Rag Darbari
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उस गाँव में कुछ मास्टर भी रहते थे जिनमें एक खन्ना थे जो कि बेवकूफ़ थे; दूसरे मालवीय थे, वह भी बेवकूफ़ थे; तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें मास्टर का नाम गयादीन नहीं जानते थे, पर वे मास्टर भी बेवकूफ़ थे और गयादीन की निराशा इस समय कुछ और गाढ़ी हुई जा रही थी, क्योंकि सात मास्टर एक साथ उनके मकान की ओर आ रहे थे और निश्चय ही वे चोरी के बारे में सहानुभूति दिखाकर एकदम से कॉलिज के बारे में कोई बेवकूफ़ी की बात शुरू करनेवाले थे।
वही हुआ। मास्टर लोग आधे घण्टे तक गयादीन को समझाते रहे कि वे कॉलिज की प्रबन्ध–समिति के उपाध्यक्ष हैं और चूँकि अध्यक्ष बम्बई में कई साल से रहते आ रहे हैं और वहीं रहते रहेंगे, इसलिए मैनेजर के और प्रिंसिपल के अनाचार के ख़िलाफ़ उपाध्यक्ष को कुछ करना चाहिए।
गयादीन ने बहुत ठण्डे ढंग से सर्वोदयी सभ्यता के साथ समझाया कि उपाध्यक्ष तो सिर्फ़ कहने की बात है, वास्तव में यह कोई ओहदा–जैसा ओहदा नहीं है, उनके पास कोई ताकत नहीं है, और मास्टर साहब, ये खेल तुम्हीं लोग खेलो, हमें बीच में न घसीटो।
तब नागरिक–शास्त्र के मास्टर उन्हें गम्भीरता से बताने लगे कि उपाध्यक्ष की ताकत कितनी बड़ी है। इस विश्वास से कि गयादीन इस बारे में कुछ नहीं जानते, उन्होंने उपाध्यक्ष की हैसियत को भारत के संविधान के अनुसार बताना शुरू कर दिया, पर गयादीन जूते की नोक से ज़मीन पर एक गोल दायरा बनाते रहे जिसका अर्थ यह न था कि वे ज्योमेट्री के जानकार नहीं हैं, बल्कि इससे साफ़ ज़ाहिर होता था कि वे किसी फन्दे के बारे में सोच रहे हैं।
अचानक उन्होंने मास्टर को टोककर पूछा, ‘‘तो इसी बात पर बताओ मास्टर साहब, कि भारत के उपाध्यक्ष कौन हैं ?’’
यह सवाल सुनते ही मास्टरों में भगदड़ मच गई। कोई इधर को देखने लगा, कोई उधर; पर भारत के उपाध्यक्ष का नाम किसी भी दिशा में लिखा नहीं मिला। अन्त में नागरिक–शास्त्र के मास्टर ने कहा, ‘‘पहले तो राधाकृष्णजी थे, अब इधर उनका तबादला हो गया है।’’
गयादीन धीरे–से बोले, ‘‘अब समझ लो मास्टर साहब, उपाध्यक्ष की क्या हैसियत होती है ?’’
मगर मास्टर न माने। उनमें से एक ने ज़िद पकड़ ली कि कम–से–कम कॉलिज की प्रबन्ध–समिति की एक बैठक तो गयादीन बुलवा ही लें। गयादीन गाँव के महाजन ज़रूर थे, पर वैसे महाजन न थे जिनके किसी ओर निकलने पर पन्थ बन जाता है। वे उस जत्थे के महाजन थे जो अनजानी राह पर पहले किराये के जन भेजते हैं और जब देख लेते हैं कि उस पर पगडण्डी बन गई है और उसके धँसने का खतरा नहीं है, तब वे महाजन की तरह छड़ी टेक–टेककर धीरे–धीरे निकल जाते हैं। इसलिए मास्टरों की ज़िद का उन पर कोई ख़ास असर नहीं हुआ। उन्होंने धीरे–से कहा, ‘‘बैठक बुलाने के लिए रामाधीन को लगा दो मास्टर साहब ! वे ऐसे कामों के लिए अच्छे रहेंगे।’’
‘‘उन्हें तो लगा ही दिया है।’’
‘‘तो बस, लगाए रहो। खिसकने न दो,’’ कहकर गयादीन आसपास बैठे हुए दूसरे लोगों की ओर देखने लगे। ये दूसरे लोग नज़दीक के गाँव के थे जो पुराने प्रोनोट बढ़वाने, नये प्रोनोट लिखवाने और किसी भी हालत में प्रोनोट से छुटकारा न पाने के लिए आए हुए थे। खन्ना मास्टर ने फैसला कर लिया था कि आज गयादीन से इस मसले की बात पूरी कर ली जाए। इसलिए उन्होंने फिर समझाने की कोशिश की। बोले, ‘‘मालवीयजी, अब आप ही गयादीनजी को समझाइए। यह प्रिंसिपल तो हमें पीसे डाल रहा है।’’
गयादीन ने लम्बी साँस खींची, सोचा, शायद भाग्य में यही लिखा है, ये निकम्मे मास्टर यहाँ से जाएँगे नहीं। वे देह हिलाकर चारपाई पर दूसरे आसन से बैठ गए। आदमियों से बोले, ‘‘तो जाओ भैया ! तुम्हीं लोग जाओ। कल सवेरे ज़रा जल्दी आना।’’
गयादीन दूसरी साँस खींचकर खन्ना मास्टर की ओर मुँह करके बैठ गए। खन्ना मास्टर बोले, ‘‘आप इजाज़त दें तो बात शुरू से ही कहूँ।’’
‘‘क्या कहोगे मास्टर साहब ?’’ गयादीन ऊबकर बोले, ‘‘प्राइवेट स्कूल की मास्टरी–वह तो पिसाई का काम है ही। भागोगे कहाँ तक ?’’
