Rag Darbari

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Rag Darbari Page 23

by Shrilal Shukla


  इन मूल कारणों के साथ कॉलिज में गुटबन्दी का एक दूसरा कारण लोगों का यह विचार था कि कुछ होते रहना चाहिए। यहाँ सिनेमा नहीं है, होटल नहीं है, कॉफ़ी-हाउस नहीं, मारपीट, छुरेबाजी, सड़क की दुर्घटनाएँ, नये–नये फ़ैशनों की लड़कियाँ, नुमायशें, गाली–गलौजवाली सार्वजनिक सभाएँ—भी नहीं हैं। लोग कहाँ जाएँ ? क्या देखें ? क्या सुनें ? इसलिए कुछ होते रहना चाहिए।

  चार दिन हुए, कॉलिज में एक प्रेम–पत्र पकड़ा गया था जो एक लड़के ने लड़की को लिखा था। लड़के ने चालाकी दिखायी थी; पत्र पढ़ने से लगता था कि वह सवाल नहीं, लड़की के पत्र का जवाब है; पर चालाकी कारगर नहीं हुई। लड़का डाँटा गया, पीटा गया, कॉलिज से निकाला गया, फिर उसके बाप के इस आश्वासन पर कि लड़का दोबारा प्रेम न करेगा, और इस वादे पर कि कॉलिज के नये ब्लाक के लिए पचीस हज़ार ईंटें दे दी जाएँगी, कॉलिज में फिर से दाख़िल कर लिया गया। कुछ हुआ भी तो उसका असर चार दिन से ज़्यादा नहीं रहा। उससे पहले एक लड़के के पास देसी कारतूसी तमंचा बरामद हुआ था। तमंचा बिना कारतूस का था और इतना भोंडा बना था कि इस देश के लोहारों की कारीगरी पर रोना आता था। पर इन कमजोरियों के होते हुए भी कॉलिज में पुलिस आ गई और लड़के को और वैद्यजी का आदमी होने के बावजूद क्लर्क साहब को, लेकर थाने पर चली गई। लोग प्रतीक्षा करते रहे कि कुछ होनेवाला है और लगा कि चार–छ: दिन तक कुछ होता रहेगा। पर शाम तक पता चला कि जो निकला था वह तमंचा नहीं था, बल्कि लोहे का एक छोटा–सा टुकड़ा था, और क्लर्क साहब थाने पर पुलिस के कहने से नहीं बल्कि अपने मन से तफ़रीह करने के लिए चले गए थे और लड़का गुण्डागिरी नहीं कर रहा था बल्कि बाँसुरी बहुत अच्छी बजाता था। शाम को जब क्लर्क तफ़रीह करता हुआ और लड़का बाँसुरी बजाता हुआ थाने से बाहर निकला, तो लोगों की तबीयत गिर गई। वे समझ गए कि यह तो कुछ भी नहीं हुआ और उनके सामने फिर वही शाश्वत प्रश्न पैदा हो गया : अब क्या हो ?

  इस वातावरण में लोगों की निगाह प्रिंसिपल साहब और वैद्यजी पर पड़ी थी। वैद्यजी तो अपनी जगह मदनमोहन मालवीय–शैली की पगड़ी बाँधे हुए इत्मीनान से बैठे थे, पर प्रिंसिपल साहब को देखकर लगता था कि वे बिना किसी सहारे के बिजली के खम्भे पर चढ़े हुए और दूर से ही किसी को देखकर चीख़ रहे हैं : ‘देखो, देखो, वह कोई शरारत करना चाहता है।’ उनकी निगाह में सन्देह था और अपनी जगह पर चिपके हुए प्रत्येक भारतवासी का यह भय था कि कोई हमें खींचकर हटा न दे। लोग कमज़ोरी ताड़ गए और उनको, और उसी लपेट में वैद्यजी को लुलुहाने लगे। उधर वे लोग भी मार न पड़ जाए, इस डर से पहले ही मारने पर आमादा हो गए।

