Rag Darbari

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Rag Darbari Page 98

by Shrilal Shukla


  पिछले महीनों वह जिस ज़िन्दगी के आसपास मँडराता रहा था, जिसके भीतर घुसकर भी वह बाहरी–का–बाहरी ही बना रहा था, वह एक लानत की तरह उसके सामने आकर खड़ी हो गई। उसकी आत्मा के तारों पर — कि आत्मा की शक्ल सारंगी–जैसी होती हो–पलायन–संगीत गूँजने लगा।

  वह दरवाज़े पर बैठा हुआ चुपचाप देख रहा था। छोटे पहलवान रोज़ की तरह दाद खुजलाते हुए सामने से निकल गए और उन्होंने रंगनाथ की ओर नहीं देखा। सड़क पर ज़ोर की घरघराहट हुई। यह शहर की कोअॉपरेटिव डेरीवाला ट्रक होगा जो दूध इकट्ठा करने के लिए यहाँ आया होगा। एक आदमी हाथ में हाँड़ी लटकाए सनीचर की दुकान की ओर जाता दीख पड़ा। रंगनाथ समझ गया कि यह वही तेली है जो शहर में खरीदे हुए मशीन के तेल को कोल्हू में पेरा हुआ शुद्ध सरसों का तेल कहकर देहात में बेचता है। अण्डरवियर और बनियान में एक शुद्ध सिपाहीनुमा आदमी, दरों में भारी रिआयत के साथ, गोश्त ख़रीदकर चिकवे के घर लौटता हुआ दीख पड़ा। रोज़ की तरह उसने रंगनाथ से कहा, ‘‘जै हिन्द साब।’’

  वह गोश्त लटकाए हुए चला गया। रंगनाथ के मन में आया कि वह उसके गले में हाथ डालकर कहे, ‘चलो, इसी बहाने यहाँ किसी ने हिन्द का नाम तो लिया।’

  दूर कहीं पर किसी मदारी की डुगडुगी बजने लगी। सनीचर की दुकान पर होनेवाले गाली–गलौज ने नयी ऊँचाई छूने की कोशिश की। रंगनाथ को अहसास हुआ कि वह बहुत उकताया हुआ है। उसकी आत्मा के तारों पर पलायन–संगीत अब पूरी तौर से गूँजने लगा।

  पलायन–संगीत

  तुम मँझोली हैसियत के मनुष्य हो और मनुष्यता के कीचड़ में फँस गए हो। तुम्हारे चारों ओर कीचड़–ही–कीचड़ है।

  कीचड़ की चापलूसी मत करो। इस मुग़ालते में न रहो कि कीचड़ से कमल पैदा होता है। कीचड़ में कीचड़ ही पनपता है। वही फैलता है, वही उछलता है।

  कीचड़ से बचो। यह जगह छोड़ो। यहाँ से पलायन करो।

  वहाँ, जहाँ की रंगीन तसवीरें तुमने ‘लुक’ और ‘लाइफ़’ में खोजकर देखी हैं; जहाँ के फूलों के मुकुट, गिटार और लड़कियाँ तुम्हारी आत्मा को हमेशा नये अन्वेषणों के लिए ललकारती हैं; जहाँ की हवा सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है, जहाँ रविशंकर–छाप संगीत और महर्षि-योगी-छाप अध्यात्म की चिरन्तन स्वप्निलता है...।

  जाकर कहीं छिप जाओ। यहाँ से पलायन करो। यह जगह छोड़ो।

  नौजवान डॉक्टरों की तरह, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के लिए हुड़कनेवाले मनीषियों की तरह, जिनका चौबीस घण्टे यही रोना है कि वहाँ सबने मिलकर उन्हें सुखी नहीं बनाया, पलायन करो। यहाँ के झंझटों में मत फँसो।

  अगर तुम्हारी किस्मत ही फूटी हो, और तुम्हें यहीं रहना पड़े तो अलग से अपनी एक हवाई दुनिया बना लो। उस दुनिया में रहो जिसमें बहुत–से बुद्धिजीवी आँख मूँदकर पड़े हैं। होटलों और क्लबों में। शराबखानों और कहवाघरों में, चण्डीगढ़–भोपाल–बंगलौर के नवनिर्मित भवनों में, पहाड़ी आरामगाहों में, जहाँ कभी न खत्म होनेवाले सेमिनार चल रहे हैं। विदेशी मदद से बने हुए नये–नये शोध–संस्थानों में, जिनमें भारतीय प्रतिभा का निर्माण हो रहा है। चुरुट के धुएँ, चमकीली जैकेटवाली किताब और ग़लत, किन्तु अनिवार्य अंग्रेज़ी की धुन्धवाले विश्वविद्यालयों में। वहीं कहीं जाकर जम जाओ, फिर वहीं जमे रहो।

