Rag Darbari

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Rag Darbari Page 32

by Shrilal Shukla


  रंगनाथ ने कहा, ‘‘ठीक है। मुझे भी यह तरकीब लोमड़ी और सारस की कथा में समझाई गई थी।’’

  वैद्यजी ने सनीचर से कहा, ‘‘तो ठीक है। जाओ देखो, कहीं सचमुच ही तो उस मूर्ख ने भंग को हल्दी–जैसा नहीं पीस दिया है। जाओ, तुम्हारा हाथ लगे बिना रंग नहीं आता।’’

  बद्री पहलवान मुस्कराकर दरवाज़े पर से बोला, ‘‘जाओ साले, फिर वही भंग घोंटो !’’

  कुछ देर सन्नाटा रहा। प्रिंसिपल ने धीरे–से कहा, “ आज्ञा हो तो एक बात खन्ना मास्टर के बारे में कहूँ।’’

  वैद्यजी ने भौंहें मत्थे पर चढ़ा लीं। आज्ञा मिल गई। प्रिंसिपल ने कहा, ‘‘एक घटना घटी है। परसों शाम के वक़्त गयादीन के आँगन में एक ढेला–जैसा गिरा। गयादीन उस समय दिशा–मैदान के लिए बाहर गया हुआ था। घर में उस ढेले को बेला की बुआ ने देखा और उठाया। वह एक मुड़ा हुआ लिफ़ाफ़ा था। बुआ ने बेला से उसे पढ़वाकर सुनना चाहा, पर बेला पढ़ नहीं पायी।...’’

  रंगनाथ बड़े ध्यान से सुन रहा था। उसने पूछा, ‘‘अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था क्या?’’

  ‘‘अंग्रेज़ी में कोई क्या लिखेगा ! था तो हिन्दी में ही, पर कुँवारी लड़की उसे पढ़ती कैसे ? वह एक प्रेम–पत्र था।’’

  वैद्यजी चुपचाप सुन रहे थे। रंगनाथ की हिम्मत न पड़ी कि पूछे, पत्र किसने लिखा था।

  प्रिंसिपल बोले, ‘‘पता नहीं, किसने लिखा था। मुझे तो लगता है कि खन्ना मास्टर के ही गुटवालों की हरकत है। गुण्डे हैं साले, गुण्डे। पर खन्ना मास्टर आपके ख़िलाफ़ प्रचार कर रहा है। कहता है कि वह पत्र रुप्पन बाबू ने भेजा है। अब उसकी यह हिम्मत कि आपके वंश को कलंकित करे।’’

  वैद्यजी पर इसका कोई असर नहीं दीख पड़ा, सिवाय इसके कि वे एक मिनट तक चुप बैठे रहे। फिर बोले, ‘‘वह मेरे वंश को क्या खाकर कलंकित करेगा ! कलंकित तो वह गयादीन के वंश को कर रहा है–कन्या तो उन्हीं की है।’’

  प्रिंसिपल साहब थोड़ी देर वैद्यजी का मुँह देखते रहे। पर उनका चेहरा बिलकुल रिटायर हो चुका था। घबराहट में प्रिंसिपल साहब लुढ़ककर अवधी के फ़र्श पर आ गिरे। दूसरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘लाव भइया सनीचर, जल्दी से ठंडाई–फंडाई लै आव। कॉलिज माँ लेबर छूटै का समय ह्‌वइ रहा है।’’

  14

  कार्तिक-पूर्णिमा को शिवपालगंज से लगभग पाँच मील की दूरी पर एक मेला लगता है। वहाँ जंगल है, एक टीला है, उस पर देवी का एक मन्दिर है और चारों ओर बिखरी हुई किसी पुरानी इमारत की ईंटें हैं। जंगल में करौंदे, मकोय और बेर के झाड़ हैं और ऊँची–नीची ज़मीन है। खरगोश से लेकर भेड़िये तक, भुट्टाचोरों से लेकर डकैत तक, इस जंगल में आसानी से छिपे रहते हैं। नज़दीक के गाँवों में जो प्रेम–सम्बन्ध आत्मा के स्तर पर क़ायम होते हैं उनकी व्याख्या इस जंगल में शरीर के स्तर पर होती है। शहर से भी यहाँ कभी पिकनिक करनेवालों के जोड़े घूमने के लिए आते हैं और एक–दूसरे को अपना क्रियात्मक ज्ञान दिखाकर और कभी–कभी लगे–हाथ मन्दिर में दर्शन करके, सिकुड़ता हुआ तन और फूलता हुआ मन लेकर वापस चले जाते हैं।

