Book Read Free

Rag Darbari

Page 28

by Shrilal Shukla


  बद्री पहलवान ने मुस्कराकर इस बात का समर्थन किया। रंगनाथ ने देखा, कलंकी अवतार की याद करनेवाला व्यक्ति एक पुरोहितनुमा बुड्ढा है। पिचके हुए गाल। खिचड़ी दाढ़ी। बिना बटन का कुरता। सिर पर अस्त–व्यस्त गाँधीटोपी, जिसके पीछे चुटिया निकलकर आसमानी बिजली गिरने से शरीर की रक्षा कर रही थी। माथे पर लाल चन्दन का टीका। गले में रुद्राक्ष की माला।

  वह आदमी सचमुच ही कुसहरप्रसाद के पीछे चला गया। सनीचर ने कहा, ‘‘यही राधेलाल हैं। आज तक इन्हें बड़े–से–बड़ा वकील भी जिरह करके नहीं उखाड़ पाया।’’

  सनीचर के पास एक तमाशबीन खड़ा था। उसने श्रद्धा से कहा, ‘‘राधेलाल महाराज को किसी देवता का इष्ट है। झूठी गवाही सटासट देते चले जाते हैं। वकील टुकर–टुकर देखते रहते हैं। बड़ों–बड़ों की बोलती बन्द हो जाती है।’’

  कुछ देर राधेलाल की प्रशंसा होती रही। सनीचर और तमाशबीन में लगभग एक बहस–सी हो गई। सनीचर की राय थी कि राधेलाल बड़ा काइयाँ है और शहर के वकील बड़े भोंदू हैं, तभी वे उसे जिरह में नहीं उखाड़ पाते। उधर तमाशबीन इसे चमत्कार और देवता के इष्ट के रूप में मानने पर तुला था। तर्क और आस्था की लड़ाई हो रही थी और कहने की ज़रूरत नहीं कि आस्था तर्क को दबाये दे रही थी। उसी समय छोटे पहलवान बग़ल की एक गली से अकड़ते हुए निकले। वैद्यजी के दरवाज़े आकर उन्होंने इधर–उधर ताक–झाँक की। फिर पूछा, ‘‘चले गए ?’’

  सनीचर ने कहा, ‘‘हाँ, गए। पर पहलवान, यह पॉलिसी इन्सानियत के ख़िलाफ़ है।’’

  छोटे ने दाँत पीसकर कहा, ‘‘इन्सानियत की तो ऐसी की तैसी, और तुम्हें क्या कहूँ ?’’

  सनीचर कुल्हाड़ी हाथ में लेकर खड़े हो गए। पुकारकर बोले, ‘‘बद्री भैया, देखो, तुम्हारा बछेड़ा मुझ पर दुलत्ती झाड़ रहा है। सँभालो !’’

  वैद्यजी छोटे को देखकर उठ खड़े हुए। रंगनाथ से बोले, ‘‘ऐसे नीच का मुँह देखना पाप है। इसे यहाँ से भगा दो।’’ कहकर वे घर के अन्दर चले गए।

  छोटे पहलवान बैठक के अन्दर आ गए थे। धूप फैली हुई थी। सामने नीम के पेड़ पर बहुत–से तोते ‘टें–टें’ करते हुए उड़ रहे थे। चबूतरे पर सनीचर कुल्हाड़ी लिये खड़ा था। बद्री पहलवान एक कोने में चुपचाप खड़े मुगदर की जोड़ी तौल रहे थे। रंगनाथ वैद्यक की किसी किताब के पन्ने उलट रहा था। छोटे को लगा कि उसके ख़िलाफ़ विद्रोह की हवा फैली हुई है। जवाब में वे सीना फुलाकर धचक के साथ रंगनाथ के पास बैठ गए और जबड़े घुमा–घुमाकर मुँह के अन्दर पहले से सुरक्षित सुपारी की जुगाली करने लगे।

  छोटे ने रंगनाथ को यों देखा जैसे उनकी निगाह के सामने कोई भुनगा उड़ रहा हो। उखड़ी हुई आवाज़ में जवाब दिया, ‘‘यह बात है तो मैं जाता हूँ। मैं तो बद्री गुरू का घर समझकर आया हूँ। अब तुम्हीं लोगोें की हुकूमत है, तो यहाँ पेशाब करने भी नहीं आऊँगा।’’

  रंगनाथ ने हँसकर बात को हल्का करना चाहा। कहा, ‘‘नहीं, नहीं, बैठो पहलवान। दिमाग़ गरम हो रहा हो तो एक लोटा ठण्डा पानी पी लो।’’

  फिर उसी तरह उखड़ी आवाज़ में छोटे ने कहा, ‘‘पानी ! मैं यहाँ टट्टी तक के लिए पानी नहीं लूँगा। सब लोग मिलकर चले हैं हमको लुलुहाने।’’

  बद्री ने अब छोटे की ओर बड़प्पन की निगाह से देखा और एक मुगदर को बायें हाथ से तौला। देखते–देखते मुस्कराए। बोले, ‘‘गुस्सा तो कमज़ोर का काम है। तुम क्यों ऐंठ रहे हो ? आदमी हो कि पायजामा ?’’

