Rag Darbari
Page 27
‘‘हमारे परदादा का नाम भोलानाथ था। उन्हें बड़ा गुस्सा आता था। नथुने हमेशा फड़का ही करते थे। रोज़ सवेरे उठकर वे पहले अपने बाप से टुर्र-पुर्र करते थे, तब मुँह में पानी डालते थे। टुर्र-पुर्र न होती तो उनका पेट गड़गड़ाया करता।’’
छोटे पहलवान की बातों से अतीत का मोह टपकता था। उनके किस्से सुनते ही उन्नीसवीं सदी के किसी गाँव की तस्वीर सामने आ जाती थी, जिसमें गाय–बैलों से भरे–पूरे दरवाजे़ पर, गोबर और मूत की ठोस खुशबू के बीच, नीम की छाँव तले, जिस्म पर टपकी हुई लसलसी निमकौड़ियाँ झाड़ते हुए दो महापुरुष नंगे बदन अपनी–अपनी चारपाइयों से उठ बैठते थे और उठते ही एक–दूसरे को देर तक सोते रहने के लिए गाली देने लगते थे। दो में एक बाप होता था, एक बेटा। फिर दोनों एक–दूसरे को ज़मीन में ज़िन्दा गाड़ देने की बात करते हुए अपनी–अपनी चारपाइयाँ छोड़ देते और मुख्य विषय से दूर जाकर, दो–चार अनर्गल बातें कहकर, अपने–अपने काम में लग जाते। एक बैलों की पूँछ उमेठता हुआ अपने खेतों की ओर चला जाता, दूसरा भैंस चराने के लिए दूसरों के खेतों की ओर चला जाता।
छोटे पहलवान इसी तरह का कोई किस्सा खत्म करके बाद में कहते, ‘‘अपने बाप के मर जाने पर बाबा भोलानाथ बहुत दुखी हुए...।’’
छोटे पहलवान ये बातें शेखी बघारने के लिए नहीं करते थे। ये बिलकुल सच थीं। उनका खानदान ही ऐसा था। उनके यहाँ बाप–बेटे में हमेशा से बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध चला आ रहा था। प्रेम करना होता तो एक–दूसरे से प्रेम करते, लाठी चलाना होता तो एक–दूसरे पर लाठी चलाते। जो भी अच्छा–बुरा गुण उनके हाथ में था उसकी आज़माइश एक–दूसरे पर ही किया करते।
बाबा भोलानाथ अपने बाप के मर जाने पर सचमुच ही बहुत दुखी हुए। उनके जीवन में एक रीतापन आ गया। उनके न रहने पर सवेरे से ही किसी से झगड़ा करने के लिए उनका पेट गड़गड़ाने लगता। मुँह में पानी डालने का मन न होता। दिन–रात खेतों पर बैल की तरह जुते रहने पर भी उन्हें अपच की शिकायत रहने लगी। अब उनके लड़के गंगादयाल उनके काम आए। कहा भी है कि लड़का बुढ़ापे में आँख की ज्योति होता है। तो गंगादयाल ने एक दिन सत्रह साल की उमर में ही अपने बाप भोलानाथ को इतने ज़ोर से लाठी मारी कि वे वहीं ज़मीन पर गिर गए, उनकी आँखें कौड़ी–जैसी निकल आईं और उनकी आँखों के सामने ज्योति की वर्षा होने लगी।
उसके बाद बाप–बेटे के सम्बन्ध हमेशा के लिए सुस्थिर हो गए। भोलानाथ अपने बाप की जगह पर आ गए और उनकी जगह गंगादयाल ने ले ली। कुछ दिनों बाद हाथ–पाँव–पीठ में दर्द रहने के कारण उनका अपच तो ठीक हो गया, पर उनके कानों में बराबर साँय–साँय–सी होने लगी। शायद कान के पर्दों को फाड़नेवाली गंगादयाल की गालियाँ सुनते–सुनते उनके कानों में एक स्थायी अनुगूँज बस गई थी। जो भी हो, अब सवेरे–सवेरे घर में टुर्र-पुर्र करने के लिए गंगादयाल का पेट गड़गड़ाने लगा।
