Rag Darbari
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रंगनाथ के मुँह की ओर देखकर उस पर दया–सी दिखाते हुए गयादीन ने कहा, ‘‘मैं शहर के बारे में ये सबकुछ जानता हूँ। नौजवानी के दिनों में मैं कलकत्ते में रह चुका हूँ।’’
खन्ना मास्टर ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला, पर गयादीन ने टोककर कहा, ‘‘और यहाँ गाँव में क्या है ? कोई मोटर से कुचल जाए तो मोटरवाला रफूचक्कर हो जाएगा। कुचला हुआ आदमी कुत्ते की तरह पड़ा रहेगा। अगर कहीं अस्पताल हुआ तो दो–चार दिन में मरते–मरते पहुँच जाएगा। अस्पताल में अगर कोई डॉक्टर हुआ भी तो पानी की बोतल पकड़ाकर कहेगा कि लो भाई, राम का नाम लेकर पी जाओ। राम का नाम तो लेंगे ही, क्योंकि उनके पास देने के लिए दवा ही नहीं होगी। होगी भी तो, चुराकर बेचने के लिए पहले ही निकालकर रख ली गई होगी। तभी तो कहा कि शहर में हर दिक्कत के आगे एक राह है और देहात में हर राह के आगे एक दिक्कत है।’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘शहर में बड़ी दिक्कतें हैं, पर वह सब सुनाने से क्या फ़ायदा !’’
एक आदमी नंगे बदन, अपने को आदमी साबित करनेवाले स्थान को एक अँगोछे से ढँके हुए आया और ख़बर लाया कि रमज़ानी घोसी दो रुपये पर अपने भैंसे को लगाने के लिए तैयार है। गयादीन ने साँस खींचकर कहा, ‘‘अपना–अपना ज़माना है।’’ अपना सिर हिलाकर उन्होंने उस आदमी की ओर एक इशारा दिया।
इशारा पाते ही उस आदमी ने भैंस को खूँटे से छुड़ा लिया। देखते–देखते भैंस की आवाज़ रेडियो–नाटकों की शैली में फेडआउट हो गई। वह नंगा आदमी भैंस और अपने अँगोछे के साथ दृश्य से बाहर निकल गया।
भैंस के जाते ही वातावरण की गर्मी खत्म हो गई। गयादीन, जो उसकी चीख़–पुकार के कारण ज़ोर से बोलने लगे थे, अपनी सहज मुर्दा–शैली पर उतर आए। बोले, ‘‘बात कुछ फूहड़ है, पर यह भैंस गाभिन हो जाए, इत्मीनान हो। रमज़ानी तो दो रुपिया लेकर भैंसा खोलने को तैयार हो गए, पर भैंसा ही कहीं इनकार न कर दे।’’
कहकर वे मुस्कराए। यह एक घटना थी। शिवपालगंज में किसी ने आज तक उन्हें मुस्कराता हुआ न देखा था। रंगनाथ समझ गया कि यह मुस्कराहट रो न पाने की मजबूरी से पैदा हुई है।
अचानक खन्ना मास्टर ने पूछा, ‘‘बेला की कैसी तबीयत है ? सुना, इधर कुछ बीमार थी।’’
मालवीय ने उसे घूरकर देखा। रंगनाथ ने भी सोचा : मास्टर लोग ऐसे ही होते हैं। दर्ज़े से निकलते ही कोई–न–कोई बेवकूफी की बात छेड़ देते हैं।
गयादीन पर इस सवाल की कोई प्रतिक्रिया प्रकट नहीं हुई। वे सिर्फ़ खन्ना मास्टर की तरफ़ चुपचाप एक मिनट तक सीधी–सादी, भोली–भाली निगाह से देखते रहे। खन्ना की समझ में नहीं आया कि इस एक मिनट के युग में वे खुद किस तरफ़ देखें। फिर गयादीन ने पूछा, ‘‘अपनी तबियत का हाल बताओ मास्टर साहब, तुम्हारे 107 वाले मुक़दमे में क्या हो रहा है ?’’
