सनीचर का काम वैद्यजी की बैठक में भंग के इसी सामाजिक पहलू को उभारना था। इस समय भी वह रोज़ की तरह भंग पीस रहा था। उसे किसी ने पुकारा, ‘‘सनीचर !’’
सनीचर ने फुफकारकर फन–जैसा सिर ऊपर उठाया। वैद्यजी ने कहा, ‘‘भंग का काम किसी और को दे दो और यहाँ अन्दर आ जाओ।’’
जैसे कोई उसे मिनिस्टरी से इस्तीफ़ा देने को कह रहा हो। वह भुनभुनाने लगा, ‘‘किसे दे दें ? कोई है भी इस काम को करनेवाला ? आजकल के लौण्डे क्या जानें इन बातों को। हल्दी–मिर्च–जैसा पीसकर रख देंगे।’’ पर उसने किया यही कि सिल-लोढ़े का चार्ज एक नौजवान को दे दिया, हाथ धोकर अपने अण्डरवियर के पीछे पोंछ लिये और वैद्यजी के पास आकर खड़ा हो गया।
तख्त पर वैद्यजी, रंगनाथ, बद्री पहलवान और प्रिंसिपल साहब बैठे थे। प्रिंसिपल एक कोने में खिसककर बोले, ‘‘बैठ जाइए सनीचरजी !’’
इस बात ने सनीचर को चौकन्ना कर दिया। परिणाम यह हुआ कि उसने टूटे हुए दाँत बाहर निकालकर छाती के बाल खुजलाने शुरू कर दिए। वह बेवकूफ़-सा दिखने लगा, क्योंकि वह जानता था चालाकी के हमले का मुकाबला किस तरह किया जाता है। बोला, ‘‘अरे प्रिंसिपल साहेब, अब अपने बराबर बैठालकर मुझे नरक में न डालिए।’’
बद्री पहलवान हँसे। बोले, ‘‘स्साले ! गँजहापन झाड़ते हो ! प्रिंसिपल साहब के साथ बैठने से नरक में चले जाओगे ?’’ फिर आवाज़ बदलकर बोले, ‘‘बैठ जाओ उधर।’’
वैद्यजी ने शाश्वत सत्य कहनेवाली शैली में कहा, ‘‘इस तरह से न बोलो बद्री। मंगलदासजी क्या होने जा रहे हैं, इसका तुम्हें कुछ पता भी है ?’’
सनीचर ने बरसों बाद अपना सही नाम सुना था। वह बैठ गया और बड़प्पन के साथ बोला, ‘‘अब पहलवान को ज़्यादा ज़लील न करो महाराज। अभी इनकी उमर ही क्या है ? वक़्त पर सब समझ जाएँगे।’’
वैद्यजी ने कहा, ‘‘तो प्रिंसिपल साहब, कह डालो जो कहना है।’’
उन्होंने अवधी में कहना शुरू किया, ‘‘कहै का कौनि बात है ? आप लोग सब जनतै ही।’’ फिर अपने को खड़ीबोली की सूली पर चढ़ाकर बोले, ‘‘गाँव–सभा का चुनाव हो रहा है, यहाँ का प्रधान बड़ा आदमी होता है। वह कॉलिज–कमेटी का मेम्बर भी होता है–एक तरह से मेरा भी अफ़सर।”
वैद्यजी ने अकस्मात कहा, ‘‘सुनो मंगलदास, इस बार हम लोग गाँव–सभा का प्रधान तुम्हें बनायेंगे।’’
सनीचर का चेहरा टेढ़ा–मेढ़ा होने लगा। उसने हाथ जोड़ दिए गात लोचन सलिल। किसी गुप्त रोग से पीड़ित, उपेक्षित कार्यकर्ता के पास किसी मेडिकल असोसिएशन का चेयरमैन बनने का परवाना आ जाए तो उसकी क्या हालत होगी ? वही सनीचर की हुई। फिर अपने को क़ाबू में करके उसने कहा, ‘‘अरे नहीं महाराज, मुझ–जैसे नालायक़ को आपने इस लायक़ समझा, इतना बहुत है। पर मैं इस इज़्ज़त के क़ाबिल नहीं हूँ।’’
सनीचर को अचम्भा हुआ कि अचानक वह कितनी बढ़िया उर्दू छाँट गया है। पर बद्री पहलवान ने कहा, ‘‘अबे, अभी से मत बहक। ऐसी बातें तो लोग प्रधान बनने के बाद कहते हैं। इन्हें तब तक के लिए बाँधे रख।’’
इतनी देर बाद रंगनाथ बातचीत में बैठा। सनीचर का कन्धा थपथपाकर उसने कहा, “ लायक़-नालायक़ की बात नहीं है सनीचर ! हम मानते हैं कि तुम नालायक़ हो, पर उससे क्या ? प्रधान तुम खुद थोड़े ही बन रहे हो। वह तो तुम्हें जनता बना रही है। जनता जो चाहेगी, करेगी। तुम कौन हो बोलनेवाले ?’’
