Rag Darbari

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Rag Darbari Page 82

by Shrilal Shukla


  कुसहरप्रसाद ने एक बुजुर्ग जैसे दूसरे बुजुर्ग से बात करता है, बिना हिचक के कहा, ‘‘धन्य हो महाराज, इतनी देर तक उसका क़िस्सा सुनते रहे, तब न बोले। जब पूरा हाल–चाल जान लिया तो कहते हो कि छोटू का नाम तक न लेना। धन्य हो ! पूरे नेता हो।’’

  वैद्यजी इस तरह हँसे कि दारोग़ाजी जान जाएँ, कुसहर उनका अपमान उनकी इजाज़त से ही कर रहे हैं। हँसते–हँसते उन्होंने जोगनाथ की तरफ़ देखा। जोगनाथ ने देख लिया, उनकी मूँछें तो हँस रही हैं पर आँखें नहीं। जोगनाथ ने खँखारकर कुसहर से कहा, ‘‘ए पण्डित कुसहरप्रसाद, छोटू ने तुमको जुतियाना छोड़ दिया है तो उससे बिलकुल ही बेलगाम न बन जाओ। वैद्यजी से तो ठीक से बात करो। इसी तरह टेढ़ी–मेढ़ी बात करते घूमे तो कभी सेर पर सवा सेरवाला मिल जाएगा।’’

  वैद्यजी फिर उसी तरह हँसे जिससे प्रकट हुआ कि कुसहर का अपमान भी उनकी इजाज़त से हो रहा है। कुसहरप्रसाद ने सिर्फ़ इतना ही कहा, ‘‘जेहल से बहुत–कुछ सीख आए हो। पर अपनी उमरवालों में खाओ–खेलो। हमारी–वैद्यजी की बात है, इसमें तुम क्यों टिल्ल–टिल्ल लगाए हो !’’

  अचानक दारोग़ाजी ने कहा, ‘‘वैद्यजी, मेरी बस का टाइम हो रहा है।’’

  ‘‘तो जैसे बताइए वैसे करूँ।’’ वैद्यजी उनकी बात पर छूटते ही बोले, ‘‘आप प्रतिवादी हैं। जोगनाथ वादी हैं। इस समय आप लोग एक–दूसरे के समक्ष हैं। स्वयं बात करके मामला सुलझा लें। नवयुवकों की बातों में मैं क्या कह सकता हूँ !’’

  जोगनाथ ने कहा, ‘‘महराज, ये कोई मेरा अपना मामला तो है नहीं। शिवपालगंज की इज़्ज़त का मामला है। इसीलिए गाँव–सभा अपनी तरफ़ से मुक़दमे पर ख़र्च कर रही है, सुलह भी गाँव–सभा के ही प्रस्ताव पर होगी। मैं तो दारोग़ाजी से तब भी छोटा था, अब भी छोटा हूँ। हाकिम हाकिम ही रहेगा, पर मुझे कुछ नहीं कहना है, आप जो कह देंगे वही होगा।’’

  दारोग़ाजी को लग रहा था कि शाम के पोर्चुलाका की तरह उनकी मूँछें मुरझाकर नीचे झुकी जा रही हैं, पर मोम लगाकर मूँछें उमेठने से यही फ़ायदा होता है कि वे भावुकता के कारण नीची–ऊँची नहीं होतीं। उन्होंने कुछ भी नहीं कहा।

  वैद्यजी जोगनाथ से बोले, ‘‘तो गाँव–सभा पर ही छोड़ दो। सनीचर से बात कर लो। इतने बड़े हाकिम शहर से यहाँ तक दौड़े आए हैं। मामला खत्म करा दो।’’

  दारोग़ाजी के मत्थे पर झुर्रियाँ उभर आईं। बोले, ‘‘सनीचर ! यह कौन है ?’’

