा, ‘‘पूरे गाँव में चोरी की चर्चा है। जागते हुए सोना चाहिए।’’

  सनीचर ने उछलकर अपना आसन बदला और पूछा, ‘‘जागते हुए कैसे सोया जाता है, पहलवान ?’’

  बद्री ने सीधी आवाज़़ में कहा, ‘‘टिपिर–टिपिर मत करो। मुझे आज मज़ाक अच्छा नहीं लग रहा है।’’

  चबूतरे पर जाकर अँधेरे में छोटे पहलवान के पास खड़े हो गए।

  * * *

  10

  छंगामल विद्यालय इंटर कॉलिज की स्थापना ‘देश के नव–नागरिकों को महान् आदर्शों की ओर प्रेरित करने एवं उन्हें उत्तम शिक्षा देकर राष्ट्र का उत्थान करने हेतु’ हुई थी। कॉलिज का चमकीले नारंगी काग़ज़ पर छपा हुआ ‘संविधान एवं नियमावली’ पढ़कर यथार्थ की गन्दगी में लिपटा हुआ मन कुछ वैसा ही निर्मल और पवित्र हो जाता था जैसे भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का अध्याय पढ़कर।

  क्योंकि इस कॉलिज की स्थापना राष्ट्र के हित में हुई थी, इसलिए उसमें और कुछ हो या नहीं, गुटबन्दी काफ़ी थी। वैसे गुटबन्दी जिस मात्रा में थी, उसे बहुत बढ़िया नहीं कहा जा सकता था; पर जितने कम समय में वह विकसित हुई, उसे देखकर लगता था, काफ़ी अच्छा काम हुआ है। वह दो–तीन साल ही में पड़ोस के कॉलिजों की गुटबन्दी की अपेक्षा ज़्यादा ठोस दिखने लगी थी। बल्कि कुछ मामलों में तो वह अखिल भारतीय संस्थाओं तक का मुक़ाबला करने लगी थी।

  प्रबन्ध–समिति में वैद्यजी का दबदबा था, पर रामाधीन भीखमखेड़वी अब तक उसमें अपना गुट बना चुके थे। इसके लिए उन्हें बड़ी साधना करनी पड़ी। काफ़ी दिनों तक वे अकेले ही अपने गुट बने रहे, बाद में एकाध मेम्बर भी उनकी ओर खिंचे। अब बड़ी मेहनत के बाद कॉलिज के नौकरों में दो गुट बन पाए थे, पर उनमें अभी बहुत काम होना था। प्रिंसिपल साहब तो वैद्यजी पर पूरी तरह आश्रित थे, पर खन्ना मास्टर अभी उसी तरह रामाधीन के गुट पर आश्रित नहीं हो पाए थे। उन्हें खींचना बाक़ी था। लड़कों में भी अभी दोनों गुटों की हमदर्दी के आधार पर अलग–अलग गुट नहीं बने थे। उनमें आपसी गाली–गलौज और मारपीट होती तो थी, पर इन कार्यक्रमों को अभी तक उचित दिशा नहीं मिल पाती थी। गुटबन्दी के उद्देश्य से न होकर ये काम व्यक्तिगत कारणों से होते थे और इस तरह लड़कों की गुण्डागर्दी की शक्ति व्यक्तिगत स्वार्थों पर नष्ट होती जाती थी, उसका उपयोग राष्ट्र के सामूहिक हित में नहीं होता रहा था। गुटबन्दों को अभी इस दिशा में भी बहुत काम करना था।

