Rag Darbari
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प्रिंसिपल साहब गौर कर रहे थे कि सनीचर अपनी दुकान का बार–बार हवाला दे रहा था। उन्होंने जान–बूझकर उसे अनसुना कर दिया और वैद्यजी से कहा, ‘‘बद्री पहलवान कल शहर जा रहे हों तो शाम तक लौट आवें। परसों खन्नावाले मामले में जाँच होगी।’’ वैद्यजी ने सिर हिलाकर कहा, ‘‘मैंने कह दिया है।’’
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जिन दिनों भारतवर्ष में गोरों की हुकूमत थी (बशर्ते की आगे लिखा जानेवाला इतिहास हमें ऐसा मानने की इजाज़त दे), नदियों के किनारे या घाटियों, वनों और अमराइयों के बीच–यानि जहाँ कहीं भी वर्ड्स्वर्थ, रवीन्द्रनाथ ठाकुर या सुमित्रानन्दन पन्त की कविताएँ अपने–आप हलक़ तक आ जाएँ–डाकबँगले बनवाये गए थे। धूल–धक्कड़, हैजा–चेचक– प्लेग, भुखमरी–कंगाली, बदसूरती–बदतमीज़ी–बदमज़गी–जैसे तत्त्व वहाँ बड़ी मुश्किल से पहुँचते थे। दोनों नस्लों के साहब–गोरे या काले–देहातों में जब दौरे पर जाते तो वहीं रुकते थे।
उन दिनों इन डाकबँगलों में रहते हुए दौरे को आसानी से पिकनिक का रूप दिया जा सकता था, जैसे आज पिकनिक को आसानी से दौरे का रूप दिया जा सकता है। साहब लोग वहाँ बैठकर हुकूमत के सहारे समस्याओं को और समस्याओं के सहारे हुकूमत को मजबूत बनाते, पेड़–पौधों, जानवरों, चिड़ियों, कीड़ों–मकोड़ों–भुनगों आदि पर रिसर्च करते, कभी बकरी चरानेवाली नेटिव लड़कियों की तन्दुरुस्ती पर हैरान होते, कभी इलाके की आवारा औरतों को यकीन दिलाते कि कपड़ों और दर्जियों की साज़िश के बावजूद, पूरब और पच्छिम के आदमी में कोई असली फ़र्क़ नहीं है, कभी डालियों में आयी हुई स्कॉच–व्हिस्की की बोतले खोलते, कभी हँसते, कभी नाराज़ होते, कभी चुप रहते, कभी जनता और हुकूमत के बीच पहाड़ का, कभी रेगिस्तान का, कभी गोबर के ढेर का, कभी दरिया का, कभी पुल का काम देते।
ये बातें प्राचीन काल की हैं। अब शहर में देहात का बोलबाला है। गाँवों में प्राइमरी स्कूल और पंचायतघर बन गए हैं और प्लेग–जब तक कि कोई आदमी ही प्लेग न बन जाए, खत्म हो गया है। कोई पढ़ा–लिखा यानी अंग्रेज़ीदाँ आदमी अब शहर से गाँव जाता है तो उसे हाराकिरी नहीं माना जाता। सैकड़ों की तादाद में ऐसे प्रयोग हुए हैं कि काला साहब शहर से देहात गया और बस्ती में एकाध दिन रुककर वहाँ का पानी पीकर, बिना किसी छूत और बीमारी के, हँसता–खेलता ज़िन्दा लौट गया। इन प्रयोगों के बाद देहात के बारे में लोगों की राय बदली है, हालाँकि वहाँ के पानी के बारे में अब भी आखिरी फैसला देना मुश्किल है, पर दिन–रात गर्द के बवण्डर उड़ाती हुई जीपों की मार्फ़त इतना तो तय हो चुका है कि हिन्दुस्तान, जो अब तक शहरों ही में बसा था, गाँवों में भी फैलने लगा है।
पर काले साहबों में अब भी ऐसे कुछ दुर्लभ नमूने हैं जो डाकबँगले के प्रेमपाश में बँधे हैं, बावजूद इसके कि डालियों में आयी हुई स्कॉच की बोतल बहुत पहले ख़ाली हो चुकी है, कम्पाउण्ड में चरनेवाली बकरी खायी जा चुकी है और उसे चरानेवाली लड़की बूढ़ी हो गई है।
