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Rag Darbari

Page 39

by Shrilal Shukla


  इस शाकाहारी वाणी का छोटे पहलवान पर अच्छा असर पड़ा। वे धम से फ़र्श पर बैठ गए, पर धीरे–से बड़बड़ाए, ‘‘मुझे क्या पता था कि पंचों की क़लम असली है और ज़बान दोगली है। पर तुम इन्साफ़ का ज़िम्मा लेते हो तो बैठ जाता हूँ।’’

  पंच बोले, ‘‘हाँ, हाँ, ज़िम्मा ही लेता हूँ। तुम यहाँ ठाठ से मुक़दमा लड़ो। उमर–भर मुक़दमा लड़ते रहो। फैसला तो क़लम से होता है।’’

  बिना किसी नाटकीयता के मामला इतनी आसानी से सुलझा जा रहा है, यह बात चपरासी को पसन्द नहीं आयी। बोला, ‘‘बात से होता क्यों नहीं, पंडितजी ! घोड़े की लात और मर्द की बात कभी खाली नहीं जाती।’’

  सरपंच भीतर–ही–भीतर अपनी ग़लती का अनुभव कर रहे थे। चपरासी से बोले, ‘‘सौ बार कहा है कि मुँह बन्द करके बैठा करो, पर यह हमेशा अपना चर्खा चलाता ही जाता है। लगाऊँ एक ठोकर ?’’

  पंच ने कहा, ‘‘इसे छोड़िए सरपंचजी, मिसिल खोलिए।’’

  मिसिल खोली गई। सरपंच ने एक पंच से कहा, ‘‘पढ़िए। कुसहर का इस्तगासा पढ़कर मुलज़िम को सुना दीजिए।’’

  उस पंच ने मिसिल को अनिश्चय के साथ इधर–उधर पलटकर देखा। जैसे केवल हिन्दी जाननेवाला तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम की लिपियों को देखकर सिर्फ़ देखता ही रह जाता है और फिर घूमकर अपने हिन्दी–प्रेम में खो जाता है, उसी तरह खोयी–खोयी आवाज़ में उसने कहा, ‘‘अब आपके होते हुए मैं क्या पढ़ूँ! आप ही पढ़कर मुक़दमा कीजिए।’’

  मिसिल की हालत जलते हुए आलू की–सी हो गई। यू. एन. ओ. छाप पंच ने उसे उलट–पलटकर सरपंच को वापिस कर दिया। सरपंच ने उसे एक हाथ से लेकर दूसरे हाथ से दूसरे पंच को पकड़ा दिया। दूसरे पंच ने उसके आख़िरी पन्ने पर बने हुए एक गोल दायरे को काफ़ी ग़ौर से देखा; फिर अचानक ही पंच नं. 1 को पकड़ा दिया। मिसिल इतने हाथों को छूकर तर गई।

  आख़िर में कुसहरप्रसाद ने कहा, ‘‘सरपंचजी, पंचायत के मन्त्री तो आज आए नहीं है। आप लोग लिखा–पढ़ी के झंझट में कहाँ तक पड़िएगा ? तारीख़ दे दीजिए। मुक़दमा बाद में हो जाएगा।’’

  सरपंच ने वीरतापूर्वक कहा, ‘‘तुम भी कैसी बात कहते हो कुसहर ? जो सिपाही होकर गोली खाने से घबराए और सरपंच होकर पढ़ने–लिखने से, उसके लिए तो बस...।’’

  छोटे पहलवान ने देह तोड़ी। पसलियों से ‘चट–चट’ की आवाज़ निकली। ऊबी हुई आवाज़ में वे बोले, ‘‘घण्टा–भर से तुम लोग तीन–तेरह कर रहे हो। मुक़दमा करोगे कि भाड़ ही भूँजते रहोगे ?’’

  सुनते ही सरपंच मुक़दमा करने लगे। उन्होंने मिसिल को पढ़ने की दोबारा कोशिश की। उसका एक पन्ना उठाकर वे बिलकुल अपने मुँह के पास ले गए। उनके होंठों के कोनों पर थूक चिपचिपा आया। आँखों के कोने सिकुड़ गए और उन पर कौओं के पंजे उभर आए। लगा, उनके जीवन का यह एक अत्यन्त दुर्लभ क्षण है।

  मिसिल अब उनके मुँह के बिलकुल क़रीब आ गई थी। उन्होंने एक चटखारी भरी, साँस खींची और फिर मिसिल का एक टुकड़ा भी न खाकर उसे समूचा ही फ़र्श पर रख दिया। इस रस्म के बाद वे तकल्लुफ़ से बोले, ‘‘मैंने शिरी कुसहरप्रसाद का इस्तग़ासा पढ़ लिया है। कुसहरप्रसाद कहते हैं कि कुसहरप्रसाद के लड़के छोटे वल्द कुसहरप्रसाद ने कुसहरप्रसाद को बिना किसी कारण लाठियों से मारा है। दफ़ा 323 ताजीरात हिन्द का इस्तग़ासा है।’’

  छोटे पहलवान इस तरह बैठे रहे जैसे इस सबका उनसे कोई सरोकार न हो। सरपंच की भौंहों के बीच एक खरोंच–सी निकल आयी। उसने पूछा, ‘‘क्यों कुसहर ? यही बात है न ? मुलजिम छोटे ने तुमको मारा था ?’’