  यह सही है कि वैद्यजी को छोड़कर कॉलिज के गुटबन्दों में अभी अनुभव की कमी थी। उनमें परिपक्वता नहीं थी, पर प्रतिभा थी। उसका चमत्कार साल में एकाध बार जब फूटता, तो उसकी लहर शहर तक पहुँचती। वहाँ कभी–कभी ऐसे दाँव भी चले जाते जो बड़े–बड़े पैदायशी गुटबन्दों को भी हैरानी में डाल देते। पिछले साल रामाधीन ने वैद्यजी पर एक ऐसा ही दाँव फेंका था। वह खाली गया, पर उसकी चर्चा दूर–दूर तक हुई। अख़बारों में ज़िक्र आ गया। उससे एक गुटबन्द इतना प्रभावित हुआ कि वह शहर से कॉलिज तक सिर्फ़ दोनों गुटों की पीठ ठोंकने को दौड़ा चला आया। वह एक सीनियर गुटबन्द था और अक्सर राजधानी में रहता था। पिछले चालीस साल से वह अपने चौबीसों घण्टे केवल गुटबन्दी के नाम अर्पित किये हुए था। उसकी ज़िन्
दगी ही गुटबन्दी का चलता–फिरता छोत बन गई थी। वह अखिल भारतीय स्तर का आदमी था और उसके बयान रोज़ अखबार में पहले पन्नों पर छपते थे, जिनमें देश–भक्ति और गुटबन्दी का अनोखा संगम होता था। उसके एक बार कॉलिज में आ चुकने के बाद लोगों को इत्मीनान हो गया था कि यहाँ अब कॉलिज भले ही खत्म हो जाय, गुटबन्दी खत्म नहीं होगी।

  सवाल है : गुटबन्दी क्यों थी ?

  यह पूछना वैसा ही है जैसे पानी क्यों बरसता है ? सत्य क्यों बोलना चाहिए ? वस्तु क्या है और ईश्वर क्या है ? वास्तव में यह एक सामाजिक मनोवैज्ञानिक यानी लगभग दार्शनिक सवाल है। इसका जवाब जानने के लिए दर्शन–शास्त्र जानने की ज़रूरत है और दर्शन–शास्त्र जानने के लिए हिन्दी का कवि या कहानीकार होने की ज़रूरत है।

  सभी जानते हैं कि हमारे कवि और कहानीकार वास्तव में दार्शनिक हैं और कविता या कथा–साहित्य तो वे सिर्फ़ यूँ ही लिखते हैं। किसी भी सुबुक–सुबुकवादी उपन्यास में पढ़ा जा सकता है कि नायक ने नायिका के जलते हुए होंठों पर होंठ रखे और कहा, ‘‘नहीं–नहीं निशी, मैं उसे नहीं स्वीकार कर सकता। वह मेरा सत्य नहीं है। वह तुम्हारा अपना सत्य है।’’

  निशी का ब्लाउज़ जिस्म से चूकर ज़मीन पर गिर जाता है। वह अस्फुट स्वर में कहती है, ‘‘निक्कू, क्या तुम्हारा सत्य मेरे सत्य से अलग है ?’’

  इसी को ‘ठाँय’ कहते हैं। इसी के साथ निशी और निक्कू फिलासफी की हज़ार मीटरवाली दौड़ पर निकल पड़ते हैं। अब निशी की ‘ब्रा’ भी ज़मीन पर गिर जाती है, निक्कू की टाई और कमीज़ हवा में उड़ जाती है। गिरते–पड़ते, एक–दूसरे पर लोटते– पोटते वे मैदान के दूसरे छोर पर लगे हुए फीते को सत्य समझकर किसी तरह यहाँ पहुँचते हैं; तब पता चलता है, वह सत्य नहीं है। फिर संयोग–श्रृंगार, जलते हुए होंठ। फिलासफी की मार। थोड़ी ही देर में वे मैदान छोड़कर जंगल में आ जाते हैं और पत्थरों से छिलते हुए, काँटों से बिंधे, नंगे बदन, झाँक–झाँककर प्रत्येक झाड़ी में देखते हैं और इस तरह नंगापन, सुबुक–सुबुक, चूमाचाटी, व्याख्यान आदि के माहौल में उस खरगोश का पीछा करते रहते हैं जिसका कि नाम सत्य है।

  यह फिलासफी लगभग सभी महत्त्वपूर्ण काव्यों और कथाओं में होती है और इसीलिए ठीक नहीं कि इस उपन्यास के पाठक भी काफ़ी देर से फिलासफी के एक लटके का इन्तज़ार कर रहे हों और सोच रहे हों, हिन्दी का यह उपन्यासकार इतनी देर से और सब तो कह रहा है, फिलासफी क्यों नहीं कहता ? क्या मामला है ? यह फ्रॉड तो नहीं है ?

