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Rag Darbari

Page 47

by Shrilal Shukla


  गाड़ी छंगामल विद्यालय इंटर कॉलिज के सामने से निकली। अण्डरवियर पर बुश्शर्ट और धारीदार पैजामे पर बिना बनियान का कुरता पहने हुए कई लड़के पुलिया पर बैठे थे। दोनों ओर से तीतर की बोलियाँ बोली जा रही थीं। सेकण्ड के एक खंड में उन लड़कों को देखते ही उनके बेतुकेपन से उन्होंने भाँप लिया कि ये विद्यार्थी हैं।

  गाड़ी लगभग एक फर्लांग आगे निकल गई थी। तभी अचानक महापुरुष को याद आया कि उन्होंने नौजवानों के आगे पिछले अड़तालीस घण्टे में कोई व्याख्यान नहीं दिया है। उन्हें अचानक याद आया कि इन नौजवानों के लिए हमने क्या–क्या दुख नहीं सहे। उन्हीं के लिए गाँव का घर छोड़कर शहर में हमने बँगला लिया। तालाब के किनारे बैठना छोड़कर शाम–सवेरे एक छोटे–से कमरे में बैठे रहने की आदत डाली। अपने–आपको इतना–इतना बदल डाला। तो जैसे ही उन्हें याद आया कि मैं उन्हीं प्यारे नौजवानों से अड़तालीस घण्टे बोला ही नहीं, वैसे ही उन्होंने सोचा : ऐं ! मैं इतनी देर बिना लेक्चर दिए ही रह लिया ! मेरे मन में इतने–इतने ऊँचे विचार उठे, पर मैं स्वार्थी की तरह अपने–आपमें उन्हें समेटे रहा ! हाय ! मैं कितना कंजूस हूँ ! धिक्कार है मुझे, जो इस देश में पैदा होकर भी इतनी देर मुँह बन्द किए रहा !

  अड़तालीस घण्टे ! उन्होंने आश्चर्य से सोचा : 2880 मिनट और उसे साठ से गुणा कीजिए तो जितने हों, उतने सेकण्ड ! कितने सेकण्ड ! इतने समय के भीतर मैंने नौजवानों को उत्साह दिलाने के लिए एक भी लेक्चर नहीं दिया ! क्या हो गया है मुझे ? कहीं मुझे लकवा तो नहीं मार गया है ?

  पलक झपकते ही उन्होंने इतना सोच डाला और फिर ड्राइवर को हुक्म दिया, ‘‘गाड़ी मोड़ लो। हम इस कॉलिज का आकस्मिक निरीक्षण करेंगे।’’

  उनके कॉलिज में आते ही छुट्टी हो गई। लड़के दर्जों से बाहर आकर मैदान में बैठ गए। स्थानीय हाकिम, बागों में कौड़ियाँ खेलनेवाले जुआड़ी, ताड़ीघर पर बैठे हुए जवार के शोहदे–वे भी बात–की–बात में मौक़े पर आ गए। अच्छी–खासी मीटिंग हो गई। न भी आते तो भी मीटिंग हो जाती। बोलनेवाला बेशरम हो तो लैम्पपोस्ट का सहारा काफ़ी है। अकेले ही मीटिंग कर लेगा। पर यहाँ सचमुच की मीटिंग हो गई। लड़कों के होने का प्रत्यक्ष फल यह निकला कि उन्हें कमरे के अन्दर रखा तो कॉलिज हो गया, बाहर रखा तो मीटिंग हो गई।

  उन्होंने लड़कों को बताया कि वे देश के भविष्य हैं और मास्टरों को बताया कि वे देश के भविष्य–निर्माता हैं। लड़के और मास्टर यह पहले ही से जानते थे। फिर उन्होंने लड़कों को डाँटा कि उनमें संयम की कमी है, वे अड़तालीस घण्टे तो क्या, आठ घण्टे भी चुप नहीं रह सकते। फिर मास्टरों को डाँटा कि वे उन्हें संयम नहीं सिखाते। उन्होंने शिकायत की कि लड़के राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान आदि के बारे में कुछ नहीं जानते और मास्टर यह जानकर भी महँगाई का भत्ता और अधिक वेतन माँगते हैं। मास्टर और लड़के अपने बारे में कुछ सोच भी न पाए थे कि वे उस विषय पर उतर आए, जिस पर प्रत्येक व्याख्यानदाता शिक्षा–संस्थाओं में ज़रूर बोलता है।

