Rag Darbari

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Rag Darbari Page 71

by Shrilal Shukla


  पर जिस लड़के का नाम रुप्पन बाबू था, वह अब दुखी होने लगा था क्योंकि कुछ दिनों से राजनीतिक पसन्द और नापसन्दगी में उसने अपनी व्यक्तिगत पसन्द घुसेड़नी शुरू कर दी थी और इसमें जो खराबियाँ उसे पहले नहीं दीखती थीं, वे अब एक फुटबाल की तरह उसकी पलकों से लटकी हुई नज़र आने लगी थीं। पहले वह कॉलिज के प्रिंसिपल को अपने पिता का गुलाम-भर समझता था, अब उसे जान पड़ता था कि वह निहायत मूर्ख और ज़िद्दी है और मास्टरों के प्रति अपने विद्वेष को पूरा करने के लिए वह उसके पिता को गुटबन्दी में खींच रहा है। कुछ मास्टर पहले उसे मूर्ख और बौड़म जान पड़ते थे, पर इधर कुछ दिनों से उसे लग रहा था कि बौड़म होते हुए भी वे बदमाश नहीं हैं और उनकी रक्षा होनी चाहिए। बद्री पहलवान कुछ दिन पहले उसे ताक़त की आख़िरी मंज़िल–जैसे दिखते थे और उसे उनकी ताक़त का अहंकार था, पर अब उसकी निगाह आसपास के ज़िलों के गुण्डों पर पड़ने लगी थी जो कभी–कभी शिवपालगंज में आते थे और बद्री से बातचीत करके चले जाते थे। यानी उस लड़के के मन में वह बेचैनी पैदा हो गई थी जिसकी वजह से आदमी विभीषण, ट्रॉट्स्की या सुभाषचन्द्र बोस बनकर कुछ कर दिखाना चाहता है और अन्त में फाँसी के तख्ते पर, जेल में या जयप्रकाशनारायण और अच्युत पटवर्धन के संन्यास में जाकर दम लेता है।

  दूसरा लड़का भी कुछ अनमना–सा हो रहा था, क्योंकि इन पाँच महीनों में उसने देख लिया था कि जो खेल मज़ाक में शुरू हुआ, उसमें लोगों के हाथ–पाँव टूटने लगे हैं और हँसकर जो धूल दूसरों की आँखों में झोंकी गई, उससे उनकी आँखें फूट गई हैं। जब सनीचर के प्रधान बनने की बात उठी थी, या जब छोटे पहलवान जोगनाथ के ख़िलाफ़ गवाही देने गए थे तो सबकुछ मज़ाक–जैसा दिखता था और जब उसने देखा कि सनीचर सचमुच ही गाँव–सभा का प्रधान है और छोटे जोगनाथ को जेल से छुड़ाकर हँसते हुए वापस आ गए हैं तो उसे झटका–सा लगा था। सनीचर की विजय के दिन उसने बहुत–कुछ सोच डाला और इस दौरान उसे प्रदेश की राजधानियों में न जाने कितने वैद्यजी और मन्त्रियों और मुख्यमन्त्रियों की क़तार में न जाने कितने सनीचर घुसे हुए दीख पड़े।

  जिसका नाम रुप्पन बाबू था, उसके मन में बेचैनी पैदा होने के दिन एक और घटना हुई थी, पर उस घटना का इस बेचैनी से कोई सम्बन्ध न था। उस लड़के को बहुत दिन से एक लड़की की ज़रूरत थी और इस बात को पहचानकर उसने भूल से यह मान लिया था कि उसे सिर्फ़ बेला की ज़रूरत है। इसके बाद, अपनी उस इच्छा को, जो कीड़ों–मकोड़ों–चिड़ियों–जानवरों आदि में मौसम के हिसाब से और आदमी में मौसम हो या न हो, प्रकट होती है, उसने ‘प्रेम’ का नाम दे दिया था, जो हमारे शब्दकोश में शायद कविता के फ़रेब से आया है। उस लड़के ने यह सोचना शुरू कर दिया कि वह बेला को प्रेम करता है और पूरे तथ्यों की जानकारी न होने से उसने यह भी सोच डाला कि बेला को उससे भी प्रेम होगा। फिर उसने बेला को एक प्रेम–पत्र लिखा था, जिसका जवाब बेला ने तो नहीं दिया, पर जिसके लिए उसे खुद कई जगह और कई बार जवाब देना पड़ा। उसने जवाब देते वक्त अपनी ऐंठ तो क़ायम रखी, पर भीतर–ही–भीतर वह झेंपता रहा और जिस दिन उसने खन्ना मास्टर से सुना कि बेला और बद्री पहलवान की आपसी साँठ–गाँठ है और बद्री उससे शादी करने जा रहा है, तो उसके मन में बड़ी बेचैनी पैदा हुई और पता नहीं कैसे, उसी बेचैनी ने उसे प्रिंसिपल, वैद्यजी, बद्री पहलवान, सनीचर–सभी के बारे में उल्टा–सीधा सोचने के लिए विवश कर दिया। अभी तक वह यथार्थ का प्रदर्शन करता था, अब उसके जीवन में यथार्थ के दर्शन की शुरुआत हुई।

