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Rag Darbari

Page 37

by Shrilal Shukla


  ‘‘उसके बाद ये दोनों गँजहे बर्फ़ी खाकर चलने लगे।’’ दुकानदार कहता गया, ‘‘मैंने कहा, ‘एक अठन्नी हुई।’ तो ये उलट पड़े। बोले, ‘अठन्नी हमने दे तो दी है। कितनी बार लोगे ?’ यहाँ एक साथ हम सौ–सौ गाहकों को खिलाते हैं। क्या मजाल कहीं धोखा हो जाए। मैं बार–बार अठन्नी माँगता रहा और ये कहते रहे कि हमने दे दी है। हमने कड़ाई के साथ माँगा तो गाली देने लगे...’’

  उसकी बात काटकर सनीचर ने कहा, ‘‘जितनी बात सच्ची है वही बोलो लाला चिरंजीमल। तुम कहते हो कि हमने अठन्नी की बर्फ़ी खाई, तो हम कहते हैं कि हमने खाई। तुम कहते हो कि हमने अठन्नी नहीं दी, तो हम कहते हैं कि हमने दी।’’

  रंगनाथ ने उसे टोककर कहा, ‘‘तो इसमें झगड़ा किस बात का है ! अगर नहीं मिली होगी तो मिल जाएगी।’’

  सनीचर ने कहा, ‘‘भैया की बात ! इस तरह दो–दो बार पैसा देने लगे तो चार दिन में भीख माँगने की नौबत आ जाएगी।’’

  दुकानदार बोला, ‘‘असल झगड़ा अठन्नी का नहीं, उधर पहलवान की ओर से है। ये गँजहे जब अठन्नी के लिए झाँय–झाँय कर रहे थे तो उधर से पहलवान बोले कि भाई, इस झगड़े में हमारा दिया हुआ रुपिया न भूल जाना। अब देने को तो इन्होंने एक छदाम भी नहीं दिया और कह रहे हैं कि हमारा रुपिया न भूल जाना। क्या ज़माना आ गया है !’’

  पहलवान पर इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वे देह से मैल की बत्तियाँ निकालते रहे।

  सिपाही ने कहा, ‘‘क्या कहते हो पहलवान ?’’

  छोटे बोले, ‘‘हमें क्या कहना है ? हमें ज़्यादा टाँय–टाँय नहीं आती। मेरी अठन्नी वापस मिल जाय, बाक़ी से हमारा कोई मतलब नहीं।’’

  बड़ी देर तक बहस चलती रही। भीड़ में भी कई तरह की बातें होती रहीं जिसका तात्पर्य यह था कि ऐसा झगड़ा इस मेले में हर साल होता है, झगड़ा करनेवाले बस यही गँजहे हैं; बड़े लुच्चे हैं। पर इनके मुँह कौन लगे ? और सच पूछो तो हरएक गाँव का यही हाल है। जितने नये लौंडे हैं सब...

  यह तय नहीं हो पा रहा था कि किसको कितना देना है। आख़िर में एक सिपाही ने सीधा रास्ता बताया कि सीधा रास्ता तो यह है कि दोनों तरफ़ से छूट बोल दी जाय। पहलवान ने रुपया दिया हो तो रेज़गारी छोड़ दे और दुकानदार ने दाम न पाए हों तो दाम छोड़ दे।

  इस पर दोनों पक्षों को बड़ा असन्तोष हुआ, पर बड़े शोरगुल के बाद यह फ़ैसला दोनों पक्षों ने मान लिया। इसके बाद, जिधर देसी शराब की दुकान थी, उधर भी इसी तरह का कोई झगड़ा होने लगा क्योंकि सिपाही उसी तरफ़ चले गए। भीड़ छँट गई।

  अचानक रंगनाथ ने कड़ी आवाज़ में कहा, ‘‘मुझे क्या पता था कि मेरा लुटेरों का साथ है। कैसे–कैसे लोग हैं ?’’

  रुप्पन बाबू ने आश्चर्य के साथ उन्हें देखा। बोले, ‘‘कौन लोग ? ये दुकानदार ? हुँह्, ये तो पैदाइशी लुटेरे हैं।’’

  रंगनाथ का चेहरा तमतमा उठा। वह दुकानदार के पास जाकर खड़ा हो गया। अपनी जेब से पाँच रुपये का नोट निकालकर दुकानदार को देते हुए उसने कहा, ‘‘तीन आदमियों की मिठाई–चाट की क़ीमत इससे काट लो। जो हुआ, उसे भूल जाओ।’’

  कहकर उसने अपना तमतमाया हुआ चेहरा अपने साथियों के सामने कर दिया। रुप्पन ने मुँह बनाया जिसका मतलब था कि ये सारी बेवकूफ़ी आज ही दिखा डालने पर तुले हुए हैं। छोटे पहलवान ने धीरे–से कहा, ‘‘इन्हें भी अपना हौसला निकाल लेने दो। पढ़े–लिखे आदमी हैं। ए.मे. पास हैं ? कौन इनके बीच में बोले ?’’

