Rag Darbari
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फ़्लश का खेल शिवपालगंज में जोगनाथ के मुक़ाबले कोई भी नहीं खेल पाता था। एक बार सिर्फ़ ‘पेयर’ के ऊपर उसने खन्ना मास्टर की ट्रेल फिंकवा दी थी। उस दिन से जोगनाथ की धाक कुछ ऐसी जमी कि उसके हाथ में तीन पत्ते आते ही अच्छे–अच्छे खिलाड़ी अपने ताश देखना भूलकर उसी का मुँह देखने लगते। जैसे ही वह पहला दाँव लगाता, आधे से ज़्यादा खिलाड़ी घबराकर अपने पत्ते फेंक देते। सुना है, राणा प्रताप का घोड़ा चेतक मुगल सेना के जिस हिस्से में पहुँच जाता, वहाँ चारों ओर भीड़ फटकर उसके लिए जगह निकाल देती, मुग़लों के सिपाही सिर पर पैर रखकर असम्भव चाल से भागने लगते। वही हालत जोगनाथ के दाँव की थी। जैसे ही उसका दाँव मैदान में पहुँचता, भगदड़ पड़ जाती। पर गयादीन के यहाँ चोरी हो जाने के बाद कुछ ऐसा हो गया था कि लोग जोगनाथ को देखकर फ़्लश के दुर्गुणों के बारे में बात करने लगते। वे जुआरी, जो पहले उसे देखकर एक हीरो का स्वागत देते थे और खाना–पीना भूलकर उसके साथ खेलते रहते, अब अचानक बड़ी जिम्मेदारी के साथ बाज़ार जाने की, घास काटने की या भैंस दुहने की याद करने लगते।
यह जोगनाथ के लिए परेशानी की बात थी। उधर अभी कुछ दिन हुए दारोग़ाजी ने उसे थाने पर बुलाया था। वह साथ में रुप्पन बाबू को भी लेकर गया था। दारोग़ाजी ने कहा, ‘‘रुप्पन बाबू, जनता के सहयोग के बिना कुछ नहीं हो सकता।’’
उन्होंने गम्भीरता से समझाया था, ‘‘गयादीन के घर की चोरी के बारे में कुछ पता नहीं लग रहा है। जब तक आप लोग सहयोग नहीं करेंगे, कुछ भी पता लगाना मुश्किल है...’’
रुप्पन बाबू ने कहा, ‘‘हमारा पूरा सहयोग है। यक़ीन न हो तो कॉलिज के किसी भी स्टुडेण्ट को गिरफ़्तार करके देख लें।’’
दारोग़ाजी कुछ देर यों ही टहलते रहे, फिर बोले, ‘‘विलायत का तरीक़ा इस मामले में सबसे अच्छा है। अस्सी फ़ीसदी अपराधी तो खुद ही अपराध स्वीकार कर लेते हैं। हमारे यहाँ तो...’’ कहकर वे रुक गए और पूरी निगाह से जोगनाथ की ओर देखने लगे। फ्लश के खेल में ब्लफ़ लगानेवाली सधी निगाह से जोगनाथ ने भी दारोग़ाजी की ओर देखा।
जवाब दिया रुप्पन बाबू ने। कहा, ‘‘विलायतवाली यहाँ न चलाइए। अस्सी फ़ीसदी लोग अगर अपने–अपने ज़ुर्म का इकबाल करने लगें, तो कल आपके थाने में दस सिपाहियों में से ड्यूटी देने के लिए सिर्फ़ दो ही बचेंगे–बाक़ी हवालात में होंगे।’’
हुआ यही था कि बात हँसी–मज़ाक में टल गई थी। जोगनाथ को दारोग़ाजी ने क्यों बुलाया, यह साफ़ नहीं हो पाया था। उसी का हवाला देते हुए रुप्पन बाबू आज बड़प्पन के साथ बोले, ‘‘ए जोगनाथ, यों मरे चमगादड़–जैसा मुँह लटकाकर चलने से क्या होगा ? मौज करो। दारोग़ा कोई लकड़बग्घा तो है नहीं; तुम्हें खा थोड़े ही जाएगा !’’
पर छोटे पहलवान खीझ के साथ बोले, ‘‘हमारा तो एक डम्पलाटी हिसाब है कि इधर से आग खाओगे तो उधर से अंगार निकालोगे। जोगनाथ कोई वैद्यजी से सलाह करके तो गयादीन के घर कूदे नहीं थे। फिर अब उनके सहारे पर क्यों झूल रहे हैं?’’
