Rag Darbari
Page 26
रंगनाथ ने शोध के लिए एक ऐसा ही विषय चुना था। हिन्दुस्तानियों ने अपनी पुरानी ज़िन्दगी के बारे में अंग्रेज़ों की मदद से एक विषय की ईजाद की है जिसका नाम इण्डोलॉजी है। रंगनाथ के शोध का सम्बन्ध इसी से था। इण्डोलॉजी के शोधकर्त्ताओं को पहले इस विषय के शोधकर्त्ताओं का शोध करना पड़ता है और रंगनाथ वही कर रहा था। दो दिन पहले शहर जाकर यूनिवर्सिटी पुस्तकालय से वह बहुत–सी किताबें उठा लाया था और इस समय नीम पर फैली धूप की मार्फ़त उनका अध्ययन कर रहा था। उसके दायें मार्शल और बायीं ओर कनिंघम विराजमान थे। विण्टरनीत्ज़ बिलकुल नाक के नीचे थे। कीथ पीछे की ओर पायजामे से सटे थे। स्मिथ पैताने की ओर ढकेल दिए गए थे और वहीं उल्टी पल्टी हालत में राइस डेविस की झलक दिखायी दे रही थी। परसी ब्राउन को तकिये ने ढक लिया था। ऐसी भीड़–भाड़ में काशीप्रसाद जायसवाल बिस्तर की एक सिकुड़न के बीच औंधे–मुँह पड़े थे। भण्डारकर चादर के नीचे से कुछ सहमे हुए झाँक रहे थे। इण्डोलॉजी की रिचर्स का समाँ बँध गया था।
इसीलिए रंगनाथ को जब अचानक ‘हाउ–हाउ’ की आवाज़ सुनायी दी तो स्वाभाविक था कि वह समझता, कोई ऋषि सामवेद का गान कर रहा था। थोड़ी देर में ‘हाउ–हाउ’ और नज़दीक आ गया, उसने समझा कि कोई हरिषेण समुद्रगुप्त की दिग्विजय फेफड़ा फाड़कर सुना रहा है। इतने में वह ‘हाउ–हाउ’ बिलकुल नीचे की गली में सुनायी दिया और उसमें ‘मार डालूँगा साले को’ जैसे दो–चार ओजस्वी वाक्यों की मिलावट भी जान पड़ी। तब रंगनाथ समझ गया कि मामला खालिस गँजहा है।
वह मुँडेर के पास जाकर खड़ा हो गया। गली में झाँकने पर उसे एक नौजवान लड़की दिखायी दी। उसका सिर खुला था, साड़ी इधर–उधर हो रही थी, बाल रूखे और ऊलजलूल थे, उसके होंठ बराबर चल रहे थे। पर इन्हीं बातों से यह न सोच बैठना चाहिए कि लड़की शहर की थी या ताज़े फै़शन की थी। वह ठेठ देहात की थी, निहायत गन्दी थी, और उसके होंठ च्यूइंगम खाने की वजह से नहीं, बल्कि अपने साथ की बकरियों को ‘हले–हले–हले’ कहने की वजह से हिल रहे थे। चार–छ: छोटी–बड़ी बकरियाँ दीवार की दरार में उगते हुए एक पीपल के पौधे को चर रही थीं, या चरकर किसी दूसरी दरार की ओर उसमें उगनेवाले किसी दूसरे पीपल की तलाश कर रही थीं। रंगनाथ चरागाही वातावरण का यह दृश्य देखता रहा और उसमें ‘हाउ–हाउ’ के उद्गम की खोज करता रहा। वहाँ ‘हाउ–हाउ’ नहीं था। निगाह हटाते–हटाते उसने लड़की के चेहरे को भी देख लिया। जो लड़की का ज़िक्र आते ही ताली बजाकर नाचने लगते हैं और फ़र्श से उछलकर छत से टकरा जाते हैं, उनके लिए जैसे कोई भी लड़की, वैसे ही यह लड़की भी खूबसूरत थी। पर सच बात तो यह है कि बकरियाँ उससे ज़्यादा खूबसूरत थीं।
‘हाउ–हाउ’ के उद्गम का पता नहीं चला, पर वह आवाज़ कान में बराबर गूँजती रही। रंगनाथ ने परसी ब्राउन, कनिंघम आदि को छत पर वैसे ही पड़ा रहने दिया और नीचे उतरकर दरवाज़े पर आ गया। इस समय वैद्यजी दवाख़ाने का काम कर रहे थे। चार–छ: मरीज़ों और सनीचर को छोड़कर वहाँ और कोई नहीं था। ‘हाउ–हाउ’ की आवाज़ अब बिलकुल नुक्कड़ पर आ गई थी।
रंगनाथ ने सनीचर से पूछा, ‘‘यह सुन रहे हो ?’’
