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Rag Darbari

Page 60

by Shrilal Shukla


  जवाब में रुप्पन बाबू ने आँख नहीं मारी और न यही कहा, ‘‘तुम कहो राजा, तुम्हारे क्या हाल हैं ?’’ उन्होंने सिर हिलाकर सिर्फ़ यह बात पैदा की कि तुम मज़ाक करो, हम नहीं करेंगे, क्योंकि हमारा मूड खराब है। वे काला चश्मा लगाए, गरदन पर रेशमी रूमाल लपेटे, मन्द गमन करते हुए आए और चबूतरे पर धम–से बैठ गए। थोड़ी देर के लिए उपस्थित सज्जनवृन्द में शान्ति छा गई।

  छोकड़े पहलवान ने निठल्लेपन में अपना बाजू फैलाकर उसे कोहनी से मोड़ा। कोहनी के ऊपर चूहे के आकार की एक बचकानी मांसपेशी उभर आयी। उसे प्यार के साथ बार–बार देखते हुए वह रुप्पन बाबू के पास आकर बैठ गया। उसने दोबारा आँख मारी और रुप्पन बाबू की पीठ सहलाते हुए कहा, ‘‘क्या बात है बाबू ! आज रंग कुछ बदरंग हो रहा है ?’’

  शिवपालगंज में कहावत मशहूर थी, ‘माशूकों के तीन नाम : राजा, बाबू, पहलवान।’ इस हिसाब से रुप्पन बाबू के लिए ये विशेषण हैसियत गिरानेवाले हो सकते थे। पर शिवपालगंज में यह भी मशहूर था कि इस छोकड़े पहलवान को रुप्पन बाबू कुछ उसी तरह छूट दिए हैं, जिस तरह सुना जाता है, कड़ी बात कहने की छूट सरदार पटेल को गाँधीजी की तरफ़ से मिली हुई थी। इसलिए उनकी ये आपसी बातें कुछ ‘महापुरुषों का मनोविनोद’ वाले वज़न पर आ जाती थीं।

  रुप्पन बाबू ने अपने दोस्त की मौजूदगी और उसकी भाषण–शैली पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चुपचाप बैठ रहे। कॉलिज के एक लड़के ने कहा, ‘‘गुरू, हम लोगों को तुमने कुछ करने की बात ही नहीं बतायी। सनीचर की तरफ़ से चुनाव में वह गर्मी नहीं है, जो रामाधीन की तरफ़ से है।’’

  रुप्पन बाबू ने गर्भवती आवाज़ में कहा, ‘‘अब सर्दी–गर्मी की कोई बात नहीं रही। चुनाव के नतीजे का अभी–अभी ऐलान हो गया है। सनीचर जीत गए हैं।’’

  छोकड़े पहलवानों और कॉलिज के लड़कों में भभ्भड़ मच गया। चारों ओर से यही सवाल हो रहा था, ‘‘कैसे ? कैसे ? सनीचर जीत कैसे गए ?’’

  आँख मारकर रुप्पन बाबू के साथी ने कहा, ‘‘बताओ तो पहलवान, सनीचरा जीत कैसे गया ?’’

  ‘‘महिपालपुरवाली तरकीब से।’’ रुप्पन बाबू ने थकी आवाज़ में कहा।

  चुनाव जीतने की तीन तरकीबें हैं : एक रामनगरवाली, दूसरी नेवादावाली और तीसरी महिपालपुरवाली।

  गाँव–सभा के चुनाव में रामनगर में एक बार दो उम्मीदवार खड़े हुए थे : रिपुदमनसिंह और शत्रुघ्नसिंह। दोनों एक ही जाति के थे, इसलिए जाति के ऊपर वोटों का स्वाभाविक बँटवारा होने में दिक़्क़त पड़ गई। जो ठाकुर थे वे इस पसोपेश में पड़ गए कि यह भी ठाकुर और वह भी ठाकुर, किसे वोट दें और किसे न दें। जो ठाकुर न थे, वे इस चक्कर में आ गए कि ये जब अपनी जाति के ही नहीं हैं तो इन्हें वोट दिया तो क्या और न दिया तो क्या। कुछ दिनों बाद पता चला कि रिपुदमनसिंह और शत्रुघ्नसिंह दोनों के नामों का मतलब भी एक है और वह यह है कि ऐसा शेर जो दुश्मन को खा जाय। इस पर गाँववालों ने प्रजातन्त्र की परम्परा के अनुकूल यह निष्कर्ष निकाला कि कोई भी सभापति हो, हमारी क्या हानि है और खाने दो उन्हें एक–दूसरे को।