  ‘‘हाँ सरपंचजी, हज़ारों आदमियों के सामने मारा था। मेरी हड्‌डी–पसली तक का भूसा बना दिया।’’

  सरपंच ने गम्भीरतापूर्वक कहा, ‘‘समझ–बूझकर बात करो कुसहर ! अगर तुम्हारी हड्‌डी टूटी है तो मुक़दमा संगीन हो जाएगा। फिर तुम्हें शहर की अदालत में जाना पड़ेगा। यहाँ सिर्फ़ दफ़ा 323 चलती है, दफ़ा 325 लग गई तो बम्बे का पानी पिए बिना न बचोगे।’’

  कुसहर ने कुछ सोचकर कहा, ‘‘तो सरपंचजी, मेरी हड्‌डी सचमुच में थोड़े ही टूटी है ! यह तो कहने की एक बात है। पर इसने मुझे बहुत मारा। लाठियों से पुआल–जैसा पीट दिया। यह देखो सिर के घाव। यह मेरा लड़का नहीं, दुश्मन है।’’

  एक पंच टाट का एक कोना दबाए हुए बैठे थे�
� चुपचाप माला जप रहे थे। माथे पर सफेद तिलक, गले में रुद्राक्ष की माला। बुजुर्ग आदमी थे। देखते ही लगता था, ये तिथि और लग्न विचारने में दक्ष हैं, पुरोहिती करते हैं और वैद्य का काम भी जानते हैं और इन तरकीबों से देहात में काफ़ी सुखपूर्वक रहते हैं। यही नहीं, मौका मिल जाय तो वे अपना करिश्मा शहर में भी दिखा सकते हैं। वहाँ बड़े–बड़े अफ़सरों से मिलकर उन पर चढ़े हुए साढ़ेसाती सनीचर का ख़ात्मा दिखाकर उनकी तरक्क़ी या विलायत– यात्रा का भविष्य बोलकर उन लोगों से काफ़ी मोटी दक्षिणा और उससे भी ज़्यादा मोटा सरकारी अनुदान झाड़ सकते हैं। उन्होंने जब कुसहर के मुँह से सुना कि छोटे उनका लड़का नहीं, बल्कि दुश्मन है, तो उनका माला जपना ही बन्द हो गया। उनके मुँह से निकला, ‘‘हे प्रभो !’’

  छोटे ने खँखारकर इस भावना का समर्थन किया। सरपंच ने कहा, ‘‘बड़ी खाँसी आ रही है।’’

  पहलवान बोले, ‘‘हमारे बाप राँड़ की तरह रो रहे हैं। इनकी बात सुन लो। हमारी खाँसी का हिसाब बाद में लगाना।’’

  सरपंच ने कुसहर से पूछा, ‘‘तो फिर तुम्हारी हड्‌डी नहीं टूटी ? ऐसा है, तो मामला दफ़ा 323 का ही है।’’

  कुछ रुककर उन्होंने अपनी बात दोहरायी, ‘‘तो फिर, यह मामला दफ़ा 323 का ही रह जाता है। भाला–बरछी तो नहीं चली ? चली हो तो बताओ। मगर तब मामला दफ़ा 324 का हो जाएगा।’’

  कुसहर ने घबराकर कहा, ‘‘नहीं सरपंचजी, हमारे यहाँ भाला–बरछी का क्या काम ? सात पीढ़ी से हम लोग लाठी ही चलाते आ रहे हैं।’’

  वे बोले, ‘‘ठीक !’’ मिसिल का एकाध पन्ना उलटकर उन्होंने फिर पूछा, ‘‘कुसहर, अच्छा बताओ, छोटे ने तुम्हें क्यों मारा था ?’’

  छोटे बोले, ‘‘ये क्या खाकर बतायेंगे ? मैं बताऊँ ?’’

  सरपंच ने मुस्कराकर कहा, “ मुक़दमे में भी नम्बर चलता है पहलवान ! पहले मुस्तगीस, फिर मुलज़िम। तुम्हारा भी नम्बर आएगा, घबराओ नहीं।’’

  ‘‘घबरा कौन रहा है ? और तुम भी न घबराओ। भगवान् चाहेगा तो एक दिन तुम्हारा भी नम्बर आएगा।’’

  सरपंच ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। कुसहर से ही पूछा, ‘‘तो बताओ भाई, छोटे ने तुम्हें क्यों मारा ?’’

