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Rag Darbari

Page 49

by Shrilal Shukla


  इस तरह की भुनभुनाहट शहर में रहते हुए उसने हर समय, हर जगह सुनी थी। वह जानता था कि हमारा देश भुनभुनानेवालों का देश है। दफ़्तरों और दुकानों में, कल–कारखानों में, पार्कों और होटलों में, अख़बारों में, कहानियों और अ–कहानियों में चारों तरफ़ लोग भुनभुना रहे हैं। यही हमारी युग–चेतना है और इसे वह अच्छी तरह से जानता था। यहाँ गाँव में भी, उसने यही भुनभुनाहट सुनी थी। किसान अमला– अहलकारों के ख़िलाफ़ भुनभुनाते थे, अहलकार अपने को जनता से अलग करके पहले जनता के ख़िलाफ़ भुनभुनाते थे और फिर दूसरी साँस में अपने को सरकार से अलग करके सरकार के ख़िलाफ़ भुनभुनाते थे। लगभग सभी किसी–न–किसी तकलीफ़ में थे और कोई भी तकलीफ़ की जड़ में नहीं जाता था। तकलीफ़ का जो भी तात्कालिक कारण हाथ लगे, उसे पकड़कर भुनभुनाना शुरू कर देता था।

  वैद्यजी की यही विशेषता थी कि वे भुनभुनाते नहीं थे; आज उन्होंने भुनभुनाकर रंगनाथ का दिल तोड़ दिया था। उसे आशा थी कि वे गरजेंगे और उसके बाद बरसेंगे। पर वे पहले तो गरजे और बाद में भुनभुनाकर बैठ गए थे और यह तब हुआ था जबकि अफ़सर ने दुम हिलाने और भुनभुनाने का काम साथ–साथ निभाकर उन्हें इशारा दिया था कि कोअॉपरेटिव यूनियन के हिसाब का स्पेशल आडिट कराना ज़रूरी होगा।

  यह गरजनेवालों का नहीं; भुनभुनानेवालों का देश है, उसने सोचा।

  रात के सन्नाटे को तोड़ती हुई एक फूहड़ आवाज़ ने रंगनाथ के कान पर तमाचा–सा मारा। कुसहरप्रसाद अपने दरवाज़े पर बैठे–बैठे किसी को गाली देने लगे थे। भुनभुनानेवालों के वयोवृद्ध नेता। पर वे रो नहीं रहे थे, उससे ज़ाहिर था कि गालियाँ छोटे पहलवान के लिए नहीं हैं, वे किसी और के लिए हैं। किसके लिए हैं, यह जानना मुश्किल था, क्योंकि कुसहर जब छोटे को न देकर किसी और को गाली देते थे तो उसका कोई मतलब नहीं होता था, वह सिर्फ़ एक भावात्मक स्थिति–भर थी; वैसे ही जैसे जंगल में मोर नाचता है, उद्‌घाटन के मौक़े पर नेता बोलता है।

  आवाज़ें। सिर्फ़ आवाज़ें। कुसहरप्रसाद रह–रहकर गरजते हैं और चुप हो जाते हैं। गाँव के दूसरे छोर पर एक कुत्ता भूँकता है, फिर अचानक ‘कें–कें’ करता हुआ दिमाग़ के सामने एक ऐसे कुत्ते की तस्वीर खींच देता है जिसकी दुम पिछली टाँगों के बीच में है, मुँह छाती पर तिरछा होकर हिलग रहा है और दायें से किसी की लाठी खाकर वह टेढ़ा–टेढ़ा चलने लगा है। कुछ और कुत्ते भूँकते हैं। रामाधीन भीखमखेड़वी के दरवाज़े की ओर से किसी नौजवान की तीखी और मिमियाती हुई आवाज़ आती है, ग़ौर से सुनने पर उसके अन्दर से नौटंकी का एक चौबोला निकलता है–

  तेरी बातों से जाहिर मुझे यह हुआ,

  इश्क तेरा रहा किसी कंगाल से।

  वह बार–बार इसी लाइन को दोहराता है। गाते–गाते उसका गला रुँधने और लड़खड़ाने लगता है। यह ठर्रे का असर हो सकता है और यह भी हो सकता है कि वह अपनी माशूक़ा के इस दुर्भाग्य पर, कि उसे पहले किसी एक कंगाल से इश्क करना पड़ा, आँसू बहाने लगा हो। गाँव के चार–पाँच लफंगे नीचे गली से निकलते हैं। गयादीन के यहाँ चोरी हो जाने के बाद से वे रोज़ रात को पहरा देते हैं और ‘जागते रहो’ के साथ–साथ कुछ नये नारे भी इस्तेमाल करते हैं। वे आवाज़ें लगाते हैं :

  जागते रहो!