  ‘‘आप न जानते होंगे। उनका नाम मंगलप्रसाद है। हमारे प्रधान हैं। उधर वह उनकी दुकान है। आप वहीं जाकर बात कर लें।’’ वैद्यजी आदर से बोले।

  कुसहर ने कहा, ‘‘कल के जोगी, चूतड़ तक जटा। सनीचर को देखो, देखते–देखते मंगलप्रसाद बन गए। धन्य हो गुरु महाराज ! सुलह करानी हो तो सनीचरा को यहीं बुला लो।’’

  वैद्यजी ने गम्भीरता से कहा, ‘‘पद की मर्यादा रखनी चाहिए। प्रधानमन्त्री बनाने के बाद गाँधीजी नेहरूजी का कितना सम्मान करते थे ! पारस्परिक सम्बन्ध की बात दूसरी है, किन्तु लोक–व्यवहार में पद की मर्यादा रखनी पड़ती है।’’

  दारोग़ाजी की हिम्मत बढ़ाते हुए उन्होंने दोहराया, ‘‘वहीं दुकान पर जाइए। प्रधानजी आ गए होंगे।’’

  सनीचर अपनी दुकान के केबिन में बैठा हुआ दारोग़ाजी और जोगनाथ की प्रतीक्षा कर रहा था। खेत से वापस आते ही उसे गँजही पद्धति से मालूम हो गया था कि जोगनाथ के दावे पर दारोग़ाजी की हवा खिसक गई है, वे लुलुहाते हुए सुलह के लिए आए हैं, उन्हें कड़ाई से खींचना चाहिए ताकि सबक़ रहे कि शिवपालगंज में बड़े–बड़े दारोग़ा लोग चीं बोल गए और यह घटना वक्त–ज़रूरत काम आए। सनीचर ने दारोग़ाजी की प्रतीक्षा करते–करते भंग की चार–पाँच पुड़ियाँ बेच डालीं। फिर एक पुड़िया किसी राह–चलते आदमी को, जो गाँव–पंचायत का मेम्बर था, यों ही दे दी। उसने पूछा, ‘‘इसका क्या किया जाए ?’’

  ‘‘रख लो, दारोग़ाजी की पिड़ी बोलनेवाली है। बोल जाए तब भंग–भोज करना। भंग हमारी, बादाम–पिस्ता–शक्कर–दूध सब तुम्हारा।’’

  पंच ने पुड़िया धोती की टेंट में खोंस ली, मुस्कराकर कहा, ‘‘प्रधानजी, हमीं पर दाँव लगा रहे हो। ठेके की भंग में क्या रखा है, असली कीमत तो बादाम–पिस्ते की है।’’

  सनीचर ने इस तरह मुँह बन
ाया जैसे उसे अपनी उदारता पर इस आक्षेप से सख़्त ऐतराज़ हो। उसने कहा, ‘‘पुड़िया तो रखे रहो, तुम्हें क्या काटे खा रही है ? दारोग़ाजी की पिड़ी बोलने दो, उसके बाद न होगा तो गाँव–सभा की तरफ़ से ही भंग–भोज बोल दिया जाएगा।’’

  पंच ने कहा, ‘‘पचीस रुपिया घुस जाएगा।’’

  ‘‘घुस जाने दो।’’

  ‘‘पंचायत–मन्त्री इस ख़र्चे पर ऐतराज़ लगाएगा।’’

  सनीचर ने जल्दी से कोशिश करके अपने को गुस्से में डाला। कहा, ‘‘यहीं क्वापरेटिव यूनियन में दस साल से रोज़ शाम को भंग–भोज चलता है। किसी साले ने ऐतराज़ नहीं लगाया, गाँव–सभा के भंग–भोज में कोई क्या खाकर ऐतराज़ लगाएगा ?’’