खन्ना ने कहा, ‘‘मुसीबत यह है कि इस कॉलिज की जनरल बॉडी की मीटिंग पाँच साल से नहीं हुई है। बैदजी ही मैनेजर बने हुए हैं। नये आम चुनाव नहीं हुए हैं; जो कि �
�र साल होने चाहिए।’’
वे कुछ देर रामलीला के राम–लक्ष्मण की तरह भावहीन चेहरा बनाए बैठे रहे। फिर बोले, ‘‘आप लोग तो पढ़े–लिखे आदमी हैं। मैं क्या कह सकता हूँ ? पर सैकड़ों संस्थाएँ हैं जिनकी सालाना बैठकें बरसों नहीं होतीं। अपने यहाँ का ज़िलाबोर्ड ! एक ज़माने से बिना चुनाव कराये हुए इसे सालों खींचा गया है।’’ गाल फुलाकर वे भर्राये गले से बोले, ‘‘देश–भर में यही हाल है।’’ गला देश–भक्ति के कारण नहीं, खाँसी के कारण भर आया था।
मालवीयजी ने कहा, “ प्रिंसिपल हज़ारों रुपया मनमाना ख़र्च करता है। हर साल आडिटवाले ऐतराज़ करते हैं, हर साल यह बुत्ता दे जाता है।’’
गयादीन ने बहुत निर्दोष ढंग से कहा, ‘‘आप क्या आडिट के इंचार्ज हैं ?’’
मालवीय ने आवाज़ ऊँची करके कहा, ‘‘जी नहीं, बात यह नहीं है, पर हमसे देखा नहीं जाता कि जनता का रुपया इस तरह बरबाद हो। आखिर...’’
गयादीन ने तभी उनकी बात काट दी; उसी तरह धीरे–से बोले, ‘‘फिर आप किस तरह चाहते हैं कि जनता का रुपया बरबाद किया जाए ? बड़ी–बड़ी इमारतें बनाकर ? सभाएँ बुलाकर ? दावतें लुटाकर ?’’ इस ज्ञान के सामने मालवीयजी झुक गए। गयादीन ने उदारतापूर्वक समझाया, ‘‘मास्टर साहब, मैं ज़्यादा पढ़ा–लिखा तो हूँ नहीं, पर अच्छे दिनों में कलकत्ता–बम्बई देख चुका हूँ। थोड़ा–बहुत मैं भी समझता हूँ। जनता के रुपये पर इतना दर्द दिखाना ठीक नहीं। वह तो बरबाद होगा ही।’’ वे थोड़ी देर चुप रहे, फिर खन्ना मास्टर को पुचकारते–से बोले, ‘‘नहीं मास्टर साहब, जनता के रुपये के पीछे इतना सोच–विचार न करो; नहीं तो बड़ी तकलीफ़ उठानी पड़ेगी।’’
मालवीयजी को गयादीन की चिन्ताधारा बहुत ही गहन–सी जान पड़ी। गहन थी भी। वे अभी किनारे पर बालू ही में लोट रहे थे। बोले, ‘‘गयादीनजी, मैं जानता हूँ कि इन बातों से हम मास्टरों का कोई मतलब नहीं। चाहे कॉलिज के बदले वैद्यजी आटाचक्की की मशीन लगवा लें, चाहे प्रिंसिपल अपनी लड़की की शादी कर लें; फिर भी यह संस्था है तो आप लोगों की ही ! उसमें खुलेआम इतनी बेजा बातें हों ! नैतिकता का जहाँ नाम ही न हो !’’