  यह सही है कि ‘सत्य’ ‘अस्तित्व’ आदि शब्दों के आते ही हमारा कथाकार चिल्ला उठता है, ‘‘सुनो भाइयो, यह क़िस्सा-कहानी रोककर मैं थोड़ी देर के लिए तुमको फिलासफी पढ़ाता हूँ, ताकि तुम्हें यक़ीन हो जाय कि वास्तव में मैं फिलासफर था, पर बचपन के कुसंग के कारण यह उपन्यास (या कविता) लिख रहा हूँ। इसलिए हे भाइयो, लो, यह सोलह–पेजी फिलासफी का लटका; और अगर मेरी किताब पढ़ते–पढ़ते तुम्हें भ्रम हो गया हो कि मुझे औरों–जैसी फिलासफी नहीं आती, तो उस भ्रम को इस भ्रम से काट दो...।’’

  तात्पर्य यह है, क्योंकि फिलासफी बघारना प्रत्येक कवि और कथाकार के लिए अपने–आपमें एक ‘वैल्यू’ है, क्योंकि मैं कथाकार हूँ, क्योंकि ‘सत्य’, ‘अस्तित्व’ आदि की तरह ‘गुटबन्दी’–जैसे एक महत्त्वपूर्ण शब्द का ज़िक्र आ चुका है, इसीलिए सोलह पृष्ठ के लिए तो नहीं, पर एक–दो पृष्ठ के लिए अपनी कहानी रोककर मैं भी पाठकों से कहना चाहूँगा कि सुनो–सुनो हे भाइयो, वास्तव में तो मैं एक फिलासफर हूँ, पर बचपन के कुसंग के कारण...।

  वेदान्त के अनुसार–जिसका हवाला वैद्यजी आयुर्वेद के पर्याय के रूप में दिया करते थे– गुटबन्दी परात्मानुभूति की चरम दशा का एक नाम है। उसमें प्रत्येक ‘तू’, ‘मैं’ को और प्रत्येक ‘मैं’, ‘तू’–को अपने से ज़्यादा अच्छी स्थिति में देखता है। वह उस स्थिति को पकड़ना चाहता है। ‘मैं’ ‘तू’ और ‘तू’ ‘मैं’ को मिटाकर ‘मैं’ की जगह ‘तू’ और ‘तू’ की जगह ‘मैं’ बन जाना चाहता है।

  वेदान्त हमारी परम्परा है और चूँकि गुटबन्दी का अर्थ वेदान्त से खींचा जा सकता है, इसलिए गुटबन्दी भी हमारी परम्परा है, और दोनों हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ हैं। �
�ज़ादी मिलने के बाद हमने अपनी बहुत–सी सांस्कृतिक परम्पराओं को फिर से खोदकर निकाला है। तभी हम हवाई जहाज़ से यूरोप जाते हैं, पर यात्रा का प्रोग्राम ज्योतिषी से बनवाते हैं; फॉरेन ऐक्सचेंज और इनकमटैक्स की दिक्क़तें दूर करने के लिए बाबाओं का आशीर्वाद लेते हैं, स्कॉच व्हिस्की पीकर भगन्दर पालते हैं और इलाज के लिए योगाश्रमों में जाकर साँस फुलाते हैं, पेट सिकोड़ते हैं। उसी तरह विलायती तालीम में पाया हुआ जनतन्त्र स्वीकार करते हैं और उसको चलाने के लिए अपनी परम्परागत गुटबन्दी का सहारा लेते हैं। हमारे इतिहास में–चाहे युद्धकाल रहा हो, या शान्तिकाल– राजमहलों से लेकर खलिहानों तक गुटबन्दी द्वारा ‘मैं’ को ‘तू’ और ‘तू’ को ‘मैं’ बनाने की शानदार परम्परा रही है। अंग्रेज़ी राज में अंग्रेज़ों को बाहर भगाने के झंझट में कुछ दिनों के लिए हम उसे भूल गए थे। आज़ादी मिलने के बाद अपनी और परम्पराओं के साथ इसको भी हमने बढ़ावा दिया है। अब हम गुटबन्दी को तू–तू, मैं–मैं, लात–जूता साहित्य और कला आदि सभी पद्धतियों से आगे बढ़ा रहे हैं। यह हमारी सांस्कृतिक आस्था है। यह वेदान्त को जन्म देनेवाले देश की उपलब्धि है। यही, संक्षेप में, गुटबन्दी का दर्शन, इतिहास और भूगोल है।

 

‹ Prev