खन्ना मास्टर ने तैश में आकर कहा, ‘‘यही, यही कैरेक्टर असेसिनेशन है ! एक भले आदमी को इस तरह बदनाम किया जा रहा है। आपसे हमदर्दी की आशा थी, और आप भी इस तरह बात कर रहे हैं।’’
रुप्पन बाबू निर्दयतापूर्वक बोले, ‘‘मैंने तो जो सुना, वह कह दिया। मास्टर लोग ऐसी हरकतें तो करते ही रहते हैं। यह शिकायत सही भी हो तो वैसी नयी नहीं है। पर मैं इस तरह की पर्चेबाज़ी का विरोध करता हूँ। आप इत्मीनान रखें। मैं इसका खुलेआम विरोध करूँगा।’’
खन्ना कुछ और गरम हो उठे। बोले, ‘‘रुप्पन बाबू, आप वही बात दोहराते जा रहे हैं। मैं इसका विरोध करता हूँ। मालवीय के ख़िलाफ़ यह झूठा प्रोपेगेण्डा है। यह कैरेक्टर असेसिनेशन है। कोई किसी के लिए कुछ भी कह सकता है। यह भी कोई बात हुई !’’
वे बोलते रहे, ‘‘देखिए, कहने को तो लोग बद्री पहलवान के लिए भी कहने लगे हैं। न जाने क्या अण्ट–शण्ट बक रहे हैं, पर मैंने उस पर विश्वास नहीं किया।’’
रंगनाथ ने ही पहले पूछा, ‘‘बद्री दादा के बारे में वे क्या बक रहे हैं ?’’
तब इधर–उधर की भूमिका बाँधकर खन्ना मास्टर ने उन्हें बद्री का प्रेमकाण्ड सुनाया, जिसे उन्होंने एक विद्यार्थी से सुना था और जिसे उस विद्यार्थी ने अखाड़े के एक पहलवान से सुना था और उस पहलवान ने पता नहीं किससे सुना था। खन्ना मास्टर ने रुप्पन और रंगनाथ को जो रिपोर्ट दी, उसमें और बातों के साथ यह भी जुड़ा था कि गयादीन लड़की का ब्याह किये बिना ही सात–आठ महीने बाद नाना बननेवाले हैं और रुप्पन बाबू को उपहार के रूप में एक भतीजा मिलनेवाला है।
ख़बर इतनी ज़ोरदार थी कि रुप्पन बाबू पुलिया से नीचे गिरते–गिरते बचे और रंगनाथ ने यह कहकर बात उड़ाने की कोशिश की कि यह भंग का असर है। पर यह स्पष्ट था कि रुप्पन बाबू लड़खड़ा गए थे। कुछ देर बाद जब वे प्रकृतिस्थ हुए तो उन्हें बहुत–सी ऐसी बातें दिखीं जिन पर उनकी अब तक निगाह नहीं पड़ी थी। उन्हें याद पड़ा कि बद्री पहलवान इधर कई दिनों से छत पर कसरत करने के लिए काफ़ी देर रुके रहा करते थे और उस वक़्त ज़ीने का दरवाज़ा ऊपर से बन्द कर लेते थे। उन्हें यह भी स्पष्ट हो गया कि उस दिन रात को कौन–सी लड़की रंगनाथ की चारपाई पर आयी थी।
रुप्पन बाबू को अब सचमुच भंग की गर्मी का अहसास हुआ और वे बेचैन होकर इधर–उधर देखने लगे। रंगनाथ और खन्ना मास्टर में प्रिंसिपल और उनके साथियों के विरुद्ध चलनेवाले 107 के मुक़दमे की चर्चा हो रही थी। खन्ना ने आत्मदया के महाकाव्य में एक नया अध्याय लिखना शुरू कर दिया था। रुप्पन बाबू थोड़ी देर चुप रहकर उन लोगों को गौर से देखते रहे। उन्होंने देखा कि खन्ना मास्टर पहले की अपेक्षा अब दुबले हो गए हैं और मालवीयजी, जो इतनी देर से चुप बैठे थे, वास्तव में चुप नहीं हैं बल्कि रो रहे हैं।
रुप्पन बाबू को गुस्सा आया, पर किस पर–यह स्पष्ट नहीं था। साथ ही उन्हें इन मास्टरों पर और स्वयं अपने ऊपर तरस भी आया। वे प्रिंसिपल को अनर्गल गालियाँ बकने लगे और जब रंगनाथ ने उन्हें समझाने की कोशिश की और मास्टरों को पहले की तरह बताना चाहा कि यह कुछ नहीं, सिर्फ़ भंग का असर है, तो रुप्पन बाबू ने उसे घुड़ककर चुप कर दिया।
शहर के एक कोने में ऊँची चहारदीवारी से घिरा हुआ एक लम्बा–चौड़ा बँगला था, जिसकी बनावट से ही लगता था कि वह किसी ताल्लुके़दार को किराये पर रहने के लिए उठा दिया था।