  पंच ने तर्क का रास्ता छोड़कर सिद्धान्तवादिता का सीधा और तर्कहीन रास्ता पकड़ा। सिर हिलाकर बोला, ‘‘पर यह बात ठीक नहीं। मेरे गले के नीचे नहीं उतरती।’’

  सनीचर ने आँखें तरेरकर कहा, ‘‘तुम सब लण्ठ हो। कुछ बाहर का भी हाल जानते हो ? बड़ी–बड़ी चुंगियों में हज़ारों की दावतें खायी जाती हैं। तुम समझते हो कि मैं ऐसे ही बक रहा हूँ। तनिक उनसे–रंगनाथ बाबू से तो पूछ लो। तब तुम्हारी समझ में आएगा कि राज–काज में कितना ख़र्चा है।

  ‘‘यहाँ तुम गाँव–सभा के भंग–भोज में ही पिलपिला गए हैं।’’

  ‘‘गिलहरी के सिर पर महुआ चू पड़े तो समझेगी, गाज गिरी है।’’

  दारोग़ाजी और जोगनाथ आते हुए दिखायी दिए। सनीचर ने पहले कमीज़ उठाकर पहनना चाहा, कमीज़ चुनाव के बाद बनी थी और वैद्यजी के हुक्म से ख़ास–ख़ास मौक़ों पर पहनी जाती थी। फिर न जाने क्या सोचकर उसने उसे चावल की टोकरी पर रख दिया। फिर नंगे बदन पर एक बार हाथ फेरा, चुटिया सिर पर अच्छी तरह से छितरा ली और अण्डरवीयर को ऊपर खिसकाकर उसे जाँघों के उद्गम तक खींच लिया। इसके बाद अवधूत–शैली में वह दारोग़ाजी का स्वागत करने के लिए तैयार हो गया, यानी किसी काल्पनिक ग्राहक के लिए तराजू पर कुछ सौदा तोलने लगा।

  जोगनाथ ने आते ही कहा, ‘‘प्रधानजी, दारोग़ाजी आए हैं।’’

  सनीचर ने दारोग़ाजी के सिर के ऊपर निगाह फेंकते हुए पूछा, ‘‘कहाँ हैं ?’’

  ‘‘आप ही हैं।’’

  सनीचर ने सामने पड़ी बेंच की ओर इशारा करके उनसे रुखाई से कहा, ‘‘बैठो दारोग़ाजी, आप बिना वर्दी के थे। पहचानने में कुछ दिक्क़त हो गई।’’

  दारोग़ाजी बेंच पर बैठ गए। उसकी धूल झाड़ना उन्होंने नीति के विरुद्ध समझा। उनकी बगल में जोगनाथ भी बैठ गया। अब उन दोनों के हाथ में सिर्फ़ गाँजे की चिलम–भर पकड़ने का काम बाकी रहा। इसे छोड़कर अवधूत का दरबार सब तरफ़ से भरा–पूरा दिखने लगा।

  दारोग़ाजी ने बताना शुरू किया कि सनीचर–जैसे प्रधान के हाथ में शिवपालगंज बहुत तरक्की करेगा। उन्होंने खेद प्रकट किया कि अपनी तैनाती के दिनों वे सनीचर से जान–पहचान नहीं कर सके। उन्होंने कहा, ‘‘जोगनाथ को कुछ ग़लतफ़हमी हो गई है, जिससे उन्होंने एक दावा...।’’

  सनीचर ने बात टोककर कहा, “ग़लतफ़हमी ! यह कौन–सी चिड़िया है ? आप अंग्रेज़ी छोड़कर देसी बोली में बताइए। हम दीहाती आदमी हैं। कुछ ऐसा बोलिए कि बात समझ में आ जाए।’’

  दारोग़ाजी की मूँछों पर जमे हुए मोम ने उनकी इज़्ज़त बचायी। उठी मूँछों की छत्रछाया में आवाज़ को बहुत मीठा बनाकर उन्होंने समझाया, ‘‘जोगनाथ को कुछ भरम हो गया कि...।’’

