Rag Darbari
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उनका पूरा कर्मयोग सरकारी स्कीमों की फिलासफी पर टिका था। मुर्ग़ीपालन के लिए ग्राण्ट मिलने का नियम बना तो उन्होंने मुर्ग़ियाँ पालने का ऐलान कर दिया। एक दिन उन्होंने कहा कि जाति–पाँति बिलकुल बेकार की चीज़ है और हम बाँभन और चमार एक हैं। यह उन्होंने इसीलिए कहा कि चमड़ा कमाने की ग्राण्ट मिलनेवाली थी। चमार देखते ही रह गए और उन्होंने चमड़ा कमाने की ग्राण्ट लेकर अपने चमड़े को ज़्यादा चिकना बनाने में खर्च भी कर डाली। खाद के गड्ढे को पक्का करने के लिए, घर में बिना धुएँ का चूल्हा लगवाने के लिए, नये ढंग का संडास बनवाने के लिए कालिकाप्रसाद ने ये सब ग्राण्टें लीं और इनके एवज़ में कारगुज़ारी की जैसी रिपोर्ट उनसे माँगी गई वैसी रिपोर्ट उन्होंने बिना किसी हिचक के लिखकर दे दी।
वही हालत सरकारी क़र्ज़े और तक़ावियों की थी। उनके पास पाँच बीघे खेत थे, जो अकेले ही पचासों तरह के कर्ज़ों और तक़ावियों की जमानत सँभाले हुए थे। वे हर स्कीम के भीतर तक़ावी की दरख़्वास्त देते, हरएक हाकिम उनकी दरख़्वास्तों की सिफ़ारिश करता, हर बार उन्हें तक़ावी मिल जाती और हर बार वसूली के वक़्त कार्रवाई रुकने की कार्रवाई हो जाती।
उनका ज्ञान विशद था। ग्राण्ट या कर्ज़ देनेवाली किसी नयी स्कीम के बारे में योजना आयोग के सोचने–भर की देर थी, वे उसके बारे में सबकुछ जान जाते थे। अपने देहाती सलीके के बावजूद, वे उन व्यापारियों से ज़्यादा चतुर थे जो नया बजट बनने के पहले ही टैक्स के प्रस्तावों की जानकारी पा जाते हैं। ज़िला–कार्यालय में कई बार वे ऊपर से रुपये की स्वीकृति आने के पहले ही अपनी दरख़्वास्त लेकर हाज़िर हो चुके थे और हाकिमों को आगे आनेवाली नयी स्कीमों की सूचना दे चुके थे।
इन्हीं कालिकाप्रसाद को सनीचर ने अपना सहायक चुना था।
पहले जिस मैदान का ज़िक्र आया है, उसका एक भाग ऐसा भी था जिसकी आहुति भूदान-यज्ञ में नहीं हुई थी। वह ऊबड़खाबड़ ज़मीन थी और जो वैसी न थी वह ऊसर थी और लेखपाल के काग़जों में वह सारी ज़मीन बाग़ के रूप में दर्ज थी। अपने इस बहुमुखी व्यक्तित्व के कारण वह ज़मीन पिछले कई सालों से कई प्रकार से इस्तेमाल हो रही थी। हर साल गाँव में वन–महोत्सव का जलसा होता था, जिसका अर्थ जंगल में पिकनिक करना नहीं बल्कि बंजर में पेड़ लगाना है और तब कभी–कभी तहसीलदार साहब, और लाज़मी तौर से बी. डी. ओ. साहब, गाजे–बाजे के साथ, उस पर पेड़ लगाने जाते थे। इस ज़मीन को कॉलिज की सम्पत्ति बनाकर इंटरमीडिएट में कृषि-विज्ञान की कक्षाएँ खोली गई थीं। इसी को अपना खेलकूद का मैदान बताकर गाँव के नवयुवक, युवक–मंगल–दल के नाम पर, हर साल खेलकूद–सम्बन्धी ग्राण्ट ले आया करते थे। इसी ज़मीन को सनीचर ने अपने कर्मक्षेत्र के लिए चुना।
प्रधान के चुनाव में अभी लगभग महीना–भर था। एक दिन छोटे पहलवान ने वैद्यजी की बैठक पर कहा, ‘‘सनीचर तीन दिन से कालिकाप्रसाद के साथ शहर के चक्कर काट रहा था। आज खबर मिली है कि मामला चुर्रैट हो गया है।’’
वैद्यजी तख्त पर बैठे थे। सुनते ही उत्सुकता के मारे कुलबुलाने लगे। पर उत्सुकता को ज़ाहिर करना और छोटे से सीधे बात करना–दोनों चीज़ें शान के ख़िलाफ़ पड़ती थीं, इसलिए उन्होंने रंगनाथ से कहा, ‘‘सनीचर को बुलवा लिया जाय।’’
छोटे पहलवान ने अपनी जगह पर खड़े–ही–खड़े दहाड़ा, ‘‘सनीचर, सनीचर, सनीचर हो ऽ ऽ ऽ!’’