बँगले के एक कोनेवाले कमरे में ज़िला विद्यालय-निरीक्षक का दफ़्तर था, उसे छोड़कर बाकी बँगले में उनका निवास–स्थान था। उनके रहने के पूरे हिस्से का किराया सरकार–उसे दफ़्तर समझकर देती थी। दफ़्तर का पूरा किराया ज़िला विद्यालय निरीक्षक अपने मकान के नाम पर देते थे। इस तरह के मैत्रीपूर्ण समझौते को अंग्रेज़ी में ‘ आफ़िस-कम रेजीडेन्स’ कहा जाता है। हिन्दी में उसे ‘आफ़िस–कम–रेज़ीडेन्स–ज़्यादा’ कहते हैं।
दफ़्तर से, यानी कोनेवाले कमरे के दरवाजे़ से वैद्यजी, प्रिंसिपल साहब और रुप्पन बाबू बाहर निकले। बाहर से देखनेवालों को यही लगता जैसे तीन चोर बँगले के अन्दर कोई करिश्मा दिखाकर गुसलखाने के रास्ते बाहर भगे जा रहे हों। दस–पाँच क़दम चलकर उनकी चाल भारी हो
गई और वे लोग इधर–उधर देखकर लॉन की लम्बाई– चौड़ाई और वाटिका की शोभा का निरीक्षण करने लगे। पोर्टिको पर निगाह डालकर रुप्पन बाबू ने कहा, ‘‘इन्स्पेक्टर साहब की कार बिलकुल खचड़ा हो रही है।’’
प्रिंसिपल ने उसे उछलती निगाहों से देखा। बोले, “ भत्ते पर कुछ रोक लगा दी गई है।’’
‘‘तभी!’’ रुप्पन बाबू ने चारों ओर लॉन, बाग़, इमारत देखकर कहा, ‘‘जो भी हो, ठाठ है! सभी कुछ फोकट !’’
फाटक पर एक चपरासी दिखा। प्रिंसिपल साहब को देखकर उसने ख़ास क़िस्म से मुँह बनाया। प्रिंसिपल ने दूसरे क़िस्म का मुँह बनाकर अपना सर गोलमोल घुमाया। चपरासी ने तीसरे क़िस्म का मुँह बनाया। तब प्रिंसिपल ने जेब से एक अठन्नी निकालकर उसे देते हुए कहा, ‘‘अब भई, रोज़–रोज़ माँगोगे ?’’
चपरासी ने सभ्यतापूर्वक कहा, ‘‘आप ही लोगों का दिया खाता हूँ।’’
रुप्पन बाबू बोले, ‘‘इसमें क्या शक है ?’’
वैद्यजी उन्हें कड़ी निगाह से देखकर चुपचाप सड़क पर आ गए। रुप्पन बाबू की प्रसन्नता में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। वे प्रिंसिपल से हल्के ढंग से कहते रहे, ‘‘ऐसे मौक़ों पर दो आने से ज़्यादा देना ठीक नहीं है। उतने में दो पान आ जाते हैं। फोकट में इतना बहुत है।...’’
यह शहर का वह भाग था जिसे अंग्रेज़ लोग सिविल लाइन्स कहकर अपने उत्ताराधिकारियों और मानस–पुत्रों के लिए छोड़ गए थे। सड़क पर आमदरफ्त बहुत कम थी। कभी–कभी कोई चमचमाती हुई कार–चाहे सरकार के पैसे की हो, चाहे उधार के पैसे की, चाहे फोकट–जूम से निकल जाती थी और पैदल चलनेवाला भाग्य और भगवान् के सहारे अपने बच जाने पर प्रसन्न होता हुआ एक किनारे दुबक जाता; कभी–कभी कोई खचड़ा कार धीरे–से भड़भड़ाती हुई निकलती जो असली प्राइवेट कार होती, काफ़ी भत्ता न खाने से वह दुबली–पतली, अनीमिया की बीमार–जैसी जान पड़ती।
शाम के चार बज रहे थे। चौथे दर्ज़े के सरकारी अफ़सर ऊँचे अफ़सरों के बच्चों को अपनी साइकिलों पर लादे हुए किर्र-किर्र करते सड़क पर चले जा रहे थे। बच्चे अंग्रेज़ी स्कूलों से लौटकर वापस आ रहे थे। सबको अपने घर पहुँचकर कोई–न–कोई महान् सन्देश पहुँचाना था। ‘‘अगर तुम्हारा मम्मी तुमको दूसरा ड्राइंगकॉपी नहीं खरीदेंगा, तो तुमको कल पनिश मिलेंगा’’, इस वक्तव्य पर दो बच्चे बहस करते चले जा रहे थे। एक साइकिल के डण्डे पर था, दूसरा कैरियर पर। उनके बीच में साइकिल की गद्दी पर एक बावर्दी चपरासी था।
वैद्यजी इतनी देर बाद बोले और जब बोले तो उनकी आवाज़ भरी–भरी थी, ‘‘इन बालकों की शिक्षा देखिए और एक हमारे ग्रामीण स्कूलों के बालक ! कितना अन्तर है !’’