इतनी देर में पहली बार गयादीन के मुँह पर कुछ परेशानी–सी झलकी। पर जब वे बोले तो आवाज़ वही पहले–जैसी थकी–थकी–सी थी। उन्होंने कहा, ‘‘नैतिकता का नाम न लो मास्टर साहब, किसी ने सुन लिया तो चालान कर देगा।’’
लोग चुप रहे। फिर गयादीन ने कुछ हरकत दिखायी। उनकी निगाह एक कोने की ओर चली गई। वहाँ लकड़ी की एक टूटी–फूटी चौकी पड़ी थी। उसकी ओर उँगली उठाकर गयादीन ने कहा, नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है। एक कोने में पड़ी है। सभा–सोसायटी के वक़्त इस पर चादर बिछा दी जाती है। तब बड़ी बढ़िया दिखती है। इस पर चढ़कर लेक्चर फटकार दिया जाता है। यह उसी के लिए है।’’
इस बात ने मास्टरों को बिलकुल ही चुप कर दिया। गयादीन ने ही उन्हें दिलासा देते हुए कहा, ‘‘और बोलो मास्टर साहब, खुद तुम्हें क्या तकलीफ़ है ? अब तक तो तुम सिर्फ़ जनता की तकलीफ़ बताते रहे हो।’’
खन्ना मास्टर उत्तेजित हो गए। बोले, ‘‘आपसे कोई भी तकलीफ़ बताना बेकार है। आप किसी भी चीज़ को तकलीफ़ ही नहीं मान रहे हैं।’’
‘‘मानेंगे क्यों नहीं ?’’ गयादीन ने उन्हें पुचकारा, ‘‘ज़रूर मानेंगे। तुम कहो तो !’’
मालवीयजी ने कहा, ‘ ‘ प्रिंसिपल ने हमसे सब काम ले लिये हैं। खन्ना को होस्टल–इंचार्ज नहीं रखा, और मुझसे गेम का चार्ज ले लिया। रायसाहब हमेशा से इम्तिहान के सुपरिण्टेण्डेण्ट थे, उन्हें वहाँ से हटा दिया है। ये सब काम वह अपने आदमियों को दे रहा है।’’
गयादीन बड़े असमंजस में बैठे रहे। फिर बोले, ‘‘मैं कुछ कहूँगा तो आप नाराज़ होंंगे। पर जब प्रिंसिपल साहब को अपने मन–मुताबिक इंचार्ज चुनने का अख्त्यार है तो उसमें बुरा क्या मानना ?’’
मास्टर लोग कसमसाए तो वे फिर बोले, ‘‘दुनिया में सब काम तुम्हारी समझ से थोड़े ही होगा मास्टर साहब ? पार साल की याद करो। वही बैजेगाँव के लाल साहब को लाट साहब ने वाइस–चांसलर बना दिया कि नहीं ? लोग इतना कूदे–फाँदे, पर किसी ने क्या कर लिया। बाद में चुप हो गए। तुम भी चुप हो जाओ। चिल्लाने से कुछ न होगा। लोग तुम्हें ही लुच्चा कह
ेंगे।’’
एक मास्टर पीछे से उचककर बोले, ‘‘पर इसका क्या करें ? प्रिंसिपल लड़कों को हमारे ख़िलाफ़ भड़काता है। हमें माँ–बहिन की गाली देता है। झूठी रिपोर्ट करता है। हम कुछ लिखकर देते हैं तो उस काग़ज़ को गुम करा देता है। बाद में जवाबतलब करता है।’’
गयादीन चारपाई पर धीरे–से हिले। वह चरमरायी, तो सकुच–से गए। कुछ सोचकर बोले, ‘‘यह तो तुम मुझे दफ़्तरों का तरीक़ा बता रहे हो। वहाँ तो ऐसा होता ही रहता है।’’
उस मास्टर ने तैश में आकर कहा, ‘‘जब दस–पाँच लाशें गिर जाएँगी, तब आप समझेंगे कि नयी बात हुई है।’’
गयादीन उसके गुस्से को दया के भाव से देखते रहे; समझ गए कि आज इसने उड़द की दाल खायी है। फिर धीरे–से बोले, ‘‘यह भी कौन–सी नयी बात है ! चारों तरफ़ पटापट लाशें ही तो गिर रही हैं।’’