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Rag Darbari

Page 81

by Shrilal Shukla


  सनीचर ने कहा, ‘‘पहलवान, प्रधान बनाकर हमीं पर लम्बर लगाओगे ? कम–से–कम इतना तो रहने दो कि जब ज़रूरत पड़े अपना खेत तो सींच लें।’’ फिर इत्मीनान से भविष्यवाणी की, “सिंचवा देंगे। चुरइया का खेत भी सिंचा देंगे। एक ही दिन में कौन मरा जाता है ?’’

  छोटे पहलवान खेत की मेंड़ पर बैठ गए। उनके बैठने के ढंग से ही प्रकट था कि वे कुछ देर बैठेंगे। सनीचर की पीठ को हाथ से ठेलते हुए उन्होंने कुछ ऐसा किया कि वह भड़भड़ाकर खड़ा हो गया। छोटे ने कहा, ‘‘अब सीधे दुल्की चाल में बैदजी के घर तक चले जाओ और नहर का पानी लेना हो तो चुरइया के खेत का नम्बर काटकर न लो। असल बाप की औलाद हो तो किसी दिन रामाधीन के खेत से पानी काटना।’’

  सनीचर ने चलते–चलते कहा, ‘‘वह भी होगा। ज़रा दिन बीतने दो, तब देखना, क्या होता है ?’’

  ‘‘होगा क्या ? घण्टा ? रामाधीन तो एक सिंचाई कर भी चुका है।’’ पहलवान ने अनादर से कहा, ‘‘अरे सनीचर, बहुत न हाँको। यहाँ चुनाव की मार नहीं, लट्ठ की मार की ज़रूरत है। तुम्हारे उखाड़े एक मूली तक न उखड़ेगी।

  ‘‘हमें एक दिन के लिए प्रधान बना दो, तब देखो। साले दुश्मन का निकलना–बैठना तक न बन्द कर दें तो कहना। मगर तुम तो ससुरे गाँधी महात्मा बने हो। रामाधीन से हँसकर नमस्कार करते हो। नमस्कार करना न जाने कहाँ से सीख आए हो। अपने बाप से बोलते हुए हवा खिसकती है और पानी चुरइया के खेत से काटते हो। एह् !’’

  सनीचर को उस किसान के सामने ये घरेलू बातें सुनने में अड़चन हो रही थी। जैसे कोई प्राइम मिनिस्टर पार्टी-प्रेसिडेण्ट की डाँट खाकर एकदम से प्रेस-कान्फ्रेन्स में पहुँच रहा हो, कुछ उसी पोज़ से उसने अपने चेहरे को निर्विकार बनाने की कोशिश की। उसके बाद अण्डरवीयर के दोनों भागों पर अपने हाथ समानान्तर ढंग से घिसता हुआ वह दुल्की से भी आगे सरपट चाल गाँव की ओर वापस लौट गया।

  शिवपालगंज में ख़बर फैल गई कि पुराने दारोग़ाजी, जो वैद्यजी के नाराज़ हो जाने से यहाँ से लद चुके थे, आज जोगनाथ से माफ़ी माँगने के लिए आए हुए हैं और वैद्यजी की बैठक में मौजूद हैं। ख़बर काफ़ी हद तक सही थी।

  वे इस समय वैद्यजी की बैठक में थे। टेरिलीन की बुश्शर्ट, सुनहरा चश्मा। उमेठी हुई मूँछें। इस समय वे एक किसी ऐसे ताल्लुकेदार–जैसे दिख रहे थे जो बहुत–सी बेसहारा नौजवान लड़कियों की हमदर्दी में अपना इलाका छोड़कर शहर में रहने चला आया हो। उनका डील–डौल काफ़ी रौबीला और गौरवपूर्ण था। पर आँखों में रसिकता थी और लगता था कि ज़रा–सा प्रोत्साहन मिलते ही वे उर्दू का कोई आशिक़ाना शेर छेड़ बैठेंगे।

  रुप्पन बाबू आजकल प्रिंसिपल के खुले विरोधी हो गए थे और प्राय: खन्ना मास्टर के घर पर बैठे रहते थे। रंगनाथ हर तीसरे दिन शहर वापस लौटने की बात करने लगा था और कभी–कभी वह भी खन्ना मास्टर के यहाँ पहुँच जाता था। बद्री पहलवान तीन दिन पहले आसपास के ज़िलों का चक्कर लगाने के लिए चले गए थे क्योंकि उनके दो–तीन चेले, अपने भोलेपन के कारण, राहजनी और डकैती के मामलों में गिरफ़्तार हो गए थे। इस समय वैद्यजी की बैठक पर वैद्यजी, दारोग़ाजी, जोगनाथ और छोटे पहलवान के बाप कुसहरप्रसाद–भर मौजूद थे।