जोगनाथ ने विरोध में कोई बात कही, पर तभी उनके पीछे से एक बैलगाड़ी घरघराती हुई निकल गई। रंगनाथ चेहरे की धूल पोंछने लगा, छोटे पहलवान ने आँख का कोना तक नहीं दबाया। गीता सुनकर जिस भाव से अर्जुन अठारह दिन कुरुक्षेत्र की धूल फाँकते रहे थे, उसी तरह छोटे पहलवान बैलगाड़ी की उड़ायी हुई सारी धूल फाँक गए। फिर बेरुख़ी से बोले, ‘‘सच्ची बात और गदहे की लात को झेलनेवाले बहुत कम मिलते हैं। जोगनाथ के लिए लोग जो बात गाँव–भर में फुसफुसा रहे हैं, वही हमने भड़भड़ाकर कह दी। इस पर कहा–सुनी किस बात की ?’’
सनीचर ने शान्ति स्थापित करनी चाही। प्रधान हो जाने की आशा में वह अभी से वैद्यजी की शाश्वत सत्य कहनेवाली शैली का अभ्यास करने लगा था। बोला, ‘‘आपस में कुकरहाव करना ठीक नहीं। सारी दुनिया जोगनाथ को चाहे जो कुछ कहे, हमने उसे एक बार भला कह दिया तो कह दिया। मर्द की ज़बान एक कि दो ?’’
छोटे पहलवान घृणापूर्वक बोले, ‘‘तो, तुम मर्द हो ?’’
रास्ते में उन्हें लंगड़ दिखायी पड़ा। रंगनाथ ने कहा, ‘‘यह यहाँ भी आ पहुँचा !’’
लंगड़ एक मकोय की झाड़ी के नीचे अँगोछा बिछाकर बैठा हुआ सुस्ता रहा
था और होंठों–ही–होंठों में कुछ बुदबुदा रहा था। सनीचर बोला, ‘‘लंगड़ का क्या, जहाँ चाहा वहाँ लंगर डाल दिया। मौजी आदमी है।’’
छोटे पहलवान अपने प्रसिद्ध अख़बारी पोज़ पर उतर आए थे, यानी उनका फ़ोटो अगर अख़बार में लगता तो उसके सहारे वे अपने सबसे सच्चे रूप में पाठकों तक पहुँचते। असीम सुख की उपलब्धि में नीचे का होंठ फैलाकर दाँत पीसते हुए, आँखें सिकोड़े वे अपनी जाँघ के मूल भाग को बड़े उद्रेक से खुजला रहे थे, शायद इस उपलब्धि में लंगड़ के कारण कोई बाधा पड़ गई थी। झल्लाकर बोले, ‘‘मौजी आदमी ! साला सूली पर चढ़ा बैठा है। परसों तहसीलदार से तू–तड़ाक कर आया है। मौज कहाँ से करेगा ?’’
वे लोग नज़दीक से निकले, रुप्पन ने ललकारकर कहा, ‘‘कहो लंगड़ मास्टर, क्या रंग है ? नक़ल मिली ?’’
लंगड़ ने बुदबुदाना बन्द कर दिया। आँख पर हथेली का छज्जा बनाकर उसने धूप में रुप्पन बाबू को पहचाना। कहा, ‘‘कहाँ मिली बापू ? इधर इस रास्ते नक़ल की दरख़ास्त सदर के दफ़्तर भेजी गई और उधर उस रास्ते से मिसिल वहाँ से यहाँ लौट आयी। अब फिर गया मामला पन्द्रह दिन को।’’
सनीचर ने कहा, ‘‘सुना, तहसीलदार से तू–तड़ाकवाली बात हो गई है।’’
‘‘कैसी बात बापू ?’’ लंगड़ के होंठ फिर कुछ बुदबुदाने की तैयारी में काँपे, ‘‘जहाँ क़ानून की बात है, वहाँ तू–तड़ाक से क्या होता है ?’’
छोटे पहलवान ने घृणा से उसकी ओर देखा, फिर झाड़ियों और दरख़्तो के सुनाने के लिए कहा, ‘‘बात के बताशे फोड़ने से क्या होगा ? साला जाकर नक़लनवीस को पाँच रुपये टिका क्यों नहीं देता ?’’