  कहकर वह दूसरी ओर देखने लगा, जैसे उसका पूरी घटना से कोई सम्बन्ध ही न हो और घटना कुल मिलाकर इतनी हो कि ए. मे. पास आदमी किसी बेवकूफ़ी पर उतर आया है।

  पर रुप्पन ने उसे टोका। कहा, “ फ़ैसला हो गया है रंगनाथ दादा ! अब तुम्हें बोलने का कोई हक़ नहीं। जो करना था पुलिस के सामने करते, तब कोई बात भी थी।’’

  रंगनाथ ने अपना नोट दुकानदार के सामने फेंक दिया था। इन बातों को अनसुना करके उसने दुकानदार से ही कहा, ‘‘जल्दी करो। बाक़ी पैसे वापस करो।’’

  लोग फिर इकट्‌ठे होने लगे थे। दुकानदार ने चारों ओर उछलती–सी निगाह डाली, फिर उसे नोट वापस करते हुए कहा, ‘‘तुम बाहरी आदमी हो बाबूजी, हमको तो यहीं रहना है।’’

  एक गुट के अब तीन गुट बन गए। जोगनाथ शराब की दुकान की तरफ़ चला गया, सनीचर और छोटे पहलव�
�न मेले के दूसरी ओर, जहाँ जान–पहचान के दो–चार लोग भंग छान रहे थे। रंगनाथ और रुप्पन बाबू साथ–साथ लौटे।

  रंगनाथ कुछ गम्भीर हो गया था। थक भी गया था। एक कुएँ की जगत पर वह सुस्ताने के लिए बैठ गया। रुप्पन बाबू वहीं से खड़े–खड़े कुछ दूर पर होनेवाली तीतर की लड़ाई देखने लगे।

  कुएँ से कुछ दूर एक टूटी हुई इमारत थी। वहाँ खम्भे के पास एक लड़की बैठी थी–गेहुँए रंग की नौजवान लड़की। चटकीली साड़ी पहने थी। नाक में सोने की नथ। मेले की गन्दगी के ख़िलाफ़ रंगनाथ को यह दृश्य अच्छा लगा। वह उधर ही देखता रहा।

  गन्दी लुंगी और चमकदार नक़ली सिल्क की साफ़ कमीज़ पहने एक आदमी उस लड़की से कुछ दूर खड़ा हुआ बीड़ी फूँक रहा था। एक कान पर चूने की गोली, बालों से तेल चुचुआता हुआ। धीरे–धीरे वह लड़की के पास आकर खड़ा हो गया। फिर उससे लगभग गज़–भर की दूरी पर बैठ गया। उसने कुछ कहा जिस पर लड़की मुस्कराई। रंगनाथ को अच्छा लगा। उसने चाहा कि लड़की उसकी ओर भी देखे। लड़की ने उसकी ओर भी देखा। उसने चाहा कि वह उसी तरह फिर मुस्कराए। वह फिर मुस्कराई। चुचुआते बालोंवाले आदमी ने दूसरी बीड़ी जला ली।

  रंगनाथ के पास एक आदमी आकर खड़ा हो गया। धोती–कुरता और टोपी पहने था। देहात के हिसाब से ज़िम्मेदार–सा दिख रहा था। रंगनाथ ने उसकी ओर एक फिसलती निगाह डाली, फिर सामने की ओर देखने लगा। लड़की ने मुस्कराना छोड़ दिया था। उसके चेहरे पर कुछ–कुछ वैसा ही करुणाजनक भाव आ गया था जो हिन्दी सिनेमा में ग़ज़ल गाने के पहले हीरोइन के चेहरे पर आ जाता है।

  उस आदमी ने धीरे–से पूछा, ‘‘आप यहीं के रहनेवाले हैं ?’’

  रंगनाथ ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं।’’

  वह आदमी इत्मीनान से रंगनाथ के पास बैठ गया। बोला, ‘‘ये देहाती लोग कुछ समझते तो हैं नहीं–सनीमा का यह गाना सुनाओ ! वह गाना सुनाओ !’’