  यह न कर सको तो अतीत में जाकर छिप जाओ। कणाद, पतंजलि, गौतम में, अजन्ता, एलोरा, ऐलिफ़ेंटा में, कोणार्क और खजुराहो में, शाल–भजिका–सुर–सुन्दरी–अलसकन्या के स्तनों में, जप-तप-मन्त्र में, सन्त-समागम-ज्योतिष-सामुद्रिक में–जहाँ भी जगह मिले, जाकर छिप रहो।

  भागो, भागो, भागो। यथार्थ तुम्हारा पीछा कर रहा है।

  वह उठने ही वाला था कि उसे कॉलिज की ओर से प्रिंसिपल साहब आते दीख पड़े। आज उन्होंने कमीज़ और हाफ़-पैण्ट के साथ मोज़े और जूते भी पहन लिये थे। हाथ में वही रोज़वाला बेंत। उन्होंने दूर से ही हँसकर नमस्कार किया। देखते–देखते वे चबूतरे पर आ गए और इस आत्मविश्वास के साथ कि वहाँ बस उन्हीं की कमी थी, पास पड़ी हुई कुर्सी पर बैठ गए। पूछा, ‘‘महराज अभी टहलकर लौटे नहीं क्या ?’’ कहकर वे इत्मीनान से बैठने के लिए मोज़े और जूते उतारने लगे।

  थोड
़ी देर में वे कुर्सी पर मेंढक की तरह बैठ गए। बोले, ‘‘कल महराज को बड़ा दुख हुआ, पर चलिए, वह बात भी खत्म हुई।’’

  वे कुछ और उत्साह में आगे आ गए, ‘‘मैंने तो आपके लिए पहले ही कह दिया था। रामभरोसे बैठ के सबका मुजरा लेयँ। आप हमारे ख़िलाफ़ थोड़े ही थे। उधर तो आप हालचाल लेने के लिए जाते थे। महराज को मैंने समझा दिया था।’’

  दोनों थोड़ी देर चुप बैठे रहे। मदारी की डुगडुगी की आवाज़ नज़दीक आती जा रही थी। प्रिंसिपल ने कहा, ‘‘आपका स्वास्थ्य अब बिलकुल टिचन्न जान पड़ता है।’’

  ‘‘टिचन्न ?’’

  ‘‘जी हाँ, अब तो बिलकुल फ़िट है न ?’’

  रंगनाथ ने बड़े शिष्टाचार से कहा, ‘‘आपकी कृपा से।’’

  ‘‘तो अब क्या इरादा है ?’’

  ‘‘वापस जा रहा हूँ, रिसर्च का काम इतने दिन से छूटा हुआ है। गर्मियों में पूरा करना है।’’

  वे कई बातें अनर्गल ढंग से बोल गए, जिनका तात्पर्य यह था कि रंगनाथ इतिहास का भारी विद्वान् है, पर ज़्यादातर लोग उल्लू के पट्‌ठे हो गए हैं, यूनिवर्सिटियों की हालत अस्तबल–जैसी है; बड़े–बड़े प्रोफ़ेसर महज़ भाड़े के टट्टू हैं।

  उसने इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। उन्होंने पूछा, ‘‘आपका क्या चान्स है ? क्या इस साल वहाँ लेक्चरर बनने की उम्मीद है ?’’

  ‘‘अभी उसका सवाल ही नहीं उठता।’’

  प्रिंसिपल साहब ने अपनी कुर्सी को दो इंच आगे खिसका लिया। कहा, ‘‘आप जानते ही हैं, खन्ना ने इस्तीफ़ा दे दिया है। इतिहास के लेक्चरर की जगह हमारे यहाँ ख़ाली हुई है। उसी में आप क्यों नहीं लग जाते ? ठाठ से मामा के यहाँ रहिए, कॉलिज में दो घण्टा पढ़ाइए, बाकी वक़्त रिसर्च कीजिए।’’

  रंगनाथ को जान पड़ा कि उसकी देह का सारा खून झपटकर साँप की तरह उसके मत्थे में पहुँच गया है। उसने तीखेपन के साथ कहा, ‘‘मैं आपके यहाँ मास्टरी करूँगा ? और वह भी खन्ना की जगह !’’