छंगामल विद्यालय इंटर कॉलिज की जाँच में आनेवाले डिप्टी डायरेक्टर ऑफ़ एजुकेशन एक ऐसे ही नमूने थे, बल्कि इस प्रकार से वे दुर्लभों में भी दुर्लभ थे। जब वे सब–डिप्टी–इन्स्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स थे तभी उनके मन में–जैसे शेरशाह के मन में दिल्ली के तख्त पर बैठने की, इच्छा समा गई थी कि तरक्की पाकर इस डाकबँगले में रुकूँगा और पिछवाड़े की सीढ़ियों से उतरकर भगतिन बीवी को गंगा–स्नान कराऊँगा और उस डाकबँगले में रुककर महाराणा प्रताप पर एक खंडकाव्य लिखूँगा जो इंटरमीजिएट में पाठ्यपुस्तक के रूप में चलेगा और ‘तुस’ डाकबँगले में रुककर साल में एक बार फिटकरिहा बाबा की कुटी पर जाया करूँगा और ‘मुस’ डाकबँगले में रुककर गीता का स्वाध्याय करते हुए, अब तक बेवकूफ़ी से खोये हुए मौक़ों की याद में तिलमिलाते दिल को राहत दूँगा और ‘भुस’ डाकबँगले...।
और–यहाँ डिप्टी डायरेक्टर होने के बाद उन्होंने सोचा था–नगर के ‘तुमुल कोलाहल कलह’ से बचने के लिए शिवपालगंज के डाकबँगले की ओर भागा करूँगा, वहाँ गँडेरियाँ चूसूँगा, सिंघाड़े खाऊँगा, भुट्टा चबाऊँगा और पाँच सौ फ़ी दिन के रेट से दनादन फ़ाइल पीटूँगा।
छोटे पहलवा�
� डाकबँगले पर खड़े–खड़े गरज रहे थे, ‘‘जानेवाले विलायत चले गए, औलाद यहीं छोड़ गए। गाँव में सीधे आ जाते तो वहीं फटाफट बात हो गई होती। पर उनकी घोड़ी तो सीधे डाकबँगले पर ही रुकती है। सारा गाँव कोस–भर चलकर यहाँ तक आया है और टुटरूँ–टूँ बैठा है।
‘‘नौ बजे सवेरे आए थे, तब से अब एक बजा है। एक–डेढ़ सौ आदमी हाथ–पर–हाथ धरे फड़फड़ा रहा है। अब शाम को वे आवेंगे मोटर पर पों–पों करते हुए और कहेंगे कि हें हें हें, भाई देर हो गई। तुम लोग भी हो बेशर्म ! दाँत निकालकर जवाब दोगे कि हें हें हें हें। इन्हीं बातों पर देह का रोआँ–रोआँ सुलग उठता है।’’
डाकबँगले के सामने हरा–भरा लॉन था। पड़ोस में गेहूँ के खेत बिना पानी के भले ही सूख जाएँ, यहाँ हमेशा हरियाली रहती थी। चारों ओर चहारदीवारी के किनारे–किनारे आम के पेड़ों की क़तार थी जिनकी फ़सल ज़्यादातर वहाँ के माली और चौकीदार, आसपास के तीन–चार गुण्डे और शहर में रहनेवाले एक इंजीनियर खाते थे। पर जैसे कि यहाँ की हवा पर वैसे ही पेड़ों की छाँह पर जनता का अधिकार था जिसका इस समय गँजहों के दोनों दल कसकर इस्तेमाल कर रहे थे।
डाकबँगले के दो छोरों पर पेड़ों की छाँह से मिले हुए दो छोटे शामियाने लगा दिए गए थे। फ़र्श पर दरियाँ और क़ालीन बिछ गए थे। इन दोनों खेमों में एक प्रिंसिपल साहब और उनके साथियों का था, दूसरा खन्ना मास्टर के गुट का। प्रिंसिपल साहब के खेमे में इस वक़्त उनके और बद्री पहलवान के अलावा लगभग साठ आदमी थे। उनमें छोटे पहलवान भी थे जो एक पेड़ के तने से सटे हुए, ललित त्रिभंगी मुद्रा में खड़े होकर डिप्टी डायरेक्टर के आचरण पर अपनी राय ज़ाहिर कर रहे थे। दूसरी ओर के शामियाने में खन्ना मास्टर और रुप्पन बाबू, उनके साथ के कुछ मास्टर और रामाधीन भीखमखेड़वी के कुछ चेले–चपाटी थे। रामाधीन भीखमखेड़वी, जैसी कि आशा थी, आने का वादा करके भी नहीं आए थे।