  उन्हीं दिनों एक दिन खन्ना मास्टर को किसी ने बताया कि हर कॉलिज में एक प्रिंसिपल और एक वाइस-प्रिंसिपल होता है। वे इतिहास पढ़ाते थे और कॉलिज के सबसे बड़े लेक्चरार थे। इसी धोखे में वे एक दिन वैद्यजी से कह आए कि उन्हें वाइस-प्रिंसिपल बनाया जाना चाहिए। वैद्यजी ने सिर हिलाकर कहा कि यह एक नवीन विचार है, नवयुवकों को नवीन चिन्तन करते ही रहना चाहिए, उनके प्रत्येक नवीन विचार का मैं स्वागत करता हूँ, पर यह प्रश्न प्रबन्ध–समिति के देखने का है, उसकी अगली बैठक में यदि यह प्रश्न आया तो इस पर समुचित विचार किया जाएगा। खन्ना मास्टर ने यह नहीं सोचा कि प्रबन्ध–समिति की अगली बैठक कभी नहीं होती। उन्होंने तत्काल वाइस–प्रिंसिपल का पद पाने के लिए एक दरख़्वास्त लिखी और प्रिंसिपल को इस प्रार्थना के साथ दे दी कि इसे प्रबन्ध–समिति की अगली बैठक में पेश कर दिया जाए।

  प्रिंसिपल साहब खन्ना मास्टर की इस हरकत पर हैरान रह गए। उन्होंने वैद्यजी से जाकर पूछा, ‘‘खन्ना को यह दरख़्वास्त देने की सलाह आपने दी है ?’’

  इसका उत्तर वैद्यजी ने तीन शब्दों में दिया, ‘‘अभी नवयुवक हैं।’’

  इसके बाद कुछ दिनों तक प्रिंसिपल साहब शिवपालगंज के रास्ते पर मिलनेवाले हर आदमी से प्राणिशास्त्र का यह तथ्य बताते रहे कि आजकल के लोग न जाने कैसे हो गए हैं। खन्ना मास्टर की इस हरकत का वर्णन वे ‘मुँह में राम बग़ल में छुरी,’ ‘हमारी ही पाली लोमड़ी, हमारे ही घर में हुआ–हुआ’ (यद्यपि लोमड़ी ‘हुआ–हुआ’ नहीं करती), ‘पीठ मे�
� छुरा भोंकना’, ‘मेंढक को जुकाम हुआ है’ जैसी कहावतों के सहारे करते रहे। एक दिन उन्होंने चौराहे पर खड़े होकर प्रतीकवादी ढंग से कहा, ‘‘एक दिन किसी घोड़े के सुम में नाल ठोंकी जा रही थी। उसे देखकर एक मेंढक को शौक चर्राया कि हम भी नाल ठुकायेंगे। बहुत कहने पर नालवाले ने मेंढक के पैर में ज़रा–सी कील ठोंक दी। बस, मेंढक भाई वहीं ढेर हो गए। शौकीनी का नतीजा बुरा होता है।’’

  इस पंचतन्त्र के पीछे वही भय था : आज जो वाइस-प्रिंसिपल होना चाहता है वह कल प्रिंसिपल चाहेगा। इसके लिए वह प्रबन्ध–समिति के मेम्बरों को अपनी ओर तोड़ेगा। मास्टरों का गुट बनाएगा। लड़कों को मारपीट के लिए उकसाएगा। ऊपर शिकायतें भिजवाएगा। वह कमीना है और कमीना रहेगा।

  सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से,

  कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से।

  इस कविता को ऊपर दर्ज करके रामाधीन भीखमखेड़वी ने वैद्यजी को जो पत्र लिखा था, उसका आशय था कि प्रबन्ध–समिति की बैठक, जो पिछले तीन साल से नहीं हुई है, दस दिन में बुलायी जानी चाहिए और कॉलिज की साधारण समिति की सालाना बैठक–जो कि कॉलिज की स्थापना के साल से अब तक नहीं हुई है–के बारे में वहाँ विचार होना चाहिए। उन्होंने विचारणीय विषयों में वाइस-प्रिंसिपल की तक़र्रुरी का भी हवाला दिया था।

  प्रिंसिपल साहब जब यह पत्र अपनी जेब में डालकर वैद्यजी के घर से बाहर निकले तो उन्हें अचानक उससे गर्मी–सी निकलती महसूस हुई। उन्हें जान पड़ा कि उनकी कमीज झुलस रही है और गर्मी की धाराएँ कई दिशाओं में बहने लगी हैं। एक धारा उनके कोट को झुलसाने लगी, दूसरी कमीज के नीचे से निकलकर उनकी पैण्ट के अन्दर घुस गई और उसके कारण उनके पैर तेज़ी से बढ़ने लगे। एक तीसरी धारा उनके आँख, कान और नाक पर लाल पालिश चढ़ाती हुई खोपड़ी के उस गड्ढे की ओर बढ़ने लगी जहाँ कुछ आदमियों के दिमाग हुआ करता है।

  कॉलिज के फाटक पर ही उन्हें रुप्पन बाबू मिल गए और उन्होंने रुककर कहना शुरू किया, ‘‘देख लिया तुमने ? खन्ना रामाधीन का खूँटा पकड़कर बैठे हैं। वाइस– प्रिंसिपली का शौक चर्राया है। एक बार एक मेंढक ने देखा कि घोड़े के नाल ठोंकी जा रही है तो उसने भी...’’