  चुनाव के पाँच दिन पहले तक इसी तरह की उपेक्षा का वातावरण बना रहा। होता यह था कि उम्मीदवार लोगों के वोट माँगने के लिए जाते तो लोग दोनों से ज़्यादातर यही कहते, ‘‘हमें कौन वोट का अचार डालना है ! जितने कहो, उतने वोट दे दें।’’

  इस सबसे दोनों उम्मीदवार इस नतीजे पर पहुँचे कि हमें कोई भी वोट नहीं देगा। घबराकर वे प्रजातन्त्र की दुहाई देने लगे। उन्होंने लोगों को उनके वोट की कीमत बतानी शुरू कर दी। उन्होंने कहा कि अगर तुम अपना क़ीमती वोट ग़लत आदमी को दे दोगे तो प्रजातन्त्र ख़तरे में पड़ जाएगा। लोग यह बात समझ नहीं पाए; जो समझे भी, उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि ग़लत आदमी को वोट देने से प्रजातन्त्र को कोई खतरा नहीं, तुम वोट दे सकते हो, प्रजातन्त्र के लिए इतना ही काफ़ी है। ग़लत–सही तो लगा ही रहता है; देखो न, सारे देश में क्या हो रहा है...।

  ऐसी बात कहनेवाले दो–एक लोग ही थे, पर प्रजातन्त्र को निरर्थक बनाने के लिए इतना ही काफ़ी था। इसलिए दोनों उम्मीदवारों ने अपने प्रचार का तरीक़ा बदल दिया और प्रधान के अधिकारों की बात करते हुए कहना शुरू किया कि वह गाँव क�
� सारी बंजर ज़मीन दूसरों को दे सकता है और जो बंजर लोगों ने बेक़ायदे अपने कब्जे़ में कर लिया है उससे उन्हें बेदखल करा सकता है।

  किसान को, जैसा कि ‘गोदान’ पढ़नेवाले और ‘दो बीघा ज़मीन’ जैसी फ़िल्में देखनेवाले पहले से ही जानते हैं, ज़मीन ज़्यादा प्यारी होती है। यही नहीं, उसे अपनी ज़मीन के मुक़ाबले दूसरे की ज़मीन बहुत प्यारी होती है और वह मौक़ा मिलते ही अपने पड़ोसी के खेत के प्रति लालायित हो उठता है। निश्चय ही इसके पीछे साम्राज्यवादी विस्तार की नहीं, सहज प्रेम की भावना है जिसके सहारे वह बैठता अपने खेत की मेंड़ पर है, पर जानवर अपने पड़ोसी के खेत में चराता है। गन्ना चूसना हो तो अपने खेत को छोड़कर बग़ल के खेत से तोड़ता है और दूसरों से कहता है कि देखो, मेरे खेत में कितनी चोरी हो रही है। वह गलत नहीं कहता है क्योंकि जिस तरह उसके खेत की बग़ल में किसी दूसरे का खेत है उसी तरह और के खेत की बग़ल में उसका खेत है और दूसरे की सम्पत्ति के लिए सभी के मन में सहज प्रेम की भावना है।

  ये बातें ‘गोदान’ में इतनी साफ़ नहीं लिखी गई हैं और बम्बइया फिल्मों में–शायद कृश्नचन्दर और ख्वाजा अहमद अब्बास के डर के कारण–या प्रगतिशीलता के जोश में पचास फ़ीसदी अन्धे हो जाने के कारण, या सिर्फ़ जहालत के कारण–साफ़ तौर पर नहीं दिखायी गई हैं, इसलिए उन्हें ज़रा सफ़ाई से कहना पड़ा, अगर्चे अपने देश में सफ़ाई का काम कलाकारों का नहीं है, फिर भी...।

  तो जैसे ही गाँववालों को मालूम हुआ कि गाँव–पंचायत का सम्बन्ध ज़मीन के लेन–देन से है और उनके पड़ोस का खेत उनका हो सकता है और अमुक किसान के लावारिस मर जाने पर उन्हें उत्तराधिकारी घोषित करके उनका राजतिलक हो सकता है, किसानों की सहज प्रेमवाली भावना लबलबा उठी। फिर तो वोटरों को ज़मीन के प्रेम ने गाँव–पंचायत की ओर ठेला और गाँव–पंचायत के प्रेम ने उन्हें प्रधान–पद के उम्मीदवारों की ओर ठेला और चुनाव के मामले में उनका दिमाग़ एकदम सक्रिय हो गया। उसके बाद उनके सामने वही मानसिक समस्या पैदा हो गई जो चीनी हमले के मौक़े पर आचार्य कृपलानी ने पूरे देश के सामने पैदा कर दी थी। वे सोचने लगे कि तटस्थ रहना बिलकुल बेकार है, इसमें कमज़ोरी भी है और नुक़सान भी है और अगर तुम चैन से रहना चाहते हो तो रिपुदमन और शत्रुघ्न में से किसी एक का पल्ला पकड़ लो और बहुत ज़्यादा तटस्थ बनने की कोशिश मत करो, नहीं तो दोनों ओर से मारे जाओगे।

  अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में तटस्थता की समस्या को हम लोग तो चुपचाप कतराकर झेल ले गए क्योंकि इस तरह से हम कई समस्याओं को झेल चुके थे; पर रामनगरवालों को घमण्ड था कि वे अपना भला–बुरा ज़्यादा पहचानते हैं, इसलिए उन्होंने इस समस्या से कतराना ठीक नहीं समझा और देखते–देखते पूरा गाँव दो दलों में बँट गया। एक दल वह जिसको खाली ज़मीन का बँटवारा रिपुदमन के हाथों करवाना मंजूर था और दूसरा दल वह, जिसे इस काम के लिए शत्रुघ्नसिंह के हाथों में ज़्यादा कलाकारी दिखायी देती थी।

  चुनाव के जब दो दिन रह गए तो दोनों ओर से काफ़ी सरंजाम दिखायी दिए। लोगों ने चीख़–चीख़कर इन्क़लाब ज़िन्दाबाद के नारे लगाए, एक–दूसरे की माँ–बहिनों में दिलचस्पी दिखानेवाली बातें कहीं, अपनी–अपनी लाठियों में तेल लगाया, भाले–बल्लमों को चमकाकर उन्हें लाठियों में फिट किया और जान हथेली पर रखकर उसी हथेली में गाँजे की चिलम पकड़ ली। जब इतना सब हो गया तो रिपुदमनसिंह ने अपने छोटे भाई सर्वदमन को बुलाकर प्रेम से कहा कि भाई, अगर इस लड़ाई में मेरी जान निकल जाय और मेरे साथ में पच्चीस आदमियों की भी जान निकल जाय, तो तुम क्या करोगे ?

  सर्वदमनसिंह वैसे तो वकालत पास थे, पर जिस तरह किसी ज़माने में बड़े–बड़े वकील–‘बालिश्टर’ वकालत छोड़कर राजनीति में आ गए थे, वैसे ही वे अपनी वकालत छोड़कर पिछले चार सालों से स्थानीय राजनीति में कूद पड़े थे। फ़र्क़ यह था कि स्वतन्त्रता-संग्रामवाली राजनीति में आनेवाले बहुत–से वकीलों की आमदनी के ज़रिये लोगों को मालूम न हो पाते थे, पर सर्वदमन की जीविका का साधन सभी को अच्छी तरह मालूम था और सब उससे वाजिब ढंग से प्रभावित भी थे। उनके पास दस गैसबत्तियाँ थीं
जो शादियों के मौसम में किराए पर चलती थीं। साथ ही उनके पास दो बन्दूकें थीं, जो डकैतियों के मौसम में किराये पर चलती थीं। कुल मिलाकर सर्वदमन को इतना मिल जाता था कि वे इत्मीनान से ग्रामीण राजनीति का संचालन कर सकें। गैसबत्तियाँ और बन्दूकें दूर–दूर तक जाती थीं और उन्हीं के अनुरूप उनके न जाने कितने व्यापक और गहरे सामाजिक सम्पर्क हो गए थे और उसके अनुरूप सर्वदमन में बातचीत करने की लियाक़त और आत्मविश्वास आ गया था।

  भाई की बात का जवाब सर्वदमन ने आत्मविश्वास की वाजिब मात्रा के साथ दिया। बोले, ‘‘भाई, अगर तुम और तुम्हारे पचीस आदमी इस लड़ाई में मारे गए तो दूसरी तरफ़ शत्रुघ्नसिंह और उनके पचीस आदमी भी मारे जाएँगे। इतना तो हिसाब से होगा; उसके बाद जैसा बताओ, वैसा किया जाए।’’

  रिपुदमन ने सर्वदमन को गले से लगाकर रोने की कोशिश की, पर या तो आदमी फिल्मी अभिनेता हो या नेता, तभी वह इच्छा–मात्र से रो सकता है। मतलब यह कि अभ्यास की कमी से रिपुदमन की कोशिश नाकामयाब हुई। सर्वदमन ने उन्हें धीरे–से अपने से अलग किया और बोले, ‘‘जाने दो। और बताओ, पचीस–पचीस का हिसाब ठीक करने के बाद क्या किया जाय ?’’

 

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