वैसे तो वे, जैसा कि आगे मालूम होगा, बहुत कुछ थे, पर प्रकट रूप में वे ज़िलाबोर्ड के सैनिटरी इन्स्पेक्टर थे। होने को तो वे बहुत कुछ हो सकते थे, पर सैनिटरी इन्स्पेक्टर हो चुकने के बाद उन्होंने, बहुत ही उचित कारणों से, सन्तोष की फिलासफ़ी अपना ली थी। वे जहाँ तैनात थे, वहाँ शिवपालगंज ही प्रगतिशील था, बाक़ी सब पिछड़ा इलाका था। वहाँ के सभी निवासी जानते थे कि अगर उनका पिछड़ापन छीन लिया गया तो उनके पास कुछ और न रह जाएगा। ज़्यादातर किसी से मिलते ही वे गर्व से कहते थे कि साहब, हम तो पिछड़े हुए क्षेत्र के निवासी हैं। इसी से वे इन्स्पेक्टर साहब पर भी गर्व करते थे। इन्स्पेक्टर साहब उस क्षेत्र में चालीस साल से तैनात थे, और उनके वहाँ होने की ज़रूरत आज भी वैसी ही थी जैसी कि चालीस साल पहले थी।
सैनिटरी इन्स्पेक्टर को कई तरह के काम करने पड़ते हैं। वे भी जेब में ‘लैक्टोमीटर’ डालकर घूमते और राजहंसों की तरह नीर–क्षीर–विवेक करते हुए नीर–क्षीर में भेद न करनेवाले ग्वालों के मोती चुगा करते। छूत की बीमारियों के वे इतने बड़े विशेषज्ञ थे कि किसी के मरने की ख़बर पढ़कर महज़ अख़बार सूँघकर बता देते थे कि मौत कालरा से हुई थी या ‘गैस्ट्रोइन–ट्राइटिस’ से। वास्तव में उनका जवाब ज़्यादातर एक–सा होता था। इस देश में जैसे भुखमरी से किसी की मौत नहीं होती, वैसे ही छूत की बीमारियों से भी कोई नहीं मरता। लोग यों ही मर जाते हैं और झूठ–मूठ बेचारी बीमारियों का नाम लगा देते हैं। उनके जवाब का कुछ ऐसा ही मतलब होता था। वेश्याओं और साधुओं की तरह नौकरीपेशावालों की उमर के बारे में भी कुछ कहा नहीं जा सकता; पर इन्स्पेक्टर साहब को खुद अपनी उमर के बारे में कुछ कहने में कोई संकोच न था। उनकी असली उमर बासठ साल थी, काग़ज़ पर उनसठ साल थी और देखने में लगभग पचास साल थी। अपनी उमर के बारे में वे ऐसी बेतक़ल्लुफी से बात करते थे, जैसे वह मौसम हो। वे सीधे–सादे परोपकारी क़िस्म के घरेलू आदमी थे, और नमस्कार के फौरन बाद बिना किसी प्रसंग के बताते कि उनका भतीजा ही आजकल बोर्ड का चेयरमैन है, उसके बाद ही एक किस्सा शुरू हो जाता, जिसके आरम्भ के बोल थे, ‘‘भतीजा जब बोर्ड का चेयरमैन हुआ तो हमने कहा कि...।’’
यह क़िस्सा पूरे क्षेत्र में दूध मिले–हुए–पानी की तरह व्यापक हो चुका था। किसी भी जगह सुना जा सकता था कि ‘‘भतीजा जब बोर्ड का चेयरमैन हुआ तो हमने कहा कि बेटा, हम बहुत हुकूमत कर चुके, अब हमको रिटायर हो जाने दो। अपनी मातहती न कराओ। पर कौन सुनता है आजकल हम बुजुर्गों की ! सभी मेम्बर पहले ही चिल्ला पड़े कि वाह, यह भी कोई बात हुई ! भतीजा बड़ा आदमी हो जाए तो चाचा को इसकी सज़ा क्यों मिले? देखें, आप कैसे रिटायर हो जाएँगे ! बस, तभी से दोनों तरफ़ बात–पर–बात अड़ी है। पिछले तीन साल से हम हर साल रिटायर होने की दरख़्वास्त देते हैं और उस तरफ़ से मेम्बर लोग हर साल उसे ख़ारिज कर देते हैं। अभी यही क़िस्सा चल रहा है।’’
इस लत के साथ उन्हें एक दूसरी भी लत पड़ गई थी। उन दिनों वे रोज़ स्टेशन पर शहर से आनेवाली गाड़ी देखने लगे थे। गाड़ी आने के पहले और बाद वे प्लेटफ़ार्म पर नियमित रूप से टहलते बनाने और अपने को दिखाने के लिए।
स्टेशन–मास्टर ड्यूटी करता रहता था। वे टहलते–टहलते उसके पास पहुँच जाते और कुल्हड़–जैसी हैट सिर पर रखे हुए, कुर्सी पर बैठ जाते। फिर पूछते, ‘‘बाबूजी, पैसेंजर गाड़ी कब आ रही है ?’’