  इस क्षेत्र के रहनेवालों को इस टीले का बड़ा अभिमान है क्योंकि यही उनका अजन्ता, एलोरा, खजुराहो और महाबलिपुरम् है। उन्हें यक़ीन है कि यह मन्दिर देवासुर–संग्राम के बाद देवताओं ने अपने हाथ से देवी के रहने के लिए बनाया था। टीले के बारे में उनका कहना है कि उसके नीचे बहुत बड़ा ख़ज़ाना गड़ा हुआ है। इस तरह अर्थ, धर्म और इतिहास के हिसाब से यह टीला बहुत महत्त्व का है।

  इतिहास और पुरातत्त्व जानने के कारण रंगनाथ की बड़ी इच्छा थी कि वह इस टीले का सर्वेक्षण करे। उसे बताया गया था कि वहाँ की मूर्तियाँ गुप्तकालीन हैं और मिट्टी के बहुत–से ठीकरे, जिन्हें ‘टेराकोटा’ कहा जाता है, मौर्यकालीन हैं।

  अवधी के कवि स्व. पढ़ीस की एक रचना है–

  माला–मदार माँ मुँह खोलि कै सिन्नी बाँटनि,

  ससुर का देखि कै घूँघट निकसा डेढ़हत्था।

  खड़ी बोली में इसका रूपान्तर यों हो सकता है–

  मेले–ठेले में तो मुँह खोल के सिन्नी बाँटी,

  ससुर को देख के घूँघट खींचा मीटर–भर।

  वे सब मेले में जा रही थीं। भारतीय नारीत्व इस समय फनफनाकर अपने खोल के बाहर आ गया था। वे बड़
ी तेज़ी से आगे बढ़ रही थीं, मुँह पर न घूँघट था, न लगाम थी। फेफड़े, गले और ज़बान को चीरती हुई आवाज़ में वे चीख रही थीं और एक ऐसी चिचियाहट निकाल रही थीं जिसे शहराती विद्वान् और रेडियो–विभाग के नौकर ग्राम–गीत कहते हैं।

  औरतों के झुण्ड–के–झुण्ड इसी तरह निकलते चले जा रहे थे। रुप्पन बाबू, रंगनाथ, सनीचर और जोगनाथ मेले के रास्ते से हटकर एक सँकरी–सी पगडण्डी पर चलने लगे थे। औरतों के कई रेले जब देखते–देखते आगे निकल गए तो छोटे पहलवान ने कहा, ‘‘सब इस तरह चिंघाड़ रही हैं जैसे कोई बर्छी खोंसे दे रहा हो।’’

  सनीचर ने बताया, ‘‘मेला है।’’

  औरतों के आगे–पीछे बच्चे और मर्द। सब उसी तरह धूल का बवण्डर उड़ाते हुए तेज़ी से बढ़े जा रहे थे। बैलगाड़ियाँ आश्चर्यजनक ढंग से अपने लिए रास्ता निकालती हुई दौड़ की प्रतियोगिता कर रही थीं। पैदल चलनेवाले उससे भी ज़्यादा आश्चर्यजनक ढंग से अपने को उनकी चपेट से बचाए हुए थे और साबित कर रहे थे कि शहर के चौराहों पर सभी मोटरें आमने–सामने से लड़कर अगर चकनाचूर नहीं होतीं तो उनसे पुलिस की खूबी नहीं साबित होती, बल्कि यही साबित होता है कि लोगों को आत्मरक्षा का शौक है। यानी जो प्रवृत्ति बिना पुलिस की मदद के जंगल में खरगोश को खूँखार जानवरों से बचाती है, या शहर में पैदल चलनेवालों को ट्रक–ड्राइवरों के बावजूद ज़िन्दा रखती है, वही मेला जानेवालों की रक्षा बैलगाड़ियों की चपेट से कर रही थी।

  मेले का जोश बुलन्दी पर था और अॉल इण्डिया रेडियो अगर इस पर रनिंग कमेण्ट्री देता तो यह ज़रूर साबित कर देता कि पंचवर्षीय योजनाओं के कारण लोग बहुत खुशहाल हैं और गाते–बजाते, एक–दूसरे पर प्रेम और आनन्द की वर्षा करते वे मेला देखने जा रहे हैं। पर रंगनाथ को गाँव में आए हुए लगभग डेढ़ महीना हो गया था। उसकी समझ में इतना आ गया था कि बनियान और अण्डरवियर पहननेवाला सनीचर सिर्फ़ हँसने की खूबी के कारण ही बिड़ला और डालमिया से बड़ा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हँसना कोई बड़ी बात नहीं है। जिस किसी का हाज़मा ठीक है वह हँसने के लिए नौकर रखा जा सकता है, और यही बात गाने पर भी लागू है।