  इस थाने से तबादला हो जाने के बाद दारोग़ाजी को कई तकलीफ़ें हुईं। एक तो यह कि उनकी जगह यहाँ जो थानेदार आया वह, ‘अब तक सब चौपट था, पर कोई बात नहीं, सब ठीक हुआ जाता है’ के सिद्धान्त का अनुयायी था। इसलिए पुराने दारोग़ाजी पर इसी थाने पर कई मामलों को लेकर जाँच चल निकली थी। जाँच का चलना एक कष्टकर घटना है, बिना अनीस्थीशिया के अॉपरेशन की तरह, चाहे उसका अन्त कॉफ़ी-हाउस की बहसों की तरह बिना किसी नतीजे के ही होना हो। इस समय विभाग की ओर से दारोग़ाजी की अच्छी रगड़न्त हो रही थी। दूसरी तकलीफ़ गाय को लेकर थी। शहर में पहुँचने पर पता चला कि उनके भाई मिलिटरी फार्म पर काम तो ज़रूर करते हैं और गाय को वहाँ रखकर फोकट के चारे की व्यवस्था भी करा सकते हैं, पर इस समय उनके यहाँ भ्रष्टाचार–निरोध का अभियान चल रहा है और उनकी हिम्मत नहीं है कि वे गोमाता की सेवा का भार उठा सकें। गली के मकान में रहते हुए दारोग़ाजी को रोज़ सोचना पड़ता था कि गाय के साथ कैसा सुलूक किय�
�� जाय। तीसरी मुसीबत जोगनाथ के दावे ने पैदा कर दी थी।

  उसने उन पर सिविल जज की अदालत में आठ हज़ार रुपये हर्ज़ाने का दावा किया था और बाद के अन्तिम शब्द कुछ इस प्रकार थे–

  ‘‘कि प्रतिवादी ने वादी पर चोरी का झूठा जुर्म लगाकर उसे हानि पहुँचाने की नीयत से उस पर झूठा मुक़दमा चलाया। उसे लगभग दो महीने हवालात में रखा गया जिससे उसकी पूरे समाज में बेइज़्ज़ती हुई और उसके व्यवसाय को बड़ा धक्का लगा। इस सबका हर्ज़ाना कई लाख रुपये होता है, पर प्रतिवादी की हैसियत उतना हर्ज़ाना देने की नहीं है। इसलिए उस पर केवल प्रतीक–रूप में आठ हज़ार रुपये हर्ज़ाने का दावा दायर किया जाता है।’’

  दारोग़ाजी की हैसियत को गिराकर उसे जिस नुक्ते पर जोगनाथ ने फ़िट किया था, उससे उन्हें कोई उलझन न थी। उलझन का कारण पूरे मामले में जनता की दिलचस्पी थी। उस शहर में लगभग आधे दर्जन हिन्दी और उर्दू के चीथड़े निकलते थे जिन्हें वहाँ साप्ताहिक पत्र कहा जाता था। चीथड़े उड़ानेवाले कुछ अर्द्धशिक्षित लोग थे जो अपने को पत्रकार कहते थे और जिनको पत्रकार लोग शोहदा कहते थे। इन चीथड़ों में प्राय: अदालतों की नोटिसों और सड़क की घटनाओं का वृत्तान्त छपा करता था। साथ ही, निश्चित रूप से प्रत्येक चीथड़े में किसी अफ़सर के जीवन की ऐसी घटना का विवरण छपता था जिसमें एक पात्र तो वह स्वयं होता था और शराब की बोतल, छोकरी, नोट की गड्डी, जुआ या दलाल का ज़िक्र दूसरे पात्र की हैसियत से हुआ करता था। ये चीथड़े अदालतों और अफ़सरों की दुनिया में बड़े गौर से पढ़े जाते थे और उन क्षोत्रों में हिन्दी-उर्दू पत्रकारिता के ख़तरे की दलील पेश करते थे। कभी–कभी अचानक किसी अफ़सर के जीवन–वृत्तान्त का खंडन भी छप जाता था, जिससे पता चलता था कि सम्पादक ने अमुक तिथि के चीथड़े में छपी हुई घटना की स्वयं जाँच की है और पाया है कि उसमें कोई सत्य नहीं है और उन्हें उस समाचार के छपने का खेद है और अपने विशेष संवाददाता पर, जिसे अब नौकरी से निकालकर मूँगफली बेचने के लिए मजबूर कर दिया गया है, रोष है। जिस अफ़सर के पक्ष में इस तरह का खंडन छपता था वह अपने साथियों से मुस्कराकर कहता था, ‘‘देखा ?’’ और उसके साथी उसकी पीठ–पीछे कहते थे कि सम्पादकजी इसे भी दुहे बिना माने नहीं और इस तरह से साहित्य और शासन का सम्पर्क दिन–पर–दिन गाढ़ा होता जाता था। इन चीथड़ों की सामाजिक– राजनीतिक–सांस्कृतिक दृष्टि से यही उपयोगिता थी।