‘‘तुम यह नहीं समझोगे छोटे पहलवान ! यह सिद्धान्त की बात है।’’ रंगनाथ ने उसे समझाया।
छोटे पहलवान ने अपने मज़बूत कन्धों पर एक अनावश्यक निगाह डालकर कहा, ‘‘वह बात है तो खाते रहो चकरघिन्नी।’’ कहकर सैकड़ों यात्रियों की तरह वे भी झाड़ी के पास पानी गिराने की नीयत से गए और वहाँ एक आदमी को खुले में कुछ चीज़ गिराते हुए देखकर उसे गाली देते हुए दूसरी ओर मुड़ गए।
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छोटे पहलवान ने कहा, ‘‘हमें दर्शन–वर्शन नहीं करना है। यहाँ तो, बस, लाल लँगोटेवाले की गुलामी करते हैं, और जितने देवी–देवता हैं उनको भूसा समझते हैं।’’
बहस इस पर हो रही थी कि पहले मन्दिर में देवी का दर्शन कर लिया जाए। छोटे की इस बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। किसी ने उन्हें समझाने की कोशिश नहीं की। सभी जानते थे कि उन्हें समझाने का सिर्फ़ एक तरीक़ा है और वह कि उन्हें ज़मीन पर पटककर, और छाती पर चढ़कर, उनकी हड्डी–पसली तोड़ दी जाए। उधर छोटे ने यह दिखाने के लिए कि वे नास्तिक नहीं हैं, खड़े होकर अपनी जाँघ पर ढोलक–सी बजानी शुरू कर दी। जब इससे उनकी आस्तिकता प्रमाणित नहीं हुई तो वे एक गाना भुनभुनाने लगे–
बजरंगबली, मेरी नाव चली, ज़रा बल्ली कृपा की लगा देना !
मिठाई की एक दुकान की ओर इशारा करके उन्होंने कहा, ‘‘मैं वहीं चलकर पेट में तब तक कुछ डालता हूँ। वहीं आना।’’ फिर अपने–आपसे बोले, ‘‘सवेरे से मुँह बाँधे घूम रहे हैं। पेट साला फटफटा रहा है।’’
रंगनाथ को यही बताया गया था कि मन्दिर सतजुग का बना हुआ है। वह शुरू से ही किसी शिलाखंड पर ब्राह्मी अक्षर पढ़ने की कल्पना कर रहा था। पर मन्दिर को दूर से देखते ही उसे विश्वास हो गया कि अपने देशवासी समय के बारे में सिर्फ़ दो सही शब्द जानते हैं और वे हैं अनादि और अनन्त। इसके सिवाय वे लगभग पचहत्तर वर्ष पुराने मन्दिर को आसानी से गुप्तकाल या मौर्यकाल में धकेल सकते हैं।
मन्दिर के ऊपर बने हुए बेलबूटों के बीच लिखा था, ‘‘बनवाया मंडप महिषासुर– मर्दिनी का मुसम्मे इक़बालबहादुरसिंह वल्द नरेन्द्रबहादुरसिंह तख़त भीखापुर ने मिती कार्तिक बदी दसमी संवत 1950 विक्रमी को।’’ इसे पढ़ते ही रंगनाथ का सारा पुरातत्त्व हवा में उड़ गया।
यह न समझना चाहिए कि भीखापुर का तख्त सितारा या पूना रियासत का तख्त था। अवध के लाखों ज़मीदारों के घर इस तरह के न जाने कितने टूटे–फूटे तख्त पड़े रहा करते थे जिन पर बैठकर वे अपनी रिआया यानी दो–एक हलवाहों का सलाम होली या दशहरा पर कुबूल करते थे। मन्दिर पर खर्च होनेवाली रकम का अन्दाज�
� करके रंगनाथ समझ गया कि यह तख्त भी उन्हीं लाखों तख्तों में से एक था। मन्दिर की इमारत भी तख्त–जैसी ही थी। एक कमरा था, जिसमें सिर्फ़ एक दरवाज़ा था। अन्दर की दीवारों पर चारों ओर वार्डरोब–जैसे बना दिए गए थे। उन्हीं में अनेक प्रकार के देवताओं के रहने का प्रबन्ध था।
दरवाज़े में घुसते ही सामने के वार्डरोब में जो मूर्तियाँ दीखती थीं उन्हीं में देवी की मुख्य प्रतिमा–सी थी। वह सचमुच ही एक प्राचीन मूर्ति थी।
जोगनाथ मन्दिर में घुसते ही बड़ी फुर्ती से साष्टांग लेट गया, जैसे लड़ाई के मैदान में धमाके की आवाज़ सुनते ही सिपाही लेट जाते हैं। फिर पंजों के बल बैठकर उसने बड़ी भावुकता से एक भजन सुनाना शुरू किया जिसके बोल तो समझ में नहीं आए, पर यह समझ में आ गया कि वह रो नहीं रहा है, गा रहा है। जोगनाथ की भावुकता न गाँजे की चिलम से पैदा हुई थी, न शराब के चुग्गड़ से। उसके पीछे सिर्फ़ पुलिस का डर था। जो भी हो, वह इतनी साफ़ थी कि दो–चार लोग अपना भजन भूलकर सिर्फ़ उसका भजन सुनने लगे।