  उसी के साथ दूसरे लड़के को भी अहसास हुआ कि शोषण और उत्पीड़न की कहानियाँ रट लेना ही काफ़ी नहीं हैं और जिस गधे की पीठ पर सारे वेदों, उपनिषदों और पुराणों का बोझ लदा होता है, वह अन्तर्राष्ट्रीय विद्वत्–परिषद् का अध्यक्ष बन जाने के बावजूद मनुष्य नहीं हो जाता–वह होने के लिए विद्वत्ता का बोझा ढोने के सिवाय कुछ और भी करना होता है। खन्ना मास्टर ने बद्री पहलवान के प्रेमकाण्ड की बात करने के पहले रुप्पन बाबू को एक और भी बात बतायी थी। यह सम्मेलन होली के तीन दिन बाद चाँद निकल आने पर सड़क के किनारे एक पुलिया के ऊपर हुआ–वही पुलिया जिस �
�र बैठकर कुछ दिन पहले रंगनाथ ने रुप्पन बाबू को अपने छत पर अकेले सोने के अनुभव बताये थे।

  खन्ना मास्टर के साथ मालवीय भी थे। दोनों पहले से ही पुलिया पर बैठे हुए थे। रुप्पन बाबू होली के उत्सव में निरन्तर भंग पीते रहने के कारण थके हुए, अपनी थकान दूर करने के मतलब से इस समय नये सिरे से भंग पीकर, रंगनाथ के साथ टहलने निकले थे। पुलिया पर दो आदमियों को बैठा देखकर उन्होंने स्वाभाविक तरीक़े से कहा, ‘‘कौन है बे ?’’

  ‘‘कौन ? रुप्पन बाबू ? नमस्कार रंगनाथजी, मैं खन्ना हूँ।’’

  ‘‘दूसरा कौन है ?’’

  ‘‘मालवीय हैं। नमस्कार रुप्पन बाबू, आइए, बैठिए।’’

  अपने मास्टर को अभिवादन का एक चलताऊ जवाब देकर रुप्पन बाबू पुलिया पर बैठ गए। रंगनाथ मास्टरों के दूसरी ओर जाकर बैठ गया। ‘बिग फ़ोर’ की बैठक शुरू हुई।

  रात के लगभग नौ बजे थे, पर कहीं ख़ामोशी न थी। तहसील के सामने तम्बोली की दुकान पर बैटरीवाला रेडियो अब भी बज रहा था और फ़िल्मी गानों के परनाले से ‘अरमान, साजना, हसीन, जादूगर, मंज़िल, नज़र, तू कहाँ, सीना, गले लगा लो, गले लग जा, मचल–मचलकर, आँधियाँ, ग़म, तमन्ना, परदेशी, शराब, मुस्कान, आग, ज़िन्दगी, मौत, बेरहम, तस्वीर, चाँदनी, आसमाँ, सुहाना सपन, जोबन, मस्ती, उभार, इन्तज़ार, बेज़ार, इसरार, इनकार, इकरार’...जैसे शब्द लगातार गिर रहे थे जो भुखमरे देशों में नवजागरण का सन्देश देने के लिए सब प्रकार से उपयुक्त हैं। इस परनाले के गिरने की आवाज़ दूर–दूर तक फैल रही थी और इस पुलिया तक भी हवा का झोंका आ जाने पर पहुँच जाती थी। आसपास सियार बोल रहे थे और इससे प्रमाणित होता था कि उनमें सामूहिक रूप से रहने की शक्ति काफ़ी मात्रा में मौजूद है और गाँव के आसपास सारा जंगल कट जाने के बावजूद–अपने देश में उखड़े हुए यहूदियों की तरह–वे कहीं बसने के लिए आन्दोलन-जैसा छेड़नेवाले हैं। पर इन आवाज़ों को दबा देनेवाली सबसे ज़ोरदार आवाज़ उन ट्रकों की थी जो हॉर्न बजाते हुए सत्तर मील फ़ी घण्टे की रफ़्तार से शहर की ओर भागे जा रहे थे। रात हो चुकी है; शहर के किसी सस्ते बार में रम की बोतलें लुढ़क रही होंगी, किसी ढाबे में गोश्त और गरम तन्दूरी रोटियाँ तैयार हो रही होंगी और किसी जगह कोई छोकड़ी बीड़ी के कश लगाती हुई मेरा इन्तज़ार कर रही होगी–ये कल्पनाएँ सैकड़ों मील से आनेवाले ट्रक–ड्राइवर को उत्कण्ठित कर देने के लिए, और पाँव को ऐक्सिलेटर पर पूरी ताक़त से चढ़ा देने के लिए काफ़ी थीं। नतीजा यह था कि सड़क पर हर पाँच मिनट के बाद कोई ट्रक घरघराता हुआ निकल जाता था और उसके निकलने के वक़्त पुलिया पर बैठे हुए चारों महापुरुष अपनी साँस रोक लेते थे, फिर उनके निकल जाने पर ‘हम लोग बच गए’, इस इत्मीनान के साथ अपनी अधूरी बात को पूरी करने लगते थे।