  ‘‘क्या बताएँ कि क्यों मारा ? मरखन्ना बैल किसी को क्यों मारता है, यह भी कोई पूछने की बात है ? जवान है, पहलवान है। गाँव में इसे कोई नीचा दिखानेवाला है नहीं। इसकी देह चर्राया करती है। हाथ में खुजली थी, उतारने के लिए मुझी को धमक बैठा...।’’

  ‘‘गलत बात है।’’ सरपंच ने बात काटकर कहा, ‘‘बिना दो हाथों के ताली नहीं बजती। तुमने भी कुछ–न–कुछ ज़रूर किया होगा !’’

  कुसहर मासूम बन गए। बोले, ‘‘मैं क्या कर सकता हूँ सरपंचजी ? मैं भला छोटे के मुकाबले खड़ा होऊँगा !’’

  सरपंचजी ने मुँह टेढ़ा कर लिया, जैसे बहुत सोच रहे हों, इस तरह नीचे देखते रहने के बाद बोले, ‘‘इतने सीधे न बनो कुसहर। यहाँ की अदालत तुम्हारी नस–नस जानती है। हमने खुफ़िया तौर पर पूरा हाल मालूम कर लिया है। इस उमर में तुम्हें इश्कबाज़ी सूझती है ? हमें चराने लगे हो महाराज ! तुम भी कुछ कम नहीं हो !’’

  कुसहर घिघियाकर बोले, ‘‘सरपंचजी, घर पर मुझे लाठियों से मारा गया है और यहाँ तुम बातों से मार रहे हो ! यह कहाँ का इन्साफ़ है ?’’

  माला फेरनेवाले सरपंच ने कहा, ‘‘अब जो ढँका है, उसे ढँका ही रहने दो प्रभो ! ज़्यादा न कुरेदो कुसहर महाराज ! तुम बड़े महात्मा हो। सभी जानते हैं।’’

  यू. एन. ओ. छाप सत्यवादी पंच ने सरपंच से कहा, ‘‘आगे चलाइए मुक़दमा। कुसहर जैसे भी हों, पर मामला तो हमारे आगे 323 का है, उसी पर टिके रहिए।’’

  पर सरपंच के सिर पर मुक़दमे का नशा चढ़ चुका था। वह ऐंठकर बोला, ‘‘तुम क्या जानो, कहाँ क्या हो रहा है। अभी–अभी मैं तहसील से लौट रहा था। रास्ते में लोगों से बातचीत हुई। सनीचरा भी था। सभी ने जो सुनाया, उससे कान गँधा गए। यह कुसहर किसी से कम नहीं हैं। जितना धरती से ऊपर हैं, उतना ही नीचे गड़े हैं। गाँव की...।’’

  कुसहर को इस अपमान ने औंधा कर दिया। वे दीनतापूर्वक इधर–उधर देखने लगे। अपने ज़माने में वे काफ़ी उग्र थे, पर वहीं जहाँ मारपीट की बात हो। क़ायदे-कानून के सामने वे हमेशा इसी तरह दीन हो जाते थे। इस समय उन्होंने दसों दिशाओं से सहारे क
ी अपील की। उनकी आँखों से दुख टपकने ही वाला था। पर दोनों पंच और सरपंच इत्मीनान से उनकी हालत का मुआइना करते रहे। कुसहर ने अब धीरे–से सिर उठाकर छोटे पहलवान की ओर देखा। उधर देखते ही उनका मुँह फैल गया।

  छोटे की भौंहें टेढ़ी हो गई थीं, होंठ खिंच गए थे। वह अपनी जगह पर खड़ा हो गया और सरपंच से बोला, ‘‘ऐ चिमिरखीदास, चाँय–चाँय बन्द करो। एक पड़ाक् से कंटाप पड़ेगा तो यह मिसिल-विसिल लिये ज़मीन में घुस जाओगे। दो घण्टे से सुन रहा हूँ, हमारे बाप को घुमा–फिराकर हरामी बता रहे हो। हमारे बाप हरामी हैं तो तुम्हारे बाप क्या हैं ?’’ कहते–कहते छोटे की आवाज़ गनगना उठी, ‘‘मैं अभी मर नहीं गया हूँ। अब कोई असल बाप का हो तो हमारे बाप को गाली दे।’’

  सन्नाटा छा गया। चपरासी धीरे–से छप्पर के दूसरे कोने की ओर बिल्ली–जैसी छलाँग लगाकर छिप गया। सरपंचजी हक्का–बक्का हो गए। कुसहर ने सन्तोष की साँस ली। माला जपनेवाले पंच ने आँख मूँदकर कहा, ‘‘प्रभो !’’

 

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