सनीचर चबूतरे पर बैठा हुआ कुल्हाड़ी में बेंट जड़ रहा था। उसने अपनी जगह से घूमकर हवा की ओर कान उठाया और कुछ क्षणों तक ‘हाउ–हाउ’ सुनता रहा। अचानक उसके माथे से चिन्ता की झुर्रियाँ खत्म हो गईं। उसने इत्मीनान से कहा, ‘‘हाँ, कुछ ‘हाउ–हाउ’ जैसा सुनायी तो दे रहा है। लगता है, छोटे पहलवान से कुसहर की फिर लड़ाई हुई है।’’
यह बात उसने इस अन्दाज़ से कही जैसे किसी भैंस ने दीवार में सींग रगड़ दिए हों। वह घूमकर फिर अपने प्रारम्भिक आसन से बैठ गया और बसूले से कुल्हाड़ी के बेंट को पतला करने लगा।
अचानक ‘हाउ–हाउ’ सामने आ गया। वह लगभग साठ साल का एक बुड्ढा आदमी था। देह से मजबूत। नंगे बदन। पहलवानी ढंग से घुटनों तक धोती बाँधे हुए। उसके सिर पर तीन चोटें थीं और तीनों से अलग–अलग दिशाओं में खून बहकर दिखा रहा था कि यह एक तरह का खून भी आपस में मिलना पसन्द नहीं करता। वह ज़ोर–ज़ोर से ‘हाउ–हाउ’ करता हुआ, दोनों हाथ उठाकर हमदर्दी की भीख माँग रहा था।
रंग�
�ाथ खून का दृश्य देखकर घबरा गया। सनीचर से उसने पूछा, ‘‘ये ? ये कौन हैं? इन्हें किसने मारा ?’’
सनीचर ने कुल्हाड़ी का बेंट और बसूला धीरे से ज़मीन पर रख दिया। घायल बुजुर्ग को उसने हाथ पकड़कर चबूतरे पर बैठाया। बुजुर्ग ने असहयोग के जोश में उसका हाथ झटक दिया, पर बैठने से इन्कार नहीं किया। सनीचर ने आँखें सिकोड़कर उनके घावों का मुआइना किया और फिर वैद्यजी की ओर होंठ बिदकाकर इशारे से बताया कि घाव गहरे नहीं हैं। उधर बुजुर्ग का ‘हाउ–हाउ’ अब द्रुत लय छोड़कर विलम्बित की तरफ़ आने लगा और बाद में बड़े ही ठस-क़िस्म की ताल में अटक गया। ऐसी बात गायकी की पद्धति के हिसाब से उल्टी पड़ती थी, पर मतलब साफ़ था कि वे उखड़ नहीं रहे हैं बल्कि जमकर बैठ रहे हैं। सनीचर ने सन्तोष की साँस ली, जिसे दूर–दूर तक लोगों ने सुना ही नहीं, देख भी लिया।
रंगनाथ हक्का–बक्का खड़ा था। सनीचर ने एक अलमारी से रुई निकालते हुए कहा, ‘‘तुम पूछते हो, इन्हें किसने मारा ? यह भी कोई पूछने की बात है ?’’
एक लोटे में पानी और रुई लेकर वह बुजुर्ग के पास पहुँचा और वहीं से बोला, ‘‘इन्हें और कौन मारेगा ? ये छोटे पहलवान के बाप हैं। उसे छोड़कर किस साले में दम है कि इनको हाथ लगा दे ?’’