‘‘वही तो आपको बताने आया था।’’
गयादीन ने उन्हें याद दिलायी, ‘‘पर आप तो रसातल की बात बता रहे थे।’’ खन्ना मास्टर अचानक दीन बन गए। बोले, ‘‘अब हम लोगों को आप ही बचाइए। दोनों ओर से मुसीबत है। प्रिंसिपल यहाँ पिटवाने पर आमादा है, वहाँ इजलास में डिप्टी साहब पूरा मुक़दमा सुनने के पहले ही नाराज़ हो गए हैं।’’
गयादीन ने रंगनाथ की ओर देखा। कुछ कहा नहीं। मालवीय ने समझाया, ‘‘रंगनाथजी इस मामले में हमारे साथ हैं। इनके सामने पूरी बात हो सकती है।’’
चूँकि प्रत्येक बुद्धिजीवी, गुटबन्द होने के बावजूद, गुटबन्दी का खुला इल्जाम लगते ही तिलमिला उठता है, इसलिए रंगनाथ ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘मैं किसी के साथ नहीं हूँ। इनके साथ इस मामले में ज़्यादती हो रही है, इसलिए मुझे इनसे हमदर्दी है।’’
गयादीन ने कहा, ‘‘तब क्यों कहते हो कि तुम किसी के साथ नहीं हो ?’’
मालवीय ने अपनी बात जारी रखी, ‘‘यहाँ प्रिंसिपल साहब ने छोटे पहलवान को भड़का दिया है। परसों राह चलते उसने मुझसे कहा कि मास्टर साहब, अभी कुछ हुआ नहीं है, चुपचाप शिवपालगंज छोड़कर चले जाओ; नहीं तो कुछ उल्टा–सीधा हो गया तो तुम्हारे घरवालों को दुख होगा। इस तरह की सलाह और लोग भी दे चुके हैं। शायद प्रिंसिपल हम लोगों को पिटवाना चाहता है। समझ में नहीं आता कि क्या करें।’’
‘‘करोगे क्या ? चुपचाप मार खा लो। मास्टर �
�ोकर मार खाने से कहाँ तक डरोगे ?’’ गयादीन ज़मीन पर निगाह गड़ाकर धीरे–धीरे बोले।
खन्ना मास्टर को जोश आ गया। कहने लगे, ‘‘हम चुपचाप मार खानेवाले नहीं हैं। ईंट का जवाब पत्थर से देंगे।’’
गयादीन कुछ नहीं बोले। खन्ना मास्टर ने फिर कहा, ‘‘कोई नवाबी के दिन नहीं हैं कि जो जिसको चाहे, मार बैठे।’’
‘‘दिन उससे भी बुरे हैं।’’ गयादीन ने कहा, ‘‘मैं तो चार–छ: साल से यही देख रहा हूँ। वहाँ, रंगापुर में हेडमास्टर का खून हो गया था कि नहीं ? क्या हुआ? मारनेवाले आज भी बल्लम लिये मूँछ पर ताव देते हुए घूम रहे हैं।’’
उन्होंने सिर हिलाकर सान्त्वना–सी देते हुए समझाया, ‘‘नहीं मास्टर साहब, तुम कभी ईंट का जवाब पत्थर से न देना। प्रिंसिपल साहब और बैद महाराज के पास बहुत बड़ी ताकत है। चौपट हो जाओगे। इम्तहान के दिनों में हर साल न जाने कितने मास्टर लड़कों के हाथों पिटते हैं, तो क्या कर लेते हैं ? खोपड़ी सहलाते हुए धीरे–धीरे घर चले आते हैं और बीवी से माँगकर एक गिलास पानी पी लेते हैं। कुछ थाने पर रिपोर्ट लिखा देते हैं और फिर दोबारा पिटते हैं।’’
उन्होंने ढाढ़स बँधाते हुए कहा, ‘‘अब तो यही हो रहा है। मास्टर होकर अब मारपीट से घबराना न चाहिए।’’
खन्ना मास्टर ठण्डे हो गए। बोले, ‘‘तो क्या करूँ ?’’
‘‘उन्हीं का कहना माल लो। या तो 107 के मुक़दमे में सुलह कर लो या शिवपालगंज छोड़कर भाग जाओ।’’
‘‘यही तो रोना है,’’ खन्ना मास्टर ने रोने की कोशिश की, “प्रिंसिपल के पास सुलह का सुझाव भिजवाया था। वे कहते हैं कि सुलह भी इसी शर्त पर होगी कि शिवपालगंज छोड़कर चले जाओ। हर हालत में यहाँ से जाने को कहते हैं। बताइए, इसके बाद क्या करूँ !’’