  उन्होंने कहा कि हमारी शिक्षा–पद्धति ख़राब है और इस शिक्षा को पाकर लोग क्लर्क ही बनना चाहते हैं। उन्होंने लड़कों को सुझाव दिया कि इस शिक्षा–पद्धति में आमूल परिवर्तन की ज़रूरत है। उन्होंने सैकड़ों विद्वानों और हज़ारों समितियों का हवाला देकर बताया कि हमारी शिक्षा–पद्धति खराब है। उन्होंने विनोबा का और यहाँ तक कि गाँधी का हवाला दिया। तब कॉलिज के मैनेजर वैद्यजी ने भी सिर हिलाकर कहा कि हमारी शिक्षा–पद्धति ख़राब है। उसके बाद सिर हिलाकर प्रिंसिपल, अन्य मास्टर और बाज़ार के घुमक्कड़ों और शोहदों तक ने इस बात का समर्थन किया। उनकी बात से ताड़ी पीनेवालों और जुआड़ियों तक को पूरा इत्मीनान हो गया कि हमारी शिक्षा–पद्धति ख़राब है।

  उन्होंने कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में पिछली शताब्दी की यह एक असाधारण उपलब्धि है कि हम इतनी जल्दी जान गए कि हमारी शिक्षा–पद्धति ख़राब है। फिर उन्होंने, लड़कों को खेती करनी चाहिए, दूध पीना चाहिए, स्वास्थ्य बनाना चाहिए और भविष्य का नेहरू और गाँधी बनने के लिए तैयार रहना चाहिए–ये सब बातें बतायीं जो लड़�
��े उनको भी बता सकते थे। इसके बाद समन्वय, एकता, राष्ट्रभाषा का प्रेम–इस सब पर एक–एक अनिवार्य जुम्ला बोलकर, कॉलिज की समस्याओं पर विचार करने का सालाना वादा करके, सेवा के बाद तत्काल मिलनेवाली मेवा खाकर और चाय पीकर वे फिर सत्तर मील की रफ़्तार से आगे बढ़ गए।

  मास्टर और लड़के ‘भाइयो और बहनो’ की नक़ल उतारते हुए अपने–अपने घर चले गए। शिक्षा–पद्धति में आमूल परिवर्तन के सुझाव पर अमल करने के लिए कॉलिज में माली, चपरासी और मज़दूर रह गए।

  क्लर्क ने मेवे की प्लेट पर निगाह डाली और उसमें बचे हुए काजू के एक मात्र टुकड़े को पहले मुँह में रखना चाहा, बाद में कुछ सोचकर उसे नाली में फेंक दिया।

  20

  बद्री पहलवान पड़ोस के ज़िले में एक नौजवान की ज़मानत लेने गए थे। उस पर बलात्कार और मारपीट का मुक़दमा चलाया जा रहा था। जाने से पहले उन्होंने रंगनाथ को सुनाकर कहा, ‘‘गुण्डा है। जहाँ जाता है, कोई–न–कोई झंझट पाल लेता है।’’

  उन्होंने वैद्यजी से डेढ़ हज़ार रुपये के नोट लेकर अपनी जवाहरकट जैकेट की भीतरी जेब में ठूँस लिये। रंगनाथ ने पूछा, ‘‘इतना रुपया नक़द ले जाने की क्या ज़रूरत है ?’’

  बद्री बोले, ‘‘गुण्डे इजलासों के नीचे ही नहीं, ऊपर भी हैं। हाकिम तो रो–गाकर ज़मानत कर देता है और काग़ज़ अहलकारों के पास चला जाता है।

  ‘‘फिर बीस झंझट। ज़मानत का काग़ज़ लिखाओ। जायदाद का नक्शा पेश करो। फिर उसकी कच्ची तसदीक़, फिर पक्की तसदीक़ और हर जगह रुपये गिनाते जाओ।

  ‘‘तभी अब भले आदमी आमतौर पर ज़मानत नहीं कराते, जेल में रह लेते हैं।

  ‘‘नकदी में बड़ा आराम है। जैसे ही हाकिम कहेगा कि हज़ार रुपये की ज़मानत दो, वैसे ही दस हरे–हरे नोट मेज़ पर फेंक दूँगा और कहूँगा कि लो भाई, रख लो जहाँ मन चाहे।’’

  रंगनाथ ने बात को आगे बढ़ाया। पूछा, ‘‘बद्री दादा, जब वह गुण्डा है तो उस पर हाथ क्यों रखते हो ? सड़ने दो साले को हवालात में ?’’