गंगादयाल के लड़के कुसहरप्रसाद छोटू पहलवान के बाप थे। कुसहरप्रसाद स्वभाव से गम्भीर थे, इसलिए वे गंगादयाल से व्यर्थ गाली–गलौज नहीं करते थे। उन्होंने रोज़ सवेरे खेतों पर जाने से पहले अपने बाप से झगड़ा करने की परम्परा भी ख़त्म कर दी। इसकी जगह उन्होंने मासिक रूप से युद्ध करने का चलन चलाया। बचपन से ही गंगादयाल को फूहड़ गालियाँ देने में ऐसी दक्षता प्राप्त हो गई थी कि नौजवान गँजहे उनके पास शाम को आकर बैठने लगे थे। वे उनकी मौलिक गालियों को सुनते और बाद में उन्हें अपनी बनाकर प्रचारित करते। गालियों और ग्राम–गीतों का कॉपीराइट नहीं होता। इस हिसाब से गंगादयाल की गालियाँ हज़ार कण्ठों से हज़ार पाठान्तरों के साथ फूटा करती थीं। पर कुसहरप्रसाद अपने बाप की इस प्रतिभा से ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए। चुपचाप उनकी गालियाँ सुनते रहते और महीने में एक बार उन पर दो–चार लाठियाँ झाड़कर फिर अपने काम में लग जाते। यह पद्धति अपच की पारिवारिक बीमारी के लिए बड़ी लाभप्रद साबित हुई क्योंकि ख़ानदान में अपच की शिकायत गंगादयाल के साथ ही ख़त्म हो गई।
कुसहरप्रसाद के दो भाई थे। एक बड़कऊ और एक छोटकऊ। बड़कऊ और छोटकऊ शान्तिप्रिय और निरस्त्रीकरण के उपासक थे। उम्र–भर उन्होंने कभी क�
��त्ते पर लाठी नहीं उठायी। बिल्लियाँ स्वच्छन्दतापूर्वक उनका रास्ता काट जाती थीं, पर उन्होंने कभी उन्हें ढेला तक नहीं मारा। उन्होंने अपने बाप से गाली देने की कला सीख ली थी और उसके सहारे रोज़ शाम को सभी पारिवारिक झगड़ों को बिना किसी मार–पीट के सुलझाया करते थे। रोज़ शाम को दोनों भाइयों और उनकी औरतों में काँव–काँव शुरू होता और बैठक रात के दस बजे तक चलती। इस प्रकार से इन बैठकों का महत्त्व सुरक्षा–समिति की बैठकों का–सा था जहाँ लोग काँव–काँव करके युद्ध की स्थिति को काफ़ी हद तक टालने में मदद करते हैं।
इस दृष्टि से रोज़ शाम को कुसहरप्रसाद के ख़ानदान में उठनेवाले कोहराम को गिरी निगाह से देखना प्रतिक्रियावाद की निशानी होगी; पर पास–पड़ोसवालों का राजनीतिक बोध इतना विकसित न था। अत: जैसे ही शाम को छोटकऊ और बड़कऊ की गालियाँ व हाहाकार गली के कुत्तों की भूँक–भाँक के ऊपर उठकर शिवपालगंज के आसमान में बर्छियाँ-सी चुभोने लगते, पड़ौसियों की आलोचनाएँ शुरू हो जातीं :
‘‘अब यह कुकरहाव आधी रात तक चलेगा।’’
‘‘किसी दिन एक फटा जूता लेकर इन पर पिल पड़ा जाए, तभी काम बनेगा।’’
‘‘इनकी जुबान को संग्रहणी लग गई है। चलती है तो चलती ही रहती है।’’
‘कुकरहाव’ गँजही बोली का शब्द है। कुत्ते आपस में लड़ते हैं और एक–दूसरे को बढ़ावा देने के लिए शोर मचाते हैं। उसी को कुकरहाव कहते हैं। शब्द–शास्त्र के इस पेंच को देखते हुए छोटकऊ और बड़कऊ के वार्त्तालाप को कुकरहाव कहना ग़लत होगा। सच तो यह है कि वे दोनों–सपत्नीक–बँदरहाव करते थे। वे बन्दरों की तरह खों–खों करते हुए एक–दूसरे पर झपटते, फिर बिना किसी के रोके हुए, अपने–आप रुक जाते। अगर उस समय कोई बाहरी आदमी रुककर उनकी ओर देखने लगता या शान्ति के फ़ाख्ते की तजवीज़ करता, तो दोनों खों–खों करते हुए एक साथ उसी पर झपट पड़ते। बँदरहाव के ये नियम सभी गँजहों को मालूम थे; इसलिए छोटकऊ–बड़कऊ की पारिवारिक बैठकों की समीक्षाएँ छिपे–छिपे, पीठ–पीछे होती थीं और उधर वे बैठकें निर्बाध रूप से आधी रात तक चला करती थीं।
