वैद्यजी का सन्देश पाकर खन्ना, मालवीय, उनके साथ के दो मास्टर और रुप्पन बाबू आपस में लापरवाही से बातचीत करते हुए आए और उनके सामने बैठ गए। खन्ना मास्टर ने कहा, ‘‘आपने याद किया है ?’’
अँधेरा होने को था। डूबती रोशनी में जंगल–जैसे बाग, खेमे, कालीन–इन सबने समाँ बाँध दिया। लगता था, कोई शहंशाह दिल्ली से दक्खिन पहुँचकर शाम के वक़्त अपने दरबारियों के साथ किसी पहाड़ी की तलहटी में मन्त्रणा कर रहा है और कुछ बागी जागीरदारों को पकड़कर उसके सामने पेश किया गया है।
तब वैद्यजी का भाषण शुरू हुआ :
‘‘खन्नाजी और मालवीयजी, मैंने यहाँ आप लोगों को आत्मीय समझकर बुलाया है।
‘‘आपका प्रिंसिपल से पारस्परिक विरोध बढ़ गया है। मुक़दमेबाजी हो रही है। खुलेआम गाली–गलौज होता है, मारपीट की तैयारियाँ की जा रही हैं। मैं आपको दोष नहीं देता। दोष किसी का भी हो सकता है। मैं स्वयं दोषपूर्ण हूँ। मैं कैसे बता सकता हूँ कि किसका दोष है ! पर एक बात मैं जानता हूँ कि परिस्थिति विषम है। उसका समाधान होना चाहिए।’’
खन्ना ने कहा, ‘‘मुझे भी अपनी बात कहने का मौक़ा दीजिए।’’
‘‘नहीं,’’ उन्होंने गम्भीरता से सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं ! नहीं ! नहीं आप अपनी बात अनेक बार कह चुके हैं। अनेक स्थानों पर कह चुके हैं। अनेक रूप से कह चुके हैं। प्रिंसिपल भी अपनी बात कह चुके हैं। केवल एक व्यक्ति ने अभी तक अपनी बात नहीं कही है। वह व्यक्ति मैं हूँ। आज केवल मैं अपनी बात कहूँगा।
‘‘यह विद्यालय मेरा बनाया हुआ है। इसे मैंने अपने रक्त से सींचा है। आप दोनों पक्ष केवल वेतनभोगी हैं। यहाँ नहीं, तो वहाँ जाकर अध्यापक हो जाएँगे। कहीं भी अध्यापक हो जाएँगे। अच्छा वेतन पाने लगेंगे। पर मैं यहीं रहूँगा। यह विद्यालय सफलतापूर्वक चला तो अपने को सफल मानूँगा। यह पार्टीबन्दी में नष्ट होने लगा तो अपने को नष्ट हुआ समझूँगा। मुझे कष्ट है। अपार कष्ट है। आन्तरिक व्यथा है। मेरी व्यथा आप लोग नहीं समझ सकते।’’
वे थोड़ी देर के लिए चुप हो गए। शामियाने में सन्नाटा छाया था। उन्होंने फिर छलाँग लगायी :
‘‘मुझे अब केवल एक मार्ग दिखायी देता है। मैंने निर्णय कर लिया है। आपसे मेरी करबद्ध प्रार्थना है कि आप वह निर्णय मान लें। आपके लिए वही एक अकेला मार्ग है। आपकी उसी पर चलना है।’’
‘‘खन्नाजी और मालवीयजी, मैं औरों से नहीं कहता, केवल आपसे कह रहा हूँ। आपको इस्तीफ़ा देना होगा।’’
उनकी बात काटते हुए खन्ना ने कहा, ‘‘पर...।’’
‘‘नहीं,’’ दयालुता के साथ, पर मज़बूती से उन्होंने दोहराया, ‘‘नहीं, मैं पहले ही कह चुका हूँ; आज केवल मैं बोलूँगा। तो, मैं कह रहा था, आपको इस्तीफ़ा देना होगा। आज और अभी, यहीं और इसी वक़्त ! आपको इस्तीफ़ा देना होगा। यह मैं क्रोध से नहीं, सोच–समझकर कह रहा हूँ। आपके हित में कह रहा हूँ, विद्यालय के हित में कह रहा हूँ, पूरे समाज के हित में कह रहा हूँ।
‘‘मेरा यही विनम्र निवेदन है। आप मेरी प्रार्थना न ठुकराएँ। आप इसी समय इस्तीफ़ा दे दें। बाद में आपको स्वतन्त्रता होगी कि आप चाहें जो कुछ कहें। तब आप चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि हमसे बलपूर्वक इस्तीफ़ा लिया गया है। इस विषय में आप हम पर मुक़दमा चलाने के लिए स्वतन्त्र रहेंगे। पर मेरा निवेदन है कि इस समय आप स्वेच्छापूर्वक इस विद्यालय के हितैषी होने के नाते चुपचाप इस्तीफ़ा दे दें।
‘‘आपने हमसे बहुत–कुछ माँगा है, बहुत–कुछ पाया है। मैंने कभी कुछ नहीं माँगा। आज इस विद्यालय के नाम पर सिर्फ़ आपका इस्तीफ़ा माँग रहा हूँ। मेरी प्रार्थना...’’