  रंगनाथ दिलचस्पी से उसकी बात सुनता रहा, पर कुछ समझ नहीं पाया। वह कहता गया, ‘‘वैसे इनसे टिल्लाना सुनिए, दादरा सुनिए, चाहे ठुमरी सुनिए।...अपनी जान निकालकर रख देती हैं।’’

  भावमुग्ध होकर वह आदमी स्वप्निल–स्वप्निल आँखेंवाली रूमानी अदा से बोला, ‘‘रोहूपुर गई थीं। अब बैजेगाँव जा रही हैं।’’

  शहर में रंगनाथ ने इसी तरह रविशंकर के बारे में एक संगीत–सभा में सुना था। एनाउंसर कह रहा था, ‘‘एडिनबरा से अभी–अभी लौटे हैं, अबकी जाड़ों में न्यूयार्क जा रहे हैं।’’

  उसने सिर हिलाकर बात का समर्थन किया। उसे अब बात का सिर-पैर मिलने लगा था।

  वह आदमी कुछ रुककर कहने लगा, ‘‘राहचलन्तू की विद्या नहीं है इनकी। बैठक में आइए, बैठकर सुनिए; तब पता चलेगा, क्या असली है और क्या नक़ली।”

  रंगनाथ की निगाह सामने थी। चुचुआते बालोंवाला आदमी अब उस लड़की के बिलकुल पास आकर बैठ गया था। दोनों बातें करते थे, मुस्करा रहे थे और रह–रहकर रंगनाथ को देख रहे थे। उसे इतनी देर बाद अनुभव हुआ कि इन लोगों को उससे बड़ी–बड़ी आशाएँ हैं।

  उसके पास बैठे हुए इस धोती–कुरता–टोपीवाले आदमी को देखकर दूर से ऐसा लगता होगा जैसे दो गम्भीर आदमी देश की समस्याओं पर काफ़ी गहरा चिन्तन कर रहे हैं। अपनी भौंहों को सिकोड़कर वह कह रहा था, ‘‘सब गारद कर दिया नये क़ानून ने। बड़े–बड़े रईसज़ादे गाना सुनने को तरस रहे हैं। अब तो थानेवालों ने इज़ाज़त दे दी है। बैठक में गाना–वाना चलने लगा है।’’

  रंगनाथ उठ खड़ा हुआ। वह आदमी भी खड़ा होकर बोला, ‘‘मैंने खुद इसके ऊपर दस साल जान लड़ाई है। मोर–जैसा गला पाया है। तैयारी के बाद अब सैकड़ों में एक होकर निकली है।’’

  रंगनाथ ने रुप्पन बाबू की ओर देखा। वे तीतर की लड़ाई देखने को दूसरी ओर टरक गए थे। उसने पुकारा, ‘‘रुप्पन !’’

  वह आदमी कुछ देर सोचता रहा; फिर बोला, ‘‘अपने ही धरम की लड़की है, हिन्दू, है। बड़ी सीधी है।’’

  फिर मुँह लटकाकर गौरव के साथ कहने लगा, “ सिर्फ़ गाती–भर है। गुनी जनों के बीच रही है। पेशा नहीं करती।’’

  रंगनाथ ने उस आदमी से कहा, ‘‘बहुत अच्छी बात है। गानेवाले पेशा करते हैं तो गाना बिगड़ जाता है। गाना भी एक साधना है। उसी पर इसे डाले रखिए।’’

  वह आदमी अचकचाकर बोला, ‘‘आप तो सबक
ुछ जानते हैं। आपको क्या समझाना। कभी बैठक में आइए...’’

  रुप्पन बाबू को देखकर वह रुक गया। वे अचानक ही पीछे से आ गए थे। कड़ककर बोले, ‘‘ज़रूर आएँगे बैठक में। पर बात किससे कर रहे हो ? अपने बाप को तो पहचानकर चलो ?’’

  उस आदमी ने हाथ जोड़ दिए। उसकी मुद्रा बदल गई। शोहदों की तरह मुस्कराकर उसने कहा, ‘‘अपना बाप तो रुपिया है, मालिक !’’

  रंगनाथ मुस्कराया। उछलती निगाह से उसने देखा, लड़की की मुस्कान कुछ और चौड़ी हो गई है।

  वे काफ़ी देर चुप रहे। चुपचाप चलते रहे। अन्त में रुप्पन बाबू बोले, ‘‘क्या कह रहा था वह ? अभी उसने पेशा शुरू किया कि नहीं ?’’

  रंगनाथ चुप रहा।

  ‘‘चारों तरफ़ जालसाज़ी है। इस साली रण्डी को बचपन से देख रहा हूँ,’’ रुप्पन बाबू एक बुजुर्ग की तरह कहते रहे, ‘‘बरसों से नाक में छल्ला लटकाए घूम रही है और वह उसके ठुमरी–दादरा का नगाड़ा पीटता है। भैंस–जैसी आवाज़ है और बड़ी उस्ताद बनती है। इलाके की सबसे सड़ियल पतुरिया है। कोई उसे कौड़ी को भी नहीं पूछता।’’

 

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