  एक चवन्नी चाँदी की—जय बोल महात्मा गाँधी की !

  नारा, सभी नारों की तरह, खोखला और निकम्मा है, क्योंकि चवन्नी की जगह अब पच्चीस पैसे चलते हैं। चवन्नी ख़त्म हो चुकी है, चाँदी ख़त्म हो चुकी है, महात्मा गाँधी ख़त्म हो चुके हैं। वे बिना समझे–बूझे, बिना हिचके हुए, नारे लगाते रहते हैं। कहीं एक रेलगाड़ी जा रही है। इंजिन की सीटी की धुँधली आवाज़ थोड़ी देर के लिए इन ऊँचे–नीचे स्वरों को कुछ पीछे धकेल देती है।

  धुँधली आवाज़ों और अँधेरे के माहौल में वह न जाने कब सो गया था। सोते–सोते उसे लगा कि वह किसी लिफ़्ट पर खड़ा है और कई मंज़िल नीचे की ओर धँस रहा है। अचानक वह लिफ़्ट तीन–चार मंज़िलों को एक साथ पार करके ऊपर चला आया। रंगनाथ कुनमुनाया।

  नारियल के तेल और किसी सस्ते इत्र की महक उसकी नाक के भीतर घुसी; न वह खुशबू थी और न बदबू; वह सिर्फ़ बू थी। चूड़ियों की हल्की–सी खनक न�
�� उसकी नींद को एक धक्का–सा दिया और तब एक क्षण में उसने वह अनुभव किया जो एक जीवन–भर खजुराहो और कोणार्क की कला का अध्ययन करके भी नहीं किया जा सकता था।

  वह चारपाई के किनारे बैठी थी। उसने एक हाथ रंगनाथ के दूसरी ओर टिका लिया था। उसको अपनी छाती पर दो स्तनों का गहरा दबाव महसूस हुआ। उन स्तनों और उसकी छाती के बीच उन्हें ढकनेवाले कपड़ों के अलावा एक मोटा लिहाफ़ भी था। पर उनकी गर्मी और मज़बूती छिप नहीं पा रही थी। रंगनाथ की साँस रुँध–सी गई।

  लिहाफ़ उसके चेहरे से खींच लिया गया था, पर अँधेरे में वे एक–दूसरे को देख नहीं सकते थे। उसकी छाती पर पड़नेवाला गर्म और विस्फोटक दबाव कुछ बढ़–सा गया। उसी वक़्त उसके गाल पर एक चिकना रेशमी गाल आकर टिक गया। एक गहरी, खिंची हुई सिसकी ने कहा, ‘‘हाय, सो गए ?’’

  रंगनाथ की नींद उड़ गई। उसने अपना सिर हिलाया। उसके मुँह से अस्वाभाविक तौर से निकला, ‘‘कौन ? कौन है ?’’

  एक क्षण के लिए उसकी छाती पर टिके हुए स्तनों के अन्दर की धड़कन जैसे बन्द हो गई, फिर अचानक वह उछलकर चारपाई से दूर खड़ी हो गई। दबे गले से उसने कहा, ‘‘हाय, मेरी मैया !’’

  अपनी माँ का आदर करना बहुत अच्छी बात है, पर ये शब्द इस समय सिर्फ़ घबराहट प्रकट करने के मतलब से कहे गए थे। रंगनाथ रज़ाई झटककर खड़ा हो गया, पर तब तक वह इस छत से उस छत पर और उस छत से किसी और छत पर पहुँच गई।

  खुले दरवाज़े से बाहर आकर वह बरामदे में खड़ा हो गया। ठंडक थी। काफ़ी देर तक वह कान लगाकर सुनता रहा, पर हवा की सुरसुराहट के सिवा उसे कुछ और नहीं सुन पड़ा। आनेवाली को ‘हाय मेरी मैया’ के पवित्र नाम–स्मरण के बाद और कोई सन्देश देना बाक़ी नहीं बचा था।