  सनीचर ने कहा, ‘‘भरम हो गया है, तो इसी मुक़दमे में साफ़ हो जाएगा। चार पेशी बाद पता चल जाएगा कि भरम किसको है।’’

  दारोग़ाजी ने बेंच पर कोई भी कशमकश नहीं दिखायी। घड़ी देखते हुए बोले, ‘‘देखिए प्रधानजी, आप यही समझ लें कि भरम मुझको हुआ था। गलती मेरी थी। मुझे पूरी शहादत देखे बिना इस मुक़दमे में हाथ न डालना था। मैं अब सुलह करने को तैयार हूँ। आप जो सही समझें वही किया जाए।’’

  जोगनाथ मुस्कराया, पर सनीचर ने गम्भीरता के साथ कहा, ‘‘क्या कहते हो जोगनाथ ?’’

  ‘‘मुझे क्या कहना है। मैं तो तब भी गुण्डा था, अब भी गुण्डा हूँ। कहना–सुनना तो तुम्हीं को है। वैसे मेरी राय पूछते हो तो वह भी सुन लो। दारोग़ाजी जो कह रहे हैं, उसी को लिखकर दे दें। मामला ख़तम समझ लिया जाए।’’

  दारोग़ाजी कुछ नहीं बोले। सनीचर थोड़ी देर तक सोचता
रहा, फिर बोला, ‘‘मैं बताऊँ दारोग़ाजी, चलिए, वैद्यजी से बात कर ली जाए।’’

  दारोग़ाजी ने कहा, ‘‘उनसे तो मैं बात कर चुका हूँ। वे कहते हैं कि मामला गाँव–सभा के हाथ में है। जोगनाथ का मुक़दमा गाँव–सभा ही लड़ रही है। उनका कहना है कि मुक़दमा वापस लेने का फ़ैसला आप ही करेंगे। वैद्यजी तो गाँव–पंचायत के मेम्बर भी नहीं हैं।’’

  ‘‘हाँ, सो तो ठीक है,’’ सनीचर ने हवा बाँधते हुए कहा, फिर रुककर बात जोड़ी, ‘‘फिर भी वैद्यजी से बात कर ली जाए।’’

  ‘‘पर वह तो कहते हैं कि वे मेम्बर तक नहीं हैं।’’

  सनीचर ने चावल की टोकरी से कमीज़ निकालकर ज़ोर से फटकारी। धूल उड़ी, पर दारोग़ाजी ने नाक तक नहीं सिकोड़ी। कमीज़ पहनते हुए वह बोला, ‘‘चलिए, चलना तो उसी दरबार में है।’’

  उस दिन शाम होने पर गाँव–सभा की ओर से भंग–भोज हुआ। गाँधी–चबूतरे पर कई सिलें एकसाथ खटकने लगीं। धूल–धक्कड़ में भंग की पिसाई हुई। कहीं भंग नशा करने से इनकार न कर दे, इस खतरे को दूर करने के लिए उसमें धतूरे के कुछ बीज भी मिला लिए गए। बादाम–पिस्ता, काली मिर्च, इलायची और दस–बीस तरह की न पहचानी जानेवाली चीज़ें उसमें पीसकर डाली गईं। इस मिक्श्चर को दूध और पानी में घोला गया और देखते–देखते कई बाल्टियाँ उफना चलीं। बन्दर की तरह उछलकर सनीचर ने पहले एक गिलास भंग पास एक पेड़ के नीचे रखे हुए शिवलिंग पर चढ़ायी और उसी के साथ वह भंग से सम्बन्धित सैकड़ों सूक्तियाँ और प्रार्थनाएँ ज़बानी पढ़ने लगा। पुराने ज़माने का अशिक्षित आदमी भी आज के शिक्षित के मुक़ाबले कितना ज़्यादा जानता है–इस भावना से लोगों ने तारीफ़ में सिर हिलाना शुरू कर दिया। फिर भंग बँटने लगी।

 

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