स्टेशन–मास्टर उन्हें बहुत दिन देख चुका था, उसे कुछ और देखना बाक़ी न था। रजिस्टर पर निगाह झुकाए हुए वह कहता, ‘‘जी, आधा घण्टा लेट है।’’
वे कुछ देर चुप रहते। फिर कहते, ‘‘क्या हाल–चाल हैं बच्चों के ?’’
‘‘जी, भगवान् की दया है।’’
वे मासूमियत के साथ पूछते, ‘‘आपका भतीजा भी तो रहता था आपके साथ ?’’
‘‘जी हाँ, भगवान् की दया है। अच्छा लग गया। टिकट–कलेक्टर हो गया।’’
वे जवाब देते, ‘‘अपना भतीजा भी अच्छा लग गया। पहले तो जब वह वालण्टियर था, लोग हँसी उड़ाते थे, आवारा कहते थे।’’
कुछ देर बाद इन्स्पेक्टर साहब हँसते। कहते, ‘‘अब तो मैं उसी का मातहत हूँ। रिटायर होना चाहता हूँ, पर वह होने ही नहीं देता।’’
स्टेशन–मास्टर रजिस्टर देखता रहता। वे दोहराते, ‘‘तीन साल से ऐसे ही खिंच रहा है। मैं नौकरी से अलग होना चाहता हूँ, वह कहता है कि तजुर्बेकार आदमियों की कमी है, आप क्या ग़ज़ब कर रहे हैं।’’
स्टेशन–मास्टर कहता, ‘‘बड़े–बड़े नेताओंवाला हाल है। वे भी बार–बार रिटायर होना चाहते हैं, पर उनके साथवाले उन्हें छोड़ते ही नहीं।’’
वे दोबारा हँसते। कहते, ‘‘बिलकुल वही हाल है। फ़र्क़ यही है कि मुझे रोकनेवाला मुझसे बहुत ऊँचा बैठा है। उनको रोकनेवाले उनसे बहुत नीचे हैं।’’ वे ज़ोर से हँसने लगते। स्टेशन–मास्टर रजिस्टर के पन्ने पलटने लगता।
कुछ दिनों बाद सैनिटरी इन्स्पेक्टर साहब को अनुभव हुआ कि स्टेशन–मास्टर अपने काम में कुछ ज़्यादा दिलचस्पी ले रहा है। वे जब आकर कुर्सी पर बैठते तो वह भौंहों में बल डालकर रजिस्टर को बड़े ग़ौर से देखता हुआ पाया जाता। कभी–कभी वह पेंसिल से एक काग़ज़ पर जोड़-बाक़ी-सी लगाता। रजिस्टर तो वह पहले भी पढ़ता था पर भौंहों के बीच शिकन और पेंसिल का इस्तेमाल बिलकुल नयी चीजे़ं थीं, जिससे प्रकट था कि स्टेशन–मास्टर अपने काम में बुरी तरह फँस गया है। उन दिनों सवाल–जवाब कुछ इस तरह चलता–
‘‘आजकल शायद आपके पास बहुत काम है ?’’
‘‘हूँ।’’
‘‘और क्या हाल–चाल हैं ?’’
‘‘ठीक हैं।’’
‘‘गाड़ी कब आ रही है ?’’
‘‘राइट टाइम।’’
‘‘आपका भतीजा तो लखनऊ में ही है न ?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘अपना भतीजा तो आजकल...’’