  इन बाधाओं के बावजूद बातचीत चल निकली। खन्ना मास्टर दुखी स्वरों में रुप्पन और रंगनाथ से सहायता की अपील करने लगे। उन्होंने अपनी जेब से एक पर्चा निकाला और रुप्पन बाबू से बोले, ‘‘इसे पढ़िए, देखिए, आपके प्रिंसिपल ने क्या लिखा है।’’

  रुप्पन बाबू ने कहा, ‘‘मैं अँधेरे में नहीं पढ़ सकता। आप पढ़ लेते हों तो सुनाएँ।’’

  तब खन्ना मास्टर ने ज़बानी उस पर्चे का सारांश सुनाया। उसका सम्बन्ध मालवीय के चाल–चलन से था। अगर उसकी इबारत पर विश्वास किया जाता तो मानना पड़ता कि मालवीय को विद्यार्थियों से प्रेम है और कुछ विद्यार्थियों से उनका प्रेम बिलकुल शारीरिक स्तर का है। पर्चे में ऐसी कई–एक घटनाएँ लिखी थीं जिनमें मालवीय किसी लड़के को अपने साथ शहर ले गए थे और उसे सिनेमा दिखाकर, उसके साथ रात बिताकर और उसे आगामी परीक्षा में आनेवाला हिसाब का पर्चा बताकर शिवपालगंज वापस लौट आए थे। पर्चा किसी साहित्यिक उद्‌देश्य से नहीं, बल्कि जनता को सही वाक़यात बताने के मतलब से लिखा गया था। इसलिए उसकी वर्णन–शैली स्पष्ट, सीधी और कहीं–कहीं फूहड़ थी। पर्चे में प्रिंसिपल और मैनेजर से अपील की गई थी कि कॉलिज से ऐसे मास्टरों को कान पकड़कर निकाल दिया जाना चाहिए।

  खन्ना मास्टर ने पर्चे का सारांश सुनाकर रुप्पन बाबू से कहा, ‘‘इसके बाद भी आप चाहते हैं कि हम चुप रहें ? प्रिंसिपल के ख़िलाफ़ कुछ न
कहें ?’’

  रुप्पन बाबू ने भंग की झोंक में पूछा, ‘‘तो इरादा क्या है ?’’

  ‘‘हमारे पास पूरा सबूत मौजूद है। यह पर्चा प्रिंसिपल ने छपवाया है। हम उस पर मानहानि का दावा दायर करेंगे।’’

  रंगनाथ ने कहा, ‘‘बड़े शर्म की बात है।’’

  रुप्पन बाबू लापरवाही से बोले, ‘‘देखिए, सच यह है कि एक ज़माने में मालवीयजी के ख़िलाफ़ ऐसी बातें उड़ी तो थीं। एक लड़के ने मुझसे खुद बताया था कि मालवीयजी उसे सिनेमा दिखाने को कह रहे थे...’’

  उनकी बात एक विचित्र–सी आवाज़ ने काटी। मालवीयजी बड़े ज़ोर से नाक साफ़ करने लगे थे। तब लोगों को मालूम हुआ वे काफ़ी देर से चुपचाप बैठे हैं।

 

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