शिवपालगंज में ऐसे आदमी को बुलाने की, जो निगाह और हाथ की पहुँच से दूर हो, यह एक ख़ास शैली थी। इसे प्रयोग में लाने के लिए सिर्फ़ बेशर्म गले, मज़बूत फेफड़े और बिना मिलावट के गँवरपन की ज़रूरत थी। इस शैली का इस्तेमाल इसी समझ पर हो सकता था कि सुननेवाला जहाँ कहीं भी होगा, तीन बार में अपना नाम एक बार तो सुन ही लेगा और अगर एक बार भी नहीं सुनेगा तो दोबारा पुकारने पर तो सुन ही लेगा, क्योंकि दोबारा उसका नाम इस प्रकार पुकारा जाएगा, ‘‘अरे कहाँ मर गया सनिचरा, सनिचरा रे !’’
जिस गै़र–रस्मी तरीक़े से छोटे पहलवान ने सनीचर को पुकारा था, उसी ग़ैर–रस्मी तरीके से सनीचर अपना नाम सुनते ही वैद्यजी की बैठक में आकर खड़ा हो गया। उसका अण्डरवियर कुछ महत्त्वपूर्�
� स्थानों पर फट गया था, बदन नंगा था, पर बालों में कड़वा तेल चुचुवा रहा था और चेहरा प्रसन्न था। पता लगना मुश्किल था कि उसका मुँह ज़्यादा फटा हुआ है या अण्डरवियर। तात्पर्य यह कि इस समय सनीचर को देखकर यह साबित हो जाता था कि अगर हम खुश रहें तो गरीबी हमें दुखी नहीं कर सकती और ग़रीबी को मिटाने की असली योजना यही है कि हम बराबर खुश रहें।
वैद्यजी ने सनीचर से पूछा, ‘‘क्या समाचार लाए सनीचर ? सुना, शहर में तुमने बड़ी योग्यता दिखायी।’’
सनीचर ने विनम्रता से कहा, ‘‘हाँ महराज, मुझे बड़ी जोग्यता दिखानी पड़ी। जब सब तरफ़ से जोग्यता–ही–जोग्यता ठेल दी, तब कहीं जाकर चूल–पर–चूल बैठी।’’
बात रंगनाथ की बरदाश्त के बाहर निकली जा रही थी। उसने पूछा, ‘‘अजी पहेली–जैसी क्या बुझा रहे हो ? हुआ क्या है ?’’
सनीचर ने दाँत दबाकर मुँह के अन्दर हवा खींची और बोला, ‘‘रंगनाथ बाबू, ये गँजहों की पहेलियाँ हैं। इतनी जल्दी तुम्हारे पल्ले न पड़ेंगी।’’ पर यह कहने के बाद आल इण्डिया रेडियो की खबरों में जैसे एक जुमले के ऊपर दूसरा जुमला चढ़ बैठता है, सनीचर ने पूरी घटना बिना विराम के सुना डाली। उसने कहा :
‘‘गुरु महराज, ये जिसका नाम कालिकाप्रसाद है, यह भी एक ही हरामी है।’’ सनीचर ने यह बात इस तरह कही जैसे कालिकाप्रसाद को पद्मश्री की उपाधि दी जा रही हो, ‘‘हाकिमों से काम निकालने के लिए आदमी की शक्ल बिलकुल इसी की जैसी होनी चाहिए। जब ज़रूरत होती है तो यह बड़े–बड़े लच्छन झाड़ता है, कान–पूँछ फटकारकर मुँह से बारूद–जैसी निकालने लगता है। एक–एक साँस में पाँच–पाँच, सात–सात ए.मे.ले. लोगों के नाम बोल जाता है और हाकिम बेचारे का मुँह खुला– का–खुला रह जाता है। उस वक़्त कोई कालिकाप्रसाद की लगाम को हाथ लगा दे तो जानूँ।
‘‘और महराज, वही कालिकाप्रसाद अगर किसी अकड़ू हाकिम के सामने पड़ जाय, तो पहले से ही केंचुए की तरह टेढ़ा–मेढ़ा होने लगता है। क्या बतावें महराज, आँख नीची करके ऐसा भूदानी नमस्कार करता है कि हाकिम सोचता ही रह जाय कि यह कौन है–विकासभाई कि प्रकाशभाई। अकिल से इतना हुशियार है, पर भुग्गा–जैसा बनकर खड़ा हो जाता है और तब क्या मजाल कि कोई इसे ताड़ ले। बड़ा–से–बड़ा काबिल आदमी इसको बेवकूफ़ मानकर आगे निकल जाता है और तब यह पीछे से झपटकर हमला करता है।