‘‘हूँ।’’
‘‘रिटायर ही नहीं होने देता।’’
‘‘हूँ।’’
‘‘चेयरमैन है।’’
‘‘हूँ।’’
इन्स्पेक्टर साहब स्टेशन–मास्टर के आचरण का अध:पतन बड़े ग़ौर से देख रहे थे। हालत दिन–पर–दिन गिर रही थी। जैसे ही वे सिर पर कुल्हड़–जैसी हैट लगाए हुए उसके सामने आकर कुर्सी पर बैठ जाते, वे देखते कि रजिस्टर पर उसकी आँखें टपककर गिरने ही वाली हैं। कभी–कभी वह उनके सवाल अनसुने कर जाता। इन्स्पेक्टर साहब सोचते कि सरकारी नौकरी करके भी अगर काम करना पड़ा, तो ऐसी ज़िन्दगी पर लानत है।
अचानक एक दिन उनकी गाड़ी देखने की लत ख़त्म हो गई।
वे उस दिन रोज़ की तरह स्टेशन पर आए और स्टेशन–मास्टर के पास आकर बैठ गए। आज वह रजिस्टर पर पेंसिल से नहीं, बल्कि क़लम से कुछ लिख रहा था। उसकी भौंहों से लगता था कि काम के साथ ही वह खुद भी ख़त्म होनेवाला है। इन्स्पेक्टर साहब ने शुरू किया, ‘‘आजकल आपके पास काम बहुत है।’’
‘‘जी हाँ।’’ उसने अचानक ज़ोर से कहा।
वे कुछ झिझक–से गए। फिर धीरे–से बोले, ‘‘पैसेंजर गाड़ी...’’
इस बार स्टेशन–मास्टर ने क़लम रोक दी। उनकी ओर सीधे देखते हुए उसने सधी आवाज़ में कहा, ‘‘पैसेंजर गाड़ी पौन घण्टा लेट है, और आपका भतीजा बोर्ड का चेयरमैन है। अब बताइए, इसके बाद आपको क्या कहना है ?’’
इस्पेक्टर साहब कुछ देर मेज़ की ओर देखते रहे। फिर उठकर धीरे–से चल दिए।
एक प्वाइण्टमैन बोला, ‘‘क्या हुआ साहब ?’’
‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं,’’ वे बोले, ‘‘साहब के पास काम बहुत है। हमारा भतीजा भी आजकल इसी तरह झुँझलाया करता है। बड़ा काम है।’’
आज जोगनाथ मेले में रुप्पन बाबू के साथ एक वजह से आया था। उसे डर था कि अकेले रहने से पुलिस उसे छेड़ने लगेगी और कहीं ऐसा न हो कि उसे अपनी मुहब्बत में एकदम से जकड़ ले।
वे लोग मेले की धज में निकले हुए थे। रुप्पन बाबू ने कमीज़ के कालर के नीचे एकदम नया रेशमी रूमाल बाँध लिया था और केवल सौन्दर्य बढ़ाने के उद्देश्य से आँख पर काला चश्मा लगा लिया था। सनीचर ने अण्डरवियर के ऊपर घर की बनी जालीदार सूती बनियान पहन ली थी जो अण्डरवियर तक आने के डेढ़ इंच पहले ही ख़त्म हो गई थी। छोटे पहलवान ने लँगोट की पट्टी को आज हाथी की सूँड की तरह नीचे नहीं लटकने दिया था, बल्कि उसे इतनी मज़बूती से पीछे ले जाकर बाँधा था कि पट्टी का वह दूसरा सिरा लँगोट के तार–तार हो जाने पर भी उनके पीछे दुम की तरह ही चिपका रहे। यही नहीं, उन्होंने आज बिना बनियान का एक पारदर्शी कुरता और एक पारदर्शी मारकीन का अँगोछा लुंगी के रूप में पहन लिया था।
जो�
�नाथ रुप्पन बाबू से सटकर चल रहा था। वह एक दुबला–पतला नौजवान था। उसे देखते ही शिवपालगंज के पुराने आदमी आह–सी भरकर कहते थे, ‘‘जोगनथवा को देखकर अजुध्या महाराज की याद आती है।’’ अजुध्या महाराज अपने ज़माने के सबसे बड़े ठग थे और दूर–दूर से लोग उनके पास चालाकी सीखने के लिए आते थे। जोगनाथ से लोगों को आशा थी कि कुछ दिनों में उसके सहारे इतिहास अपने–आपको दोहराएगा।
जिस दिन गाँव में चोर आए थे, उस दिन से जोगनाथ को लोग कुछ दूसरे ढंग से देखने लगे थे। गयादीन के यहाँ चोरी हो जाने के बाद जोगनाथ को कुछ ऐसा जान पड़ने लगा था कि उसे पहले से ज़्यादा इज़्ज़त मिल रही है। आम के बागों में, जहाँ चरवाहे कौड़ियों से जुआ खेल रहे होते, जोगनाथ के पहुँचते ही लोग निगाह बचाकर अपने पैसे पहले टेंट में रख लेते और तब उसे बैठने को कहते। बाबू रामाधीन के दरवाज़े पर भंग–पार्टी के बीच जोगनाथ की पीठ पर न जाने कितने स्नेह–भरे हाथ फिरने लगे थे।
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