पहलवान ने कहा, ‘‘लौंडे तुम्हें दिन–रात बेवकूफ़ बनाते रहते हैं। तब तुम क्या करते हो ? यही न कि चुपचाप बेवकूफ़ बन जाते हो ?’’
प्रिंसिपल साहब ने पढ़े–लिखे आदमी की तरह समझाते हुए कहा, ‘‘हाँ भाई, प्रजातन्त्र है। इसमें तो सब जगह इसी तरह होता है।’’ सनीचर को जोश दिलाते हुए वे बोले, ‘‘शाबाश, सनीचर, हो जाओ तैयार!’’ यह कहकर उन्होंने ‘चढ़ जा बेटा सूली पर’ वाले अन्दाज़ से सनीचर की ओर देखा। उसका सिर हिलना बन्द हो गया था।
प्रिंसिपल ने आख़िरी धक्का दिया, ‘‘प्रधान कोई गबडू–घुसडू ही हो सकता है। भारी ओहदा है। पूरे गाँव की जायदाद का मालिक ! चाहे तो एक दिन में लाखों का वारा–न्यारा कर दे। मुक़ामी हाकिम है। चाहे तो सारे गाँव को 107 में चालान करके बन्द कर दे। बड़े–बड़े अफ़सर आकर उसके दरवाज़े बैठते हैं ! जिसकी चुगली खा दे,
उसका बैठना मुश्किल। काग़ज़ पर ज़रा–सी मोहर मार दी और जब चाहा, मनमाना तेल–शक्कर निकाल लिया। गाँव में उसके हुकुम के बिना कोई अपने घूरे पर कूड़ा तक नहीं डाल सकता। सब उससे सलाह लेकर चलते हैं। सबकी कुंजी उसके पास है। हर लावारिस का वही वारिस है। क्या समझे ?’’
रंगनाथ को ये बातें आदर्शवाद से कुछ गिरी हुई जान पड़ रही थीं। उसने कहा, ‘‘तुम तो मास्टर साहब, प्रधान को पूरा डाकू बनाए दे रहे हो।’’
‘‘हें–हें–हें’’ कहकर प्रिंसिपल ने ऐसा प्रकट किया जैसे वे जान–बूझकर ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हों। यह उनका ढंग था, जिसके द्वारा बेवकूफी करते–करते वे अपने श्रोताओं को यह भी जता देते थे कि मैं अपनी बेवकूफी से परिचित हूँ और इसीलिए बेवकूफ नहीं हूँ।
‘‘हें–हें–हें, रंगनाथ बाबू ! आपने भी क्या सोच लिया ? मैं तो मौजूदा प्रधान की बातें बता रहा था।’’
रंगनाथ ने प्रिंसिपल को ग़ौर से देखा। यह आदमी अपनी बेवकूफ़ी को भी अपने दुश्मन के ऊपर ठोंककर उसे बदनाम कर रहा है। समझदारी के हथियार से तो अपने विरोधियों को सभी मारते हैं, पर यहाँ बेवकूफ़ी के हथियार से विरोधी को उखाड़ा जा रहा है। थोड़ी देर के लिए खन्ना मास्टर और उनके साथियों के बारे में वह निराश हो गया। उसने समझ लिया कि प्रिंसिपल का मुक़ाबला करने के लिए कुछ और मँजे हुए खिलाड़ी की ज़रूरत है। सनीचर कह रहा था, ‘‘पर बद्री भैया, इतने बडे़–बड़े हाकिम प्रधान के दरवाज़े पर आते हैं...अपना तो कोई दरवाज़ा ही नहीं है; देख तो रहे हो वह टुटहा छप्पर !’’