  रंगनाथ ने मेले को ग़ौर से देखना शुरू किया और देखते ही इस जोशोख़रोश की पोल खुल गई। जाड़ा शुरू हो जाने पर भी उसे किसी की देह पर ऊनी कोट नहीं दीख पड़ा। कुछ बच्चे एकाध फटे स्वेटर पहने हुए ज़रूर नज़र आए; औरतें रंगीन, पर सस्ती सिल्क की साड़ियों में लिपटी दीख पड़ीं; पर ज़्यादातर सभी नंगे पाँव थीं और मर्दों की हालत का तो कहना ही क्या; हिन्दुस्तानी छैला, आधा उजला आधा मैला।

  यह सब देखने और समझने के मुक़ाबले पुरातत्त्व पढ़ना बड़ा सुन्दर व्यवसाय है–उसने अपने-आपको चिढ़ाते हुए सोचा और रुप्पन बाबू की ओर सिर घुमा दिया।

  रुप्पन बाबू ने शोर मचाकर तीन साइकिल–सवारों को नीचे उतार लिया। भीड़ से बचकर वे गलियारे के किनारे अपनी साइकिलें सँभालकर खड़े हो गए। एक आदमी, जो इन तीनों का सरदार–जैसा दीखता था, सिर से एक बदरंग हैट उतारकर मुँह पर हवा करने लगा। ठण्डक थी, पर उसके माथे पर पसीना आ गया था। वह हाफ़ पैन्ट, कमीज़ और खुले गले का कोट पहने था। हाफ़ पैन्ट बाहर निकले हुए पेट पर से खिसक न जाए, इसलिए उसे पेटी से काफ़ी कसकर बाँधा गया था और इस तरह पेट का क्षेत्रफल दो भागों में लगभग बराबर–बराबर बँट चुका था। सरदार के दोनों साथी धोती–कुरता– टोपीवाले आदमी थे और शक्ल से बदतमीज़ दिखने के बावजूद अपने सरदार से बड़ी तमीज़ के साथ पेश आ रहे थे।

  ‘‘आज तो मेले में चारों तरफ़ रुपया–ही–रुपया होगा साहब !’’ रुप्पन बाबू ने हँसकर उस आदमी को ललकारा। उस आदमी ने आँख मूँदकर सिर हिलाते हुए समझदारी से कहा, ‘‘होगा, पर अब रुपये की कोई वैल्यू नहीं रही रुप्पन बाबू !’’

  रुप्पन बाबू ने उस आदमी से कुछ और बातें कीं जिनका सम्बन्ध मिठाइयों से और विशेषत: खोये से था। अचानक उस आदमी ने रुप्पन बाबू की बात सुननी बन्द कर दी। बोला, ‘‘ठहरिए रुप्पन बाबू !’’ कहकर उसने साइकिल अपने एक साथी को पकड़ाई, हैट दूसरे साथी को और मोटी–मोटी टाँगों से आड़ा–तिरछा चलता हुआ पास के अरहर के खेत में पहुँच गया। बिना इस बात का लिहाज़ किए हुए �
�ि कई लोग खेत के बीच की पगडण्डी से निकल रहे हैं और अरहर के पौधे काफ़ी घने नहीं हैं, वह दौड़ने की कोशिश में फँस गया। बड़ी मुश्किल से कोट और कमीज़ के बटन खोलकर उसने अन्दर से जनेऊ खींचा। जब वह काफ़ी न खिंच पाया तो उसने गर्दन एक ओर झुकाकर किसी तरह जनेऊ का एक अंश कान पर उलझा लिया; फिर कसी हुई हाफ़ पैन्ट से संघर्ष करता हुआ, किसी तरह घुटनों पर झुककर, अरहर के खेत में पानी की धार गिराने लगा।

  रंगनाथ को तब तक पता चल चुका था कि हैटवाले आदमी का नाम ‘सिंह साहब’ है। वे इस हलक़े के सैनिटरी इन्स्पेक्टर हैं। यह भी मालूम हुआ कि उनकी साइकिल पकड़कर खड़ा होनेवाला आदमी ज़िलाबोर्ड का मेम्बर है और हैट पकड़कर खड़ा होनेवाला आदमी उसी बोर्ड का टैक्स–कलेक्टर है।

  इन्स्पेक्टर साहब के लौट आने पर काफ़ी देर बातचीत होती रही, पर इस बात का विषय मिठाई नहीं, बल्कि ज़िलाबोर्ड के चेयरमैन, इन्स्पेक्टर साहब का रिटायरमेण्ट और ‘ज़माना बड़ा बुरा आ गया है’, था। उन तीनों के साइकिल पर चले जाने के बाद रुप्पन बाबू ने रंगनाथ को इन्स्पेक्टर साहब के बारे में काफ़ी बातें बतायीं जिनका सारांश निम्नलिखित है :

 

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