  छोटे पहलवान समझ गए कि उस कोने से उन्हें सहारा मिल रहा है। अकड़ दिखाते हुए बोले, ‘‘मुझे अच्छा नहीं लगता बद्री गुरू ! सभी दमड़ी–जैसी जान लिये हुए मुझे लुलुहाते घूम रहे हैं। कहते हैं, बाप को क्यों मारा ! बाप को क्यों मारा !! लगता है कुसहरप्रसाद शिवपालगंज में सबके बाप ही लगते हैं। जैसे मैं ही उनका एक दुश्मन हूँ।’’

  छोटे पहलवान और भी उखड़ गए। बोले, ‘‘गुरू, साला बाप–जैसा बाप हो, तब तो एक बात भी है।’’

  थोड़ी देर सब चुप रहे।

  रंगनाथ छोटे पहलवान की चढ़ी हुई भौंहों को देखता रहा। सनीचर भी अब तक बैठक में आ गया था। समझाते हुए बोला, ‘‘ऐसी बात मुँह से न निकालनी चाहिए। धरती–धरती चलो। आसमान की छाती न फाड़ो। आखिर कुसहर ने तुम्हें पैदा किया है, पाला–पोसा है।’’
/>   छोटे ने भुनभुनाकर कहा, ‘‘कोई हमने इस्टाम्प लगाकर दरखास्त दी थी कि हमें पैदा करो ! चले साले कहीं के पैदा करनेवाले !’’

  बद्री चुपचाप यह वार्तालाप सुन रहे थे। अब बोले, ‘‘बहुत हो गया छोटे, अब ठण्डे हो जाओ।’’

  छोटे अनमने होकर बैठे रहे। नीम के पेड़ पर होनेवाली तोतों की ‘टें–टें’ सुनते रहे। आखिर में एक साँस खींचकर बोले, ‘‘तुम भी मुझी को दबाते हो गुरू! तुम जानते नहीं, यह बुड्ढा बड़ा कुलच्छनी है। इसके मारे कहारिन ने घर में पानी भरना बन्द कर दिया है। और भी बताऊँ ? अब क्या बताऊँ, कहते जीभ गँधाती है।’’

  12

  गाँव में एक आदमी रहता था जिसका नाम गयादीन था। वह जोड़–बाकी, गुणा–भाग में बड़ा क़ाबिल माना जाता था, क्योंकि उसका पेशा सूदखोरी था। उसकी एक दुकान थी जिस पर कपड़ा बिकता था और रुपये का लेन–देन होता था। उसके एक जवान लड़की थी, जिसका नाम बेला था और एक बहिन थी, जो बेवा थी और एक बीवी थी जो मर चुकी थी। बेला स्वस्थ, सुन्दर, गृह–कार्य में कुशल और रामायण और माया–मनोहर कहानियाँ पढ़ लेने–भर को पढ़ी–लिखी थी। उसके लिए एक सुन्दर और सुयोग्य वर की तलाश थी। बेला तबीयत और जिस्म, दोनों से प्रेम करने लायक थी। और रुप्पन बाबू उसको प्रेम करते थे, पर वह यह बात नहीं जानती थी। रुप्पन बाबू रोज़ रात को सोने के पहले उसके शरीर का ध्यान करते थे और ध्यान को शुद्ध रखने के लिए उस समय वे सिर्फ़ शरीर को देखते थे, उस पर के कपड़े नहीं। बेला की बुआ गयादीन के घर का काम देखती थी और बेला को दरवाज़े से बाहर नहीं निकलते देती थी। बेला बड़ों की आज्ञा मानती थी और दरवाज़े से बाहर नहीं निकलती थी। उसे बाहर जाना होता तो छत के रास्ते, मिली हुई छतों को पार करती हुई, किसी पड़ोसी के मकान तक पहुँच जाती थी। रुप्पन बाबू बेला के लिए काफ़ी विकल रहते थे और उसे सप्ताह में तीन–चार पत्र लिखकर उन्हें फाड़ दिया करते थे।