  ‘‘गुण्डा कौन नहीं है रंगनाथ बाबू ? गुण्डे के सिर पर सींग थोड़े ही निकलते हैं ?’’ बद्री ने धीरे–से कहा, ‘‘मैं तो कुल इतना जानता हूँ कि कभी वह भी हमारे अखाड़े का चेला था। दुनिया की निगाह में वह चाहे जितना बड़ा गुण्डा हो जाय, मैं तो तब की याद करता हूँ जब वह मेरी लँगड़ी खाकर लद‌्द–लद‌्द गिरा करता था...।’’

  उनकी आवाज़ मुलायम और चिकनी हो गई, ‘‘...आख़िर अपना ही पालक–बालक है।’’

  ‘पालक–बालक’ का प्रयोग रंगनाथ के लिए नया था, पर वह उसका मतलब बखूबी समझ गया। उसकी खोपड़ी में एक शीर्षक कौंधा ‘आधुनिक भारत में पालक–बालकों का महत्त्व’।

  ‘‘कल तक अखाड़े में लात मारा करता था।’’ बद्री पहलवान बड़ी भावुकता से कह रहे थे, ‘‘अब पूरा पहलवान बन गया है।’’

  हर ‘पालक–बालक’ के कैरियर की शुरुआत इसी तरह होती है। रंगनाथ ने सोचा :

  प्रत्येक महापुरुष के इर्द–गिर्द ‘पालक–बालकों’ का मेला लगा हुआ है। पुरुष जब महापुरुष बन जाता है तो वह अपनी इज़्ज़त अपने ‘पालक–बालकों’ को सौंप देता है। ‘पालक–बालक’ उस इज़्ज़त को फींचना शुरू करते हैं। कुछ दिन बाद वह हज़ार धाराओं में फूटकर बहने लगती है। वह लोकसभा और विधानसभा की बहसों को सराबोर करती है, अख़बार और रेडियो उसके छींटों से गँधाने लगते हैं, पूरा लोकतन्त्र उसमें डूबने– उतराने लगता है, अन्त में वह बेहयाई के महासागर में समा जाती है।

  बद्री पहलवान ने बताना शुरू किया, ‘‘झगड़ा इस तरह से हुआ कि पड़ोस में एक बाँभन रहता था...’’

  ...महापुरुष अपने सिंहासन पर बैठे अपने ‘पालक–बालकों’ का खेल देखते रहते हैं। इस देश में महापुरुषों और ‘पालक–बालकों’ के अलावा कुछ सिरफिरे भी बसते हैं। वे कभी–कभी महापुरुष के सामने आकर चीख़ने लगते हैं। कहते हैं, ‘‘महापुरुष, तुम्हारा ‘पालक–बालक’ बड़ा भ्रष्टाचार कर रहा है। तुम्हारी इज़्ज़त को रगड़–रगड़कर पानी बनाए दे रहा है।’’ ऐसे मौक़े पर ज़्यादातर महापुरुष इतना कहते हैं, ‘‘भ्रष्टाचार ! माननीय महाशय, आओ, हम पहले इस बात की जाँच करें कि भ्रष्टाचार होता क्या है ?...’’ रंगनाथ सोचता रहा।

  ‘‘तो पड़ोस में एक बाँभन रहता था। उसकी जोरू कुछ नौजवान–सी थी।’’ ब
द्री पहलवान के यह कहते ही रंगनाथ ‘आधुनिक भारत में पालक–बालकों का महत्त्व’ की बात भूल गया। बाँभन के पारिवारिक इतिहास को ध्यान से सुनने लगा।

  ‘‘...हमारा पट‌्ठा भी पड़ोस में रहता था। बाँभन की जोरू से कुछ घसड़–फसड़ हो गई। महीनों यही कारोबार चलता रहा। बाँभन सबकुछ देखकर भी अनजान बना रहा। एक दिन ऐसा हुआ रंगनाथ बाबू, कि सींक की आड़ भी नहीं रही। बाँभन ने सरासर अपनी आँखों से देखा कि वह पट‌्ठा उसकी जोरू को लपेटे बैठा है। पर उसने आँखें–भर मिलमिलायीं और झोले–जैसा मुँह लटकाकर चुपचाप चल दिया। इस पर आ गया हमारे पट्ठे को ताव। तबीयत का साफ़ है, ज़्यादा गिचिर–पिचिर में पड़ता नहीं है। वहीं से कूदकर उसने बाँभन की गर्दन पकड़ ली और उसे झकझोरकर कहा कि क्यों बे, सामने से निकला जा रहा है और तुझे शरम नहीं लगती ! मर्द–बच्चा होकर तुझे गुस्सा भी नहीं आता। अबे मर्द है तो मुझे एक बार ललकारा तो होता।

 

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