गयादीन सोचने लगे। काफ़ी देर तक सोचकर और मत्थे की झुर्रियों को भीतर समेटकर यह साबित करते हुए, कि वे सोचने का काम खत्म कर चुके हैं, उन्होंने कहा, ‘‘इसके बाद क्या करोगे मास्टर साहब ? देश का नक्शा सामने फैलाकर देखना शुरू कर दो। शायद उसमें शिवपालगंज के आगे भी कोई जगह निकल आए।’’
थोड़ी देर वे लोग गुमसुम बैठे रहे, फिर जैसे गीली मिट्टी में कोई केंचुआ अपने को तोड़–मरोड़कर लकीरें बना–बिगाड़ रहा हो, खन्ना मास्टर मुक़दमे की पिछली पेशी का विवरण विस्तार से सुनाने लगे :
दफ़ा 107 के मुक़दमे में पहले फ़रीक़- वे लोग जिनके झगड़ालू स्वभाव के बारे में पुलिस ने भविष्यवाणी की थी–खन्ना मास्टर, मालवीय और उनके साथ के तीन नौसिखिए मास्टर थे जो प्रिंसिपल के गुट में न होने के कारण उनके ख़िलाफ़ मान लिये गए थे। दूसरे फ़रीक में वे थे जिनके बारे में खन्ना मास्टर ने मजिस्ट्रेट के सामने भविष्यवाणी की थी कि उन्हें उनसे अपनी जान व माल का ख़तरा है। एक वकील ने मज़ाक में यह भी कहा कि मास्टर के पास माल कहाँ होता है और मास्टर की जान की क़ीमत ही क्या है। पर मजिस्ट्रेट ने उस पर ध्यान दिए बिना दूसरे फ़रीक़ के ख़िलाफ़ भी सम्मन निकाल दिया था। इसी दूसरे पक्ष में प्रिंसिपल साहब के अलावा उनके दो भतीजे और दो भांजे थे, जो कॉलिज में पिछले तीन साल से मास्टरी कर रहे थे, पर लोग जिन्हें मास्टर मानने से इनकार करके प्रिंसिपल के भतीजे और भांजे के ही रूप में देखने के आदी हो गए थे।
मुक़दमे में खन्ना मास्टर को एक बहुत बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। पहले पक्ष की ओर से पुलिस विभाग के सभी अन्वेषक, इतिहासकार और सर्जक कलाकार लगभग यह प्रमाणित कर ले गए थे कि खन्ना मास्टर और उनके साथी झगड़ा करनेवाले हैं। उधर वे खुद प्रिंसिपल के ख़िलाफ़, शिवपालगंज में उचित प्रमाण न मिल सकने के कारण, किसी बढ़िया इतिहास का सृजन नहीं कर पा रहे थे। अत: एक दिन, जब खन्ना मास्टर का वकील तथ्यों की कमी और तर्क की ज्यादती के सहारे प्रिंसिपल के विरुद्ध एक ज़ोरदार बहस कर रहा था तो इजलास ने सिर घुमाकर खन्ना मास्टर को कड़ी निगाह से देखा और पूछा : ‘‘आप लोग अध्यापक हैं ?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘आपको शर्म नहीं आती ?’’
उन्हें अध्यापक होने के कारण शर्म तो हमेशा ही घेरे रहती थी, पर मालवीयजी इस समय यह मानने में हिचक गए। बोले, ‘‘अध्यापक होने में शर्म की क्या बात है, श्रीमान् ?’’
 
; ‘‘अध्यापक होकर भी आप लोग लोफ़रों की तरह लड़ते हैं। 107 का मुक़दमा चलने की नौबत आ गई है। आप लोगों को इसमें शर्म नहीं आती ?’’
मालवीय को इसका जवाब खोजने कहीं दूर नहीं जाना था : लड़ना किसानों, मज़दूरों, व्यापारियों, भूतपूर्व ज़मींदारों आदि की ही बपौती नहीं, प्राणिमात्र का सहज गुण है। लड़ने की योग्यता इस पेशे या उस पेशे पर निर्भर नहीं है। अगर तुम लड़ने का नतीजा झेलने को तैयार हो तो तुम्हारी लड़ने की योग्यता पर बहस नहीं की जा सकती। मालवीय कह सकते थे : श्रीमान्, संविधान में कहीं भी ऐसी व्यवस्था नहीं कि अध्यापकों को लड़ने पर रोक लगा दी गई और दूसरे वर्गों को खुली छूट दे दी गई हो। मालवीय ने कुछ ऐसी ही बात कहनी चाही, पर उन्हें अनुभव हुआ कि झिझक के मारे उनकी ज़बान तालू पर चिपक गई है। उन्होंने दाँत निकालकर इलजास की डाँट का स्वागत किया। इजलास ने बेरुखी के साथ, अपनी बात दोहराते हुए, अब अन्तिम निर्णय दिया, ‘‘आप लोगों को शर्म आनी चाहिए।’’