छोटे पहलवान के पिता कुसहरप्रसाद अपने भाइयों के वाग्विलास को न समझ पाते थे। जैसा बताया गया, वे कम बोलनेवाले कर्मशील आदमी थे। रह–रहकर चुपचाप किसी को मार बैठना उनके स्वभाव की अपनी विशेषता थी, जो इन आदमियों के जीवन–दर्शन से मेल नहीं खाती थी। इसलिए, अपने बाप गंगादयाल के मरने पर, कुछ साल बाद, वे अपने भाइयों से अलग हो गए; अर्थात बिना बोले हुए, लाठी के ज़ोर से उन्होंने अपने भाइयों को घर के बाहर खदेड़ा, उन्हें एक बाग़ में झोंपड़ी डालकर, वाणप्रस्थ–आश्रम में रहने के लिए ढकेल दिया और खुद अपने नौजवान लड़के के साथ अपने पैतृक घर में पूरी पैतृक परम्पराओं के साथ गृहस्थी चलाने लगे।
महीने में एक बार अपने बाप पर लाठी उठाते–उठाते कुसहरप्रसाद के हाथों को कुछ ऐसी आदत पड़ गई थी कि गंगादयाल के मर जाने पर उनके हाथ महीने में दो–चार दिन तक सुन्न रहने लगे। लकवा के ख़तरे को दूर करने के लिए एक दिन उन्होंने फिर लाठी उठायी और छोटे की कमर पर तिरछी करके जड़ दी। छोटे अभी पहलवान नहीं बने थे, पर उनके गाँव के पास रेलवे–लाइन थी। उसके किनारे तार के खम्भे थे, खम्भों पर सफेद–सफेद इंसुलेटर लगे थे। उनके तोड़ते–तोड़ते, केवल अभ्यास की बदौलत, छोटे के ढेले का निशाना छोटी उम्र में ही अचूक हो गया था। जिस दिन कुसहरप्रसाद ने छोटे की कमर पर लाठी मारी, उसी दिन छोटे ने एक खम्भे के सभी इंसुलेटर रेलवे के द्वारा दिए गए पत्थरों से तोड़कर रेलवे–लाइन के ही किनारे बिछा दिए थे। लाठी खाकर वे रेलवे–लाइन की दिशा में बीस क़दम भागे और वहीं से उन्होंने अपने बाप की खोपड़ी को इंसुलेटर समझकर एक ढेला फेंका। बस, उसी दिन से बाप–बेटे में उनके परिवार का सनातन–धर्म प्रतिष्ठित हो गया। फिर तो, लगभग हर महीने कुसहर की देह पर घाव का एक छोटा–सा निशान स्थायी ढंग से दिखने लगा और कुछ वर्षों के बाद वे अपने इलाके के राणा साँगा बन गए।
छोटे पहलवान के जवान हो जाने पर बाप–बेटों ने शब्दों का प्रयोग बन्द ही कर दिया। अब वे उच्च कोटि के कलाकारों की तरह अपना अभिप्राय छाप�
��ं, चिन्हों और बिम्बों की भाषा में प्रकट करने लगे। उनके बीच में मारपीट की घटनाएँ भी कम होने लगीं और धीरे–धीरे उसने एक रस्म का–सा रूप ले लिया, जो बड़े–बड़े नेताओं की वर्ष–गाँठ की तरह साल में एक बार, जनता की माँग हो या न हो, नियमित रूप से मनायी जाने लगी।
कुसहरप्रसाद के चले जाने पर एक आदमी ने चबूतरे के नीचे खड़े–खड़े कहा, ‘‘इसी को कलजुग कहते हैं ! बाप के साथ बेटा ऐसा सलूक कर रहा है !’’
आसमान की ओर आँखें उठाकर, सिर पर फैली हुई नीम की टहनियों में झाँकते हुए, उसने फिर कहा, ‘‘कहाँ हो प्रभो ? कब लोगे कलंकी अवतार ?’’
जवाब में आकाशवाणी नहीं हुई। एक कौआ तक नहीं बोला। किसी अबाबील ने बीट तक नहीं की। कलंकी अवतार की याद करनेवाले का चेहरा गिर गया। पर सनीचर ने कुल्हाड़ी के बेंट को परखते हुए तीखी आवाज़ में कहा, ‘‘जाओ, तुम भी कुसहर के साथ चले जाओ। गवाही में जाकर खड़े हो जाना। रुपया–धेली वहाँ भी मिल ही जाएगी।’’