तब तक रुप्पन बाबू अपनी जगह खड़े हो गए थे। उनकी आवाज़ लड़खड़ा रही थी। जोश के मारे जब वे बोले तो एक शब्द पर दूसरा शब्द चढ़ने लगा। उन्होंने कहा, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता। आप ज़बरदस्ती इनसे इस्तीफ़ा नहीं लिखा सकते। ये इस्तीफ़ा नहीं देंगे।’’
वैद्यजी ने उनकी बात अनसुनी कर दी और प्रिंसिपल से कहा, ‘‘आपके पास टाइप किये हुए काग़ज़ तो मौजूद हैं न ? हैं, तो उधर ले जाइए। छोटे, तुम खन्नाजी और मालवीयजी को उधर ले जाओ। ये बुद्धिमान हैं। सब समझ जाएँगे। जाओ, बद्री तुम भी जाओ।’’
फिर वे कड़के। कड़क इतनी आकस्मिक और अनोखी थी कि बद्री पहलवान उछलकर उनके सामने आ गए। और लोग भी उनके पास दौड़ आए। कड़कते हुए वे बोले, ‘‘और, यह रुप्पन ! यह मूर्ख है ! नीच है ! पशु है ! पतित है ! विश्वासघाती है !’’
वे इसी तरह बोलते रहे और इस प्रसंग में साबित करते रहे कि गालियों के मामले में संस्कृत भी कोई कमज़ोर भाषा नहीं है। कुछ उनकी आवाज़ की कड़क, कुछ संस्कृत का प्रकोप, लोग सन्नाटे में आ गए। लोगों ने वैद्यजी को आज पहली बार इतने क्रोध में देखा था।
वे कालीन पर बैठे हुए अपने दोनों घुटनों को बार–बारी फौलादी पिस्टन की तरह चला रहे थे और काँपते हुए गले से चीख़ रहे थे ‘‘तू नेता बनता है ? मेरा विरोध करके तू नेता बनना चाहता है ? तो देख, अभी बताता हूँ।’’
उनकी आवाज़ कुछ और काँपने लगी। वे कहते रहे, ‘‘आशा की थी कि वृद्धावस्था शान्ति से बीतेगी। गाँव–सभा का झगड़ा समाप्त कर चुका हूँ। सहकारी संघ था, बद्री को दे चुका हूँ। सोचा था, इस कॉलिज का भार तुझे देता जाऊँगा। देने के लिए इनके अतिरिक्त अब मेरे पास बचा ही क्या था ? पर नीच ! तू विश्वासघाती निकला ! जा, अब तुझे कुछ नहीं मिलेगा।’’
उनकी आवाज़ में एक अजब–सी तड़प आ गई। वे घोषणा करते हुए बोले, ‘‘जा, तुझे मैं अपने उत्तराधिकार से वंचित करता हूँ। सब लोग सुन लें मेरे बाद बद्री ही इस कॉलिज के मैनेजर होंगे। यही मेरा अन्तिम निर्णय है। रुप्पन को कुछ नहीं मिलेगा।’’
कहते–कहते उनका गला रुँध गया। क्रोध और कुण्ठा से उनकी आँखों में आँसू छलछला आए। रंगनाथ को लगा, सब लोग उसे ही घूर रहे हैं। उसने निगाह नीची कर ली।
जब रुप्पन बाबू उठकर फाटक की ओर चल दिए तब लोगों को होश आया। वैद्यजी अपनी आँखें पोंछ रहे थे। लोगों में अचानक हरकत शुरू हुई। वे इधर–उधर फैलने लगे। डाकबँगले के बरामदे में एक लालटेन जल गई थी, वहाँ मालवीय ज़ोर–ज़ोर से बोलने लगे। छोटे ने उन्हें पुकारकर कहा, ‘‘धीरज से काम लो, मास्टर !’’