  प्रिंसिपल साहब के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आयी। उन्होंने कहा, ‘‘मैंने बैद महराज से बात कर ली है।’’

  रंगनाथ ने उसी तीखेपन के साथ कहा, ‘‘मेरी आँख के आगे की बात है। मैं जानता हूँ कि खन्ना को यहाँ से कैसे निकाला गया है...।’’

  वे उदास हो गए, बोले, ‘‘क्या बतायें। आप भी ऐसा कहते हैं। यह तो पार्टीबन्दी की बात हुई।’’

  एक आदमी फटी हुई तहमद लपेटे, ऊपर से काला चीकटदार कुरता पहने डुगडुगी बजाता हुआ सनीचर की दुकान के पास आया। उसके साथ एक बन्दर और बँदरिया स्टेज पर नाचनेवाली वेशभूषा में चल रहे थे। पीछे कई छोटे–छोटे लड़के किलकारी भरते हुए चले आ रहे थे। उनके हुजूम में कुछ कुत्ते भी थे जिन्हें धमकाने के लिए वह आदमी बीच में ‘कड़ाक्’ के साथ डुगडुगी को सिर पर ले आता था।

  डुगडुगी की वजह से प्रिंसिपल साहब को अपनी आवाज़ ऊँची करनी पड़ी। वे कहते रहे, ‘‘जगह खन्ना के जाने से हुई या मालवीय के मरने से–आपको इससे क्या मतलब ? आपके घर का बाग है, आम खाइए। पेड़ क्यों गिन रहे हैं ?’’

  इसका कोई जवाब न पाकर वे रंगनाथ को पुचकारने लगे। ‘आप’ से ‘तुम’ पर उतरकर बोले, ‘‘मैं तो तुम्हें घर का आदमी मानकर कह रहा हूँ। आख़िर करोगे क्या ? कहीं–न–कहीं नौकरी ही तो करोगे न ? यहाँ तो खन्ना ने अपने मन से इस्तीफ़ा दिया है। वहाँ क्या पता सचमुच ही कोई खन्ना कान पकड़कर निकाला गया हो।

  ‘‘इससे कहाँ तक बचोगे बाबू रंगनाथ ? जहाँ जाओगे, तुम्हें किसी खन्ना की ही जगह मिलेगी।’’

  कहकर वे चबूतरे से कुछ दूर खड़े मदारी की तरफ़ मुख़ातिब हुए और हाथ के पुरज़ोर इशारे से उसे जहन्नुम में जाने की सलाह देने लगे।

  रंगनाथ का चेहरा तमतमा गया। अपनी आवाज़ को ऊँचा उठाकर, जैसे उसी के साथ वह सच्चाई का झण्डा भी उठा रहा हो, बोला, “प्रिंसिपल साहब, आपकी बातचीत से मुझे नफ़रत हो रही है। इसे बन्द कीजिए।’’

  प्रिंसिपल ने यह बात बड़े आश्चर्य से सुनी। फिर उदास होकर बोले, ‘‘बाबू रंगनाथ, तुम्हारे विचार बहुत ऊँचे हैं। पर कुल मिलाकर उससे यही साबित होता है कि तुम गधे हो।’’

  इसके बाद वार्ता में गतिरोध पैदा हो गया। मदारी, जहन्नुम में जाने के बजाय, वहीं पर ज़ोर–ज़ोर से गाने लगा था और उसकी डुगडुगी अब एक नयी ताल पर बज रही थी। कुछ दूरी
पर कुछ कुत्ते दुम हिलाते, कमर लपलपाते भूँक रहे थे। लड़के घेरा बाँधकर खड़े हो गए थे। दोनों बन्दर मदारी के सामने बड़ी गम्भीरता से मुँह फुलाकर बैठे हुए थे और लगता था कि ये जब उठेंगे तो भरतनाट्‌यम् से नीचे नहीं नाचेंगे।

 

 

 


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