  रुप्पन बाबू कॉलिज छोड़कर कहीं बाहर जा रहे थे और जल्दी में थे। बोले, ‘‘जानता हूँ। मेंढकवाला किस्सा यहाँ सभी को मालूम है। पर मैं आपसे एक बात साफ़-साफ़ बता दूँ। खन्ना से मुझे हमदर्दी नहीं है, पर मैं समझता हूँ कि यहाँ एक वाइस-प्रिंसिपल का होना ज़रूरी है। आप नहीं रहते तो यहाँ सभी मास्टर कुत्तो–बिल्लियों की तरह लड़ते हैं। टीचर्स–रूम में वह गुण्डागर्दी होती है कि क्या बतायें। वही हें–हें, ठें–ठें, फें–फें।’’ वे गम्भीर हो गए और आदेश के ढंग से कहने लगे, “ प्रिंसिपल साहब, मैं समझता हूँ कि हमारे यहाँ एक वाइस-प्रिंसिपल भी होना चाहिए। खन्ना सबसे ज्यादा सीनियर हैं। उन्हीं को बन जाने दीजिए। सिर्फ़ नाम की बात है, तनख़्वाह तो बढ़नी नहीं है।’’

  प्रिंसिपल साहब का दिल इतने ज़ोर से धड़का कि लगा, उछलकर फेफड़े में घुस जाएगा। वे बोले, ‘‘ऐसी बात अब कभी भूलकर भी न कहना रुप्पन बाबू ! ये खन्ना– वन्ना चिल्लाने लगेंगे कि तुम उनके साथ हो। यह शिवपालगंज है। मज़ाक में भी सोचकर बोलना चाहिए।’’

  ‘‘मैं तो सच्ची बात कहता हूँ। खै़र, देखा जाएगा।’’ कहते–कहते रुप्पन बाबू आगे बढ़ गए।

  प्रिंसिपल साहब तेज़ी से अपने कमरे में आ गए। ठण्डक थी, पर उन्होंने कोट उतार दिया। शिक्षा–सम्बन्धी सामानों की सप्लाई करनेवाली किसी दुकान का एक कैलेण्डर ठीक उनकी नाक के सामने दीवार पर टँगा हुआ था जिसमें नंगे बदन पर लगभग एक पारदर्शक साड़ी लपेटे हुए कोई फिल्म–एक्ट्रैस एक आदमी की ओर लड्‌डू–जैसा बढ़ा रही थी। आदमी चेहरे पर बड़े–बड़े बाल बढ़ाये हुए, एक हाथ आँखों के सामने उठाये, ऐसा मुँह बना रहा था जैसे लड्डू खाकर उसे अपच हो गया हो। ये मेनका और विश्वामित्र थे। वे इन्हीं को थोड़ी देर देखते रहे, फिर घण्टी बजाने की जगह ज़ोर से चिल्लाकर उन्होंने चपरासी को बुलाया और कहा, ‘‘खन्ना को बुलाओ।’’

  चपरासी ने रहस्य के स्वर में कहा, “ फ़ील्ड की तरफ़ गए हैं। म
ालवीयजी साथ में हैं।’’

  प्रिंसिपल ने उकताकर सामने रखे हुए क़लमदान को घसीटकर दूर रख दिया। क़लमदान भी नमूने के तौर पर किसी ऐजुकेशन एम्पोरियम से मुफ़्त में मिला था और जिस तरह प्रिंसिपल साहब ने उसे दूर पर पटका था, उससे लगता था, उस साल एम्पोरियम का कोई भी माल कॉलिज में नहीं खरीदा जाएगा। पर प्रिंसिपल साहब का मतलब यह नहीं था; वे इस वक़्त चपरासी को सिर्फ़ यह बताना चाहते थे कि वे उसकी खुफ़िया रिपोर्ट अभी सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने कड़ककर कहा, ‘‘मैं कहता हूँ, खन्ना को इसी वक्त बुलाओ।’’

 

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