शायद छोटे पहलवान की इस प्रशंसा से कुसहर के–जिनका पूरा नाम कुसहरप्रसाद था–मन को कुछ शान्ति पहुँची। वहीं से वे वैद्यजी से बोले, ‘‘महाराज, इस बार तो छोटुआ ने मार ही डाला। अब मुझे बरदाश्त नहीं होता। हमारा बँटवारा कर दो, नहीं तो आगे कभी मेरे ही हाथों उसका खून हो जाएगा।’’
वैद्यजी तख्त से उतरकर चबूतरे तक आए। घाव को देखकर अनुभवी आदमियों की तरह बोले, ‘‘चोट बहुत गहरी नहीं जान पड़ती। यहाँ की अपेक्षा अस्पताल जाना ही उचित होगा। वहीं जाकर पट्टी–वट्टी बँधवा लो।’’ उसके बाद उपस्थित लोगों को सम्बोधित करके बोले, ‘‘छोटे का आज से यहाँ आना बन्द ! ऐसे नारकीय लोगों के लिए यहाँ स्थान नहीं है।’’
रंगनाथ का खून उफनाने लगा। बोला, ‘‘ताज्जुब है, इस तरह के लोगों को बद्री दादा अपने पास बैठालते हैं।’’
बद्री पहलवान धीरे से घर से बाहर आ गए। लापरवाही से बोले, ‘‘पढ़े–लिखे आदमी को समझ–बूझकर बोलना चाहिए। क्या पता किसका कसूर है ? ये कुसहर भी किसी से कम नहीं हैं। इनके बाप गंगादयाल जब मरे थे तो यह उनकी अर्थी तक नहीं निकलने दे रहे थे। कहते थे कि घाट तक घसीटकर डाल आएँगे।’’
कुसहरप्रसाद ने एक बार फिर बड़े कष्ट से ‘हाउ–हाउ’ कहा, जिसका अर्थ था कि बद्री ऐसी बात कहकर बड़ा अत्याचार कर रहे हैं। फिर वे अचानक उठकर खड़े हो गए और दहाड़कर बोले, ‘‘बैद महाराज, अपने लड़के को रोको। ये सब इसी तरह की बातें कहकर एकाध लाशें गिरवाने पर तुले हैं। इन्हें चुप करो, नहीं तो खून हुए बिना नहीं रहेगा। अस्पताल तो मैं बाद में जाऊँगा, पहले मैं थाने पर जा रहा हँ। छोटुआ को इस बार अदालत का मुँह न दिखाया तो गंगादयाल की नहीं, दोग़ले की औलाद कहना। मैं तो यहाँ तुम्हें सिर्फ़ घाव दिखाने आया था। देख लो बैद महाराज, यह खून बह रहा है। अच्छी तरह देख लो...तुम्हीं को गवाही में चलना पड़ेगा।’’
वैद्यजी ने घाव देखने की इच्छा नहीं दिखायी। वे अपने मरीज़ों की ओर देखने लगे। साथ ही प्रवचन देने लगे कि पारस्परिक कलह शोक का मूल है। यह कहते हुए, उदाहरण देने के लिए, वे झपटकर इतिहास के कमरे में घुसे और यही कहते हुए पुराण के रोशनदान से बाहर कूद आए। पारस्परिक कलह को शोक का मूल साबित करके उन्होंने कुसहर को सलाह दी कि थाना–कचहरी के चक्कर में न पड़ना चाहिए। उसके बाद वे दूसरे प्रवचन पर आ गए जिसका विषय था कि थाना–कचहरी भी शोक का मूल है।
कुसहर ने दहाड़कर कहा, ‘‘महाराज, यह ज्ञान अपने पास रखो। यहाँ खून की नदी बह गई और तुम हम पर गाँधीगीरी ठाँस रहे हो। यदि बद्री पहलवान तुम्हारी छाती पर चढ़ बैठे तो देखूँगा, इहलोक बाँचकर कैसे अपने मन को समझाते हो !’’
वैद्यजी की मूँछें थरथरायीं, जिससे लगा कि वे अपमानित हुए हैं। पर उनके मुँह पर मुस्कान छिटक गई, जिससे लगा कि वे अपमानित होना नहीं जानते। उपस्थित लोगों के चेहरे खिंच गए और साफ़ ज़ाहिर हो गया कि कुसहर को अब यहाँ हमदर्दी की भीख न�
�ीं मिलेगी। बद्री पहलवान ने दुत्कारकर कहा, ‘‘जाओ, जाओ ! लगता है, छोटुआ से लड़कर लड़ास पूरी नहीं हुई है। जाकर पट्टी–वट्टी बँधवा लो। यहाँ बहुत न टिलटिलाओ !’’
छोटे पहलवान, जैसाकि अब तक ज़ाहिर हो चुका होगा, ख़ानदानी आदमी थे। उन्हें अपने परदादा तक का नाम याद था और हर ख़ानदानी आदमी की तरह वे उनके किस्से बयान किया करते थे। कभी–कभी अखाड़े पर वे अपने साथियों से कहते :