प्रिंसिपल ने खन्ना का हाथ मजबूती से पकड़कर कहा, ‘‘आओ मास्टर साहब, हम लोग उधर ही चलें। हमारा झगड़ा खत्म हुआ। आज से हम लोग फिर दोस्त हो गए।’’
उम्मीद तो न थी, पर ऐसी रात के बाद भी सवेरा आ ही गया।
रंगनाथ रात में ठीक से सो न पाया था, सोच भी न पाया था। पर जागते ही उसने अपने बारे में एक बात सोच ली। कुछ महीने पहले, एक लम्बी बीमारी से उठने के बाद, वह वहाँ केवल अपनी तन्दुरुस्ती सुधारने आया था। अब अचानक उसने सोचा कि उसकी तन्दुरुस्ती सुधर गई है।
बगल में रुप्पन बाबू की चारपाई खाली थी। पता नहीं, वे रात–भर कहाँ रहे होंगे। कुछ मामलों में उसे रुप्पन बाबू पर पूरा भरोसा था। वह जानता था कि जब वे बेवकूफ़ बनते हैं तो अपनी इच्छा से बनते हैं। बेवकूफ़ बनना उनके लिए मजबूरी नहीं, शौक की, लगभग ऐय्याशी की बात थी। इसलिए उसे इत्मीनान था कि वैद्यजी का हाहाकार सुनकर वे शराब की दुकान की ओर न भागे होंगे। दुख पड़ने पर शराब की ओर भागने की बात उनके मन में न आयी होगी, क्योंकि उन्होंने ‘देवदास’ नहीं पढ़ा था, इतना ज़्यादा सिनेमा भी नहीं देखा था। वे मन्दिर की ओर भी न गए होंगे, क्योंकि मुसीबत में मन्दिर का सहारा पकड़नेवाले की जैसी शक्ल होनी चाहिए वैसी शक्ल रुप्पन बाबू की नहीं थी।
तब वे कहाँ हैं ? क्या वे कहीं इस वक़्त कॉलिज में हड़ताल करने के लिए अपने मुर्गों को जमा कर रहे हैं ? इमारत में आग लगवाने, प्रिंसिपल को पिटवाने या बिना वज़ह बाज़ार लुटवाने के लिए क्या वे किसी क्रान्तिकारी दल का संगठन कर रहे हैं ? या वे, शिक्षा–व्यवसाय के मशहूर फ़ारमूले के अनुसार, पड़ोस के किसी गाँव में, खन्ना मास्टर का प्रिंसिपल के पद पर राजतिलक करके, उनके लिए छंगामल विद्यालय इंटर कॉलिज के मुकाबले का कोई दूसरा कॉलिज खड़ा करने जा रहे हैं ? रंगनाथ ने सोचा : ऐसी ही कोई बात वे ज़रूर करने जा रहे हैं, क्योंकि वैद्यजी के क्रोध की नुमायश देखकर जब वे वहाँ से चले थे तो उस समय उनका व्यक्तित्व लुचलुचाया हुआ नहीं, तिलमिलाया हुआ था।
वैद्यजी सवेरे काफ़ी दूर टहलने के लिए जाते थे और अभी तक वे लौटे नहीं थे। रंगनाथ जानता था कि अब उनसे स्वाभाविक ढंग से बात करना मुश्कि
ल होगा और वह अस्वाभाविक ढंग से बात करने के लिए तैयार न था। उसने अपने–आपसे कहा, विरोध की पहली कोशिश में ही तुम भरभराकर लुढ़क गए हो। अब तुम्हें अपनी असलियत समझ लेनी चाहिए। यह जगह छोड़ देनी चाहिए, मामा के लौटने के पहले ही।
रहना नहीं, देस बिराना है।
सनीचर की दुकान खुल गई थी और दो आदमी उसके सामने बड़े नाटकीय ढंग से लड़ाई लड़ रहे थे। लड़ाई शाब्दिक, तार्किक और अभी तक अहिंसापूर्ण थी। उनमें से एक ने दूसरे के खेत में लगा हुआ नहर का पानी काटकर अपने खेत में ले लिया था। वे लोग गाँव–सभा के प्रधान के यहाँ झगड़े का निपटारा कराने के लिए और निपटारा होने के पहले झगड़ा करने के लिए आए थे। धुआँधार गालियाँ दोनों ओर से बरस रही थीं–ऐसी गालियाँ जो साहित्य और कला में, अखबार में, रेडियो में या सिनेमा में नहीं, सिर्फ़ वास्तविक जीवन में पायी जाती हैं।
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