  इन बातों का कोई तात्कालिक महत्त्व नहीं है। महत्त्व इस बात का है कि गयादीन सूद पर रुपया चलाते थे और कपड़े की दुकान करते थे। कोअॉपरेटिव यूनियन भी सूद पर रुपया चलाती थी और कपड़े की दुकान करती थी। दोनों शान्तिपूर्ण सह–अस्तित्व में रहते थे।

  वैद्यजी से उनके अच्छे सम्बन्ध थे। वे कॉलिज की प्रबन्ध–समिति के उप–सभापति थे। उनके पास पैसा था, इज़्ज़त थी; उन पर वैद्यजी, पुलिस, रुप्पन, स्थानीय एम.एल.ए. और ज़िला बोर्ड के टैक्स–कलेक्टर की कृपा थी।

  इस सबके बावजूद वे निराशावादी थे। वे बहुत सँभलकर चलते थे। अपने स्वास्थ्य के बारे में बहुत सावधान थे। वे उड़द की दाल तक से परहेज़ करते थे। एक बार वे शहर गए हुए थे। वहाँ उनके एक रिश्तेदार ने उन्हें खाने में उड़द की दाल दी। गयादीन ने धीरे–से थाली दूर खिसका दी और आचमन करके भूखे ही उठ आए। बाद में उन्हें दूसरी दाल के साथ दूसरा खाना परोसा गया। इस बार उन्होंने आचमन करके खाना खा लिया। शाम को रिश्तेदार ने उन्हें मजबूर किया कि वे बतायें, उड़द की दाल से उन्हें क्या ऐतराज़ है। कुछ देर इधर–उधर देखकर उन्होंने धीरे–से बताया कि उड़द की दाल खा लेने से पेट में वायु बनती है और गुस्सा आने लगता है।

  उनके मेज़बान ने पूछा, ‘‘अगर गुस्सा आ ही गया तो क्या हो जाएगा ? गुस्सा कोई शेर है या चीता ? उससे इतना घबराने की क्या बात है ?’’

  मेज़बान एक दफ़्तर में काम करता था। गयादीन ने समझाया कि उसका कहना ठीक है। पर गुस्सा सबको नहीं छजता। गुस्सा करना तो सिर्फ़ हाकिमों को छजता है। हुकूमत भले ही बैठ जाए, पर वह तो हाकिम ही रहेगा। पर हम व्यापारी आदमी हैं। हमें गुस्सा आने लगा तो कोई भूलकर भी हमारी दुकान पर न आएगा। और पता नहीं, कब कैसा झंझट खड़ा हो जाए।

  गयादीन के यहाँ चोरी हो गई थी और चोरी में कुछ जे़वर और कपड़े–भर गए थे और पुलिस को यह मानने में ज़्यादा आसानी थी कि उस रात चोरों का पीछा करनेवालों में से ही किसी ने चोरी कर डाली है। चोर जब छत से आँगन में कूदा था तो गयादीन की बेटी और बहिन ने उसे नहीं देखा था और तब देखतीं तो उसका चेहरा दिख जाता। पर जब चोर लाठी के सहारे दीवार पर चढ़कर छत पर जाने लगा तो उसे दोनों ने देख लिया था और तब उन्होंने उसकी पीठ–भर देखी थी और पुल�
��स को उनकी इस हरकत से बड़ी नाराज़गी थी। पुलिस ने पिछले तीन दिनों में कई चोर इन दोनों के सामने लाकर पेश किये थे और चेहरे के साथ–साथ उनकी पीठ भी उन्हें दिखायी थी; पर उनमें कोई भी ऐसा नहीं निकला था कि बेला या उसकी बुआ उसके गले व पीठ की ओर से जयमाला डालकर कहती कि ‘‘दारोग़ाजी, यही हमारा उस रात का चोर है।’’ पुलिस को उनकी इस हरकत से भी बड़ी नाराज़गी थी और दारोग़ाजी ने भुनभुनाना शुरू कर दिया था कि गयादीन की लड़की और बहिन जान–बूझकर चोर को पकड़वाने से इन्कार कर रही हैं और पता नहीं, क्या मामला है।

  गयादीन का निराशावाद कुछ और ज़्यादा हो गया था, क्योंकि गाँव में इतने मकान थे, पर चोर को अपनी ओर खींचनेवाला उन्हीं का एक मकान रह गया था। और नीचे उतरते वक़्त चोर के चेहरे पर बेला और उसकी बहिन की निगाह बखूबी पड़ सकती थी, पर उन निगाहों ने देखने के लिए सिर्फ़ चोर की पीठ को ही चुना था और दारोग़ाजी सबसे हँसकर बोलते थे, पर टेढ़ी बात करने के लिए अब उन्हें गयादीन ही मिल रहे थे।

 

‹ Prev