  दरवाज़ा अन्दर से बन्द करके जब वह चारपाई पर दुबारा लेटा तो उसे कई बातें समझ में आईं। पहली तो यही कि कोणार्क, भुवनेश्वर और खजुराहो आदि की नारी-मूर्तियों का उभार पत्थर से उतरकर यदि साँस में आ जाए तो वह आदमी को पागल बना देने के लिए काफ़ी है। उसने यह भी समझ लिया कि पुरातत्त्व के बारे में और भारतीय कला के ऊपर उसने जितना पढ़ा है, सब अधूरा और वाहियात है और भारतीय कला में डॉक्टरेट लेने के बजाय सुरसुन्दरी पोज़वाले दो जीवन्त स्तनों का सहारा पा लेना अपने–आपमें एक महान् उपलब्धि है।

  और इन सब हल्की–फुल्की बातों को एक किनारे धकेलकर एक दूसरी बात– असली बात–जो उसे मथती रही, वह यह थी, ‘‘श्रीमन्, आप चुग़द हैं। आपको बोलने की क्या ज़रूरत थी ? आप घबरा क्यों रहे थे ? आपने उसे कुछ और करने का मौक़ा क्यों नहीं दिया ?

  ‘‘श्रीमन्, आप चुग़द नहीं हैं, गधे हैं। चूके हुए अवसरों की लिस्ट में एक और लाइन जोड़ ली न ?

  ‘‘श्रीमन्, आप कुछ नहीं हैं, सिर्फ़ एक हिन्दुस्तानी विद्यार्थी हैं, जिनकी क़िस्मत में तस्वीर की औरत–भर लिखी है।’’

  सोने की दुबारा कोशिश की, पर नींद कहाँ आती है ? उसका हाथ अपने–आप छाती की ओर पहुँच गया और खेदपूर्वक स्वीकार करने लगा कि वहाँ और कुछ नहीं है, केवल उसी की खुरदरी छाती है।

  कौन है वह ? इस विषय पर वह ज़्यादा सोच नहीं सका, क्योंकि सोचने के रास्ते में दो पहाड़ खड़े हुए थे।

  21

  सवेरे गाँव में ख़बर फैल गई कि जोगनाथ को पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है। लोगों को बड़ा अचम्भा हुआ कि जोगनाथ को, जिसे वैद्यजी का आदमी कहा जाता था, पुलिस ने छूने की हिम्मत दिखा दी। गाँव के गुण्डे और भले आदमी सभी घबरा उठे। गुण्डे इसलिए कि जब वैद्यजी के गुण्डे को पुलिस ने नहीं छोड़ा, तो हम किस खेत की मूली हैं; और भले आदमी इसलिए कि जब पुलिस अपने हमजोलियों के साथ ऐसा सुलूक करने लगी तो मौक़ा पड़ने पर हमारे साथ किस तरह पेश आएगी।

  पुलिस की हर गिरफ़्तारी की तरह यह गिरफ़्तारी भी नाटकीय परिस्थिति में हुई।

  यह बताने की शायद ज़रूरत नहीं कि परिस्थिति को नाटकीय बनाने का श्रेय पुलिस ही को था। दारोग़ाजी ने पढ़ा था कि ख़तरनाक आदमियों को गिरफ़्तार करने का सही समय रात का चौथा पहर है। इसलिए इस बात का लिहाज़ छोड़कर कि जोगनाथ शिवपालगंज में हमेशा घूमा करता था और उसे थाने पर बुलाकर किसी भी समय इत्मीनान से पकड़ा जा सकता था, उन्होंने उसकी गिरफ़्तारी के लि
ए ब्राह्‌ममुहूर्त का समय चुना।

  सवेरे साढ़े चार बजे पुलिस ने उसके मकान को चारों ओर से घेर लिया। सभी जानते थे कि वहाँ गोली चलाने की नौबत नहीं आएगी, इसलिए सभी सिपाहियों ने हाथ में राइफलें ले लीं। दारोग़ाजी ने पिस्तौल में गोलियाँ भर लीं और फुसफुसाकर अपने हेड कांस्टेबिल से कहा, ‘‘कानपुर की तरफ़ से बदमाशों का एक गिरोह कल इधर आया है। हो–न–हो, वे जोगनाथ के घर पर टिक गए हों।’’

  हेड कांस्टेबिल ने कहा, ‘‘हुज़ूर, कानपुर से आनेवाले वे लोग भूदान के कार्यकर्त्ता हैं।’’

 

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