‘‘और गुरु महराज, इसके तिकड़म का तो कहना ही क्या ? एह् हेह् ! सरकारी दफ्तर में चपरासी से लेकर बाबू तक और बाबू से लेकर हाकिम तक–सभी जगह यह घुसा हुआ है। घुन है, पूरा घुन। जिस मिसिल में कहो, उसी के बीच से घुसकर बाहर निकल आवेगा।
‘‘शिवपालगंज का नाम उजागर किए है।
‘‘गुरु महराज, जोग्यता हमको भी बहुत दिखानी पड़ी, पर कालिकाप्रसाद के बिना मेरे उखाड़े एक रोआँ तक न उखड़ता। मेरे साथ तीन दिन तक इसने भी सहर का वह चक्कर काटा कि बड़े–बड़े रिक्शेवालों की दम टायँ–टाँय फिस्स हो गई। पर वह उसी तरह तैयार। कहता था कि यहाँ काम नहीं बना तो वहाँ चलो। और वहाँ न बने तो फिर वहाँ चलो। पूरे सहर को घोटकर लुगदी–जैसा बना डाला।
‘‘गुरुजी, कुछ अकिल तो हमारी भी थी। बल्कि सच पूछो तो असली अकिल हमारी ही थी। उसके बाद जब गाड़ी लीक पर आ गई तो उसे चलाया कालिकाप्रसाद ने। पर आपके दरबार में बैठते–बैठते कुछ हमें भी तीन–तेरह का इल्म हो गया है। कहावत है कि अखाड़े का लतमरुआ भी पहलवान हो जाता है, जैसे बद्री भैया के अखाड़े में छोटे पहलवान हो गए वैसे ही कुछ विद्या हमें भी आ गई है।
‘‘तो हमें पता चला कि आजकल सहकारिता का जो़र है। ब्लाक से एक ए.डी.ओ. आकर बोले कि अपने खेत को अपना न कहो, सभी के खेतों को अपना कहो और अपने खेत को सभी का खेत कहो; तभी होगी सहकारी खेती और धाँसकर पैदा होगा अन्न। हमने कहा कि तरकीब चौकस है और अगर हम प्रधान हो गए, तो सब खेत सरकार को दे देंगे सहकारी खेती के लिए। ए.डी.ओ. बोले कि सरकार क्या करेगी तुम्हारा खेत लेकर ? खेत भी कोई कल–कारखाना है ? खेत तुम्हारा ही रहेगा। खेती तुम्हीं करोगे। ज़रा–सा काग़ज़ का पेट भर देने से खेती सहकारी हो जाएगी। गाँव में कुअॉपरेटिव फ़ारम खुल जाएगा। सब मामलों में शिवपालगंज आगे है, इस मामले में भी सबसे आगे रहेगा।
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‘‘गुरु महराज, हमने सोचा कि शिवपालगंज चाहे आगे रहे चाहे पीछे, हमें तो गुरु महराज का हुकुम मानना है। प्रधानी के लिए खडे़ हुए तो प्रधान बनकर ही निकलना है। हमने भी ए.डी.ओ. से कहा कि ए.डी.ओ. साहब, शिवपालगंज को आपने समझा क्या है ? हमारा पेशाब किसी के मुक़ाबले पतला नहीं होता। हम हर बात में आगे हैं और आगे रहेंगे। वहीं हमने ए.डी.ओ. साहब से फुसलाकर पूछा कि मामला सूखा है कि तर। उसने क़बूल किया।
‘‘तभी गुरूजी, हमें कालिकाप्रसाद की याद आ गई। हमने सोचा कि बजरंगबली, सौ बार कालिकाप्रसाद की झोली भरते हो तो एक बार इस अपने लंगूर का भी भला कर दो। यह पैसा सिर्फ़ कालिकाप्रसाद के घर की तरफ़ ही क्यों भागता है बजरंगबली, एक बार उसे हमारी भी राह पर लगा दो।