प्रिंसिपल साहब के दोनों हाथ पतलून की जेब में चले गए। छोटे मुँह से कोई बड़ी बात कहने की तैयारी हो गई। बोले, ‘‘सोचता हूँ कि न हो तो अगली जुलाई से अपने कॉलिज में भी लड़कों के लिए यूनिफ़ॉर्म का चलन चला दिया जाए।’’
‘‘बड़ा उत्तम विचार है।’’ वैद्यजी ने कहा।
रुप्पन बाबू पीछे प्रिंसिपल साहब से बोले, ‘‘कौन–सी यूनिफ़ॉर्म चलाइएगा, इस चपरासीवाला या उन लड़कोंवाला ?’’
प्रिंसिपल साहब बोले, ‘‘रुप्पन बाबू, मैं पूरा सोशलिस्ट हूँ। दोनों को एक समझता हूँ।’’
‘‘मैं आपको मिलाकर तीनों को एक समझता हूँ।’’
वे लोग कुछ देर चुपचाप चलते रहे। प्रिंसिपल साहब ने वैद्यजी से कहा, ‘‘इन्स्पेक्टर साहब के घर से पीपा वापस नहीं आया।’’
वैद्यजी गम्भीरतापूर्वक चलते रहे। सोचकर बोले, ‘‘दस सेर के लगभग तो होगा ही। जब इतना घी दे दिया तो पीपे का क्या शोक ?’’
प्रिंसिपल हँसे। बोले, ‘‘ठीक है। जाने दीजिए। जब गाय ही चली गई तो पगहे का क्या अफ़सोस !’’
‘‘वही तो।’’ वैद्यजी और भी गम्भीर हो गए और कथा बाँचने लगे, ‘‘जब हाथी दान कर दिया तो अंकुश का क्या झगड़ा ! राम ने जब विभीषण का राजतिलक किया तो जाम्बवन्त बोले कि महाराज, सोने का एक भवन तो अपने लिए रख लिया होता। उस पर मर्यादा-पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी महाराज क्या कहते हैं कि ‘हे जाम्बवन्त, विक्रीते करिणि किमंकुशे विवाद: ?’ हाथी बेच देने पर अंकुश का क्या झगड़ा ?’’
प्रिंसिपल के मन से जैसे एक काँटा उखड़ गया। किसी उच्च कोटि के भाग्यवा�
��ी की तरह सिर हिलाकर उन्होंने बहादुरी से कहा, ‘‘तो ठीक है। जाने भी दीजिए। क्या रखा है इस पीपे में !’’
रुप्पन बाबू बोले, ‘‘पर बात उसूलन ग़लत है। उन्हें पीपा वापस कर देना चाहिए था। हर बार नया पीपा कहाँ से लाया जाएगा ?’’ उन्होंने प्रिंसिपल से आग्रहपूर्वक पूछा, ‘‘आपको कुछ कहते हुए झिझक लगती हो तो मुझे हुक्म दीजिए, मैं वापस माँग लाऊँ।’’
पर उन्हें किसी ने हुक्म नहीं दिया।
वे लोग बाज़ार में आ गए थे। आज भी हिन्दुस्तानी शहरों में दो तरह के बाज़ार होते हैं। एक काले यानी नेटिव लोगों का और दूसरा गोराशाही बाज़ार। यह दूसरे क़िस्म का बाज़ार था। यहाँ अंग्रेज़ी सिनेमाघर, शराबख़ाने, होटल और चमकदार दुकानें थीं। बिजली के झिलमिलाते हुए विज्ञापन थे जिनके प्रिय विषय सिगरेट और शराब थे। यहाँ आकर लगता था कि देश में रोटियाँ भले ही न मिलें, केक इफ़रात से मिल जाते हैं और अगर तुम्हारा गला पानी न मिलने के कारण सूख रहा है तो तुम बिअर पीकर तरोताज़ा हो सकते हो और अगर ज़रूरत पड़े तो मद्य–निषेध पर भाषण भी फटकार सकते हो। संक्षेप में, यहाँ आने से यही लगता था कि तुम्हें खाने–पीने–पहनने–ओढ़ने का कष्ट तभी तक है जब तक कि तुम जनता हो और अगर तुम इन कष्टों से छुटकारा चाहते हो तो जनतापन छोड़कर बड़प्पन हथियाने की कोई तरकीब निकालो।
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