छोटे पहलवान की दहाड़, लोगों की बेहिसाब बातचीत, खान–पान, सोने की कोशिशें, जम्हाइयाँ, ख़ैनी–तम्बाकू, चिलम-बीड़ी-सिगरेट आदि के माहौल में संगीतधारा बह रही थी।
बात ट्रांज़िस्टरों से शुरू हुई थी। दोनों खेमों में दो–चार ऐसे शौकीन लोग भी थे जो कन्धे पर अँगोछे, कान पर चूने की गोली, पीठ पर बन्दूक, एक हाथ में तीतर का पिंजड़ा और दूसरे हाथ में ट्रांज़िस्टर लेकर आए थे। देखते–देखते ट्रांज़िस्टरों से दोनों ख़ेमों में ‘बलमा, छलिया, बेईमान, दग़ाबाज़’ आदि की विविधभारती गूँजने लगे। जब ग्यारह बज गए तो खन्ना मास्टर के ख़ेमे में न जाने कहाँ से एक ग्रामोफोन, मय–रिकार्ड और ऐम्प्लीफ़ायर के, आ गया और सवा ग्यारह बजे तक भाँय–भाँय करके, ‘बेईमान दगाबाज़’ वाले गानों को भुलाकर उसने शान्तिपूर्ण सह–अस्तित्व और विश्वप्रेम का संगीत शुरू किया, ‘मुझको अपने गल्ले (मुराद गले से है) लगा लो, ऐ मेरे हमराही।’
ज़ाहिर है कि इस गीत के अक्षर–अक्षर में सफ़ेद फ़ाख्ते उड़ रहे थे और जैतून की टहनियाँ हिल रही थीं; पर प्रिंसिपल साहब के खे़मे में इसे युद्ध की चुनौती समझा गया और देखते–देखते वहाँ भी एक ग्रामोफोन मय–रिकार्ड और ऐम्प्लीफ़ायर के प्रकट हो गया और चीख़कर गाने लगा, ‘आ ऽ ऽ ऽ गले लग जा।’
जैसा कि देहाती बारातों में ऐसे मौक़ों पर होता है, इस घोषणा के बाद दोनों ओर से फ़िल्मी गानों की भिड़न्त हो गई।
इस वातावरण में नाराज़ कौन हो सकता था ? कोई नहीं, सिर्फ़ छोटे पहलवान को छोड़कर। पर, एक तरह से, छोटे पहलवान की नाराज़गी जायज़ थी। वास्तव में कुछ लोग वहाँ आठ बजे ही आ गए थे, क्योंकि डिप्टी डायरेक्टर को नौ बजे आना था। दो–तीन घण्टे की देरी तो सीधे–से–सीधे बिलकुल गऊ हाकिम को भी छज जाती है (गऊ के साथ तो ऐसा ही रहता है कि पाँच बजे घर लौटते–लौटते किसी के खेत में रुककर फ़सल चरने लगी और दो–चार डण्डे खाकर सात–आठ बजे तक वापस आयी), पर पाँच घण्टे बीत जाने पर छोटे पहलवान का परेशान होना बहुत ही न्यायसंगत था।
‘‘क्या करें ? उन्हें दिन–रात मीटिंगें ही घेरे रहती हैं। जैसे ही कहीं चलने को तैयार हुए, कोई–न–कोई मीटिंग धर दबोचती है।’’ प्रिंसिपल साहब ने भलमनसाहत से कहा।
दो बज रहे थे। दिन काफ़ी गरम हो उठा था�
�� और लोगों को शुबहा होने लगा था कि ग्रामोफ़ोन पर उन्हीं गानों को लगातार दोहराया जा रहा है। लोग उठ–उठकर बार–बार झाड़ियों के पीछे जल्दी–जल्दी जाने लगे थे और दोनों पार्टियों के लीडर डरने लगे थे कि ऐसा न हो कि ‘साला मूतने जाय और मूतने–भर का ही हो जाय।’ छोटे पहलवान अब पेड़ के नीचे से खिसककर शामियाने में आ गए थे और रुप्पन बाबू के बारे में बात करने लगे थे :
‘‘रुप्पन दुश्मनों से जाकर मिल गए हैं। कोई और न मिला तो बाप पर ही फ़ालिन हो गए। हमने भी अपने बाप महराज कुसहरप्रसाद से बड़ी मारपीट की है। पर क्या मज़ाल कि कोई बाहर का आदमी उन्हें–तू–तड़ाक् कर दे। यहाँ ये साले खन्ना–पन्ना उन्हीं के बाप को जुतिया रहे हैं और ये लपलपाते हुए उन्हीं के पीछे टिलौं–टिलौं कर रहे हैं।
‘‘कल वैद्यजी रुप्पन के हाल पर खोपड़ी पटकने लगे। अपने बाप को मैंने सैकड़ों लाठियाँ मारी हैं, पर उनको भी इतना दुखी कभी नहीं देखा। नालायक लौंडे हों तो ऐसे हों...।’’