  तो इसी तरह के एक चीथड़े ने दारोग़ाजी के ख़िलाफ़ जोगनाथ के दावे की ख़बर घसीटकर अपने मुखपृष्ठ पर उछाल दी और ख़बर को कोई बासी न कहे, इस उद्देश्य से उसमें कुछ दिलचस्प तबदीलियाँ करके दूसरे चीथड़ों ने उसे कई बार कई ढंग से छापा। शहर में आने के साथ ही दारोग़ाजी एक मशहूर आदमी हो गए।

  अभी मुक़दमे की पहली पेशी भी नहीं पड़ी थी, पर उन्होंने देखा कि पत्रकारों के साथ ही उनके महक़मेवालों की दिलचस्पी उनमें बढ़ गई है। वे अपने क्लब में जाते तो उनके साथी उन्हें व्याख्यान देते जिनका निष्कर्ष यह था कि ज़माना ख़राब है, टके के आदमी भी तीसमारख़ाँ हो गए हैं। अब नौकरी करने का वक़्त नहीं रहा और तुम तो बड़े समझदार आदमी थे, इस झमेले में कैसे फँस गए। उन्हें साथियों से इतनी हमदर्दी मिलती कि उनका रास्ता चलना मुश्किल हो गया और जब सभी कोरस बाँधकर कहने लगे कि घबराने की कोई बात नहीं, हम सब मिलकर सुप्रीम कोर्ट तक लड़ेंगे और देखो, शास्त्रों में लिखा है कि सत्य की ही जय होती है, तो दारोग़ाजी का दिल डूबने लगा।

  एक दिन उनके एक बुजुर्ग शुभचिन्तक ने उन्हें राय दी कि तुम भी अजीब आदमी हो। यह मुक़दमे का पुछल्ला लगाए हुए इधर–उधर घूमते रहते हो। जाकर किसी हिकमत से इसे दफ़न क्यों नहीं कराते ?

  इसके बाद वे वैद्यजी की शरण में आए।

  वे लोग चुपचाप बैठे थे। जो बात होनी थी वह शायद हो चुकी थी। दारोग़ाजी अपने मनोहारी रूप में थे ही, ख़ामोशी तोड़ने के लिए कुसहरप्रसाद से बोल बैठे, ‘‘क्यों जी, तुम्हारा और छोटे का झगड़ा अब भी होता है ?’’

  कुसहरप्रसाद ने कहा, ‘‘नहीं दारोग़ा साहब, अब देह शिथिल पड़ रही है। वह पहलेवाली बात नहीं रही।’’

  ‘‘तो क्या लड़के की मार चु
पचाप झेल जाते हो ?’’

  ‘‘बताया तो आपसे। अब वह बात नहीं रही।’’ कुसहरप्रसाद ने वैद्यजी से कहना शुरू किया, ‘‘आपको तो मालूम ही है। होली के पहले उसने कुछ तू–तड़ाकवाली बात की, उस पर मैंने उसे एक छड़ी मार दी। उसने क्या किया कि मुझे उठाकर आँगन में फेंकने के लिए झूला–जैसा झुलाया, पर न जाने क्या सोचकर मुझे वहीं छोड़ दिया। मैं लद्द से चारपाई पर चू पड़ा। दोपहर को उसने मुझसे कहा कि देखो, अब तुम्हारी देह कमज़ोरी हो गई है। पहलेवाली बात नहीं रही। मैंने तुम्हें पटकने के लिए उठाया तो तुम पुआल–जैसे उठे चले आए। तभी मैंने तुम्हें आँगन में नहीं फेंका।

  ‘‘उस दिन से यह हुआ कि अब एक–दूसरे के मुँह न लगा जाए। छोटू कहता है कि मरना हो तो अपनी मौत मरो, हमारे भरोसे न रहो। न हम तुम्हारे जीने में हैं, न तुम्हारे मरने में।’’

  वैद्यजी पूरी घटना सुनकर बोले, ‘‘मेरे सामने उस पापी का नाम तक न लेना। नीच अपने पिता ही पर हाथ उठाता है।’’

 

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