बद्री पहलवान हमेशा से सनीचर से अधिक बातें करने में अपनी तौहीन समझते थे। उन्हें सन्देह हुआ कि आज मौक़ा पाकर यह मुँह लगा जा रहा है। इसलिए वे उठकर खड़े हो गए। कमर से गिरती हुई लुंगी को चारों ओर से लपेटते हुए बोले, ‘‘घबराओ नहीं। एक दियासलाई तुम्हारे टुटहे छप्पर में भी लगाए देता हूँ। यह चिन्ता अभी दूर हुई जाती है।’’
कहकर वे घर के अन्दर चले गए। यह मज़ाक था, ऐसा समझकर पहले प्रिंसिपल साहब हँसे, फिर सनीचर भी हँसा। रंगनाथ की समझ में आते–आते बात दूसरी ओर चली गई थी। वैद्यजी ने कहा, ‘‘क्यों ? मेरा स्थान तो है ही। आनन्द से यहाँ बैठे रहना। सभी अधिकारियों का यहीं से स्वागत करना। कुछ दिन बाद पक्का पंचायतघर बन जाएगा तो उसी में जाकर रहना। वहीं से गाँव–सभा की सेवा करना।’’
सनीचर ने फिर विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़े। सिर्फ़ यही कहा, ‘‘मुझे क्या करना है ? सारी दुनिया यही कहेगी कि आप लोगों के होते हुए शिवपालगंज में एक निठल्ले को...’’
प्रिंसिपल ने अपनी चिर–परिचित ‘हें–हें–हें’ और अवधी का प्रयोग करते हुए कहा, ‘‘फिर बहकने लगे आप सनीचरजी ! हमारे इधर राजापुर की गाँव–सभा में वहाँ के बाबू साहब ने अपने हलवाहे को प्रधान बनाया है। कोई बड़ा आदमी इस धकापेल में खुद कहाँ पड़ता है।’’
प्रिंसिपल साहब बिना किसी कुण्ठा के कहते रहे, ‘‘और मैनेजर साहब, उसी हलवाहे ने सभापति बनकर रंग बाँध दिया। क़िस्सा मशहूर है कि एक बार तहसील में जलसा हुआ। डिप्टी साहब आए थे। सभी प्रधान बैठे थे। उन्हें फ़र्श पर दरी बिछाकर बैठाया गया था। डिप्टी साहब कुर्सी पर बैठे थे। तभी हलवाहेराम ने कहा कि यह कहाँ का न्याय है कि हमें बुलाकर फ़र्श पर बैठाया जाए और डिप्टी साहब कुर्सी पर बैठें। डिप्टी साहब भी नये लौंडे थे। ऐंठ गए। फिर तो दोनों तरफ़ इज़्ज़त का मामला पड़ गया। प्रधान लोग हलवाहेराम के साथ हो गए। ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लगने लगे। डिप्टी साहब वहीं कुर्सी दबाए ‘शान्ति–शान्ति’ चिल्लाते रहे। पर कहाँ की शान्ति और कहाँ की शकुन्तला ? प्रधानों ने सभा में बैठने से इन्कार कर दिया और राजापुर का हलवाहा तहसीली क्षेत्र का नेता बन बैठा। दूसरे ही दिन तीन पार्टियों ने अर्जी भेजी कि हमारे मेम्बर बन जाओ पर बाबू साहब ने मना कर दिया कि ख़बरदार, अभी कुछ नहीं। हम जब जिस पार्टी को बतायें, उसी के मेम्बर बन जाना।’’
सनीचर के कानों में ‘इन्क़लाब ज़िन्दाबाद’ के नारे लग रहे थे। उसकी कल्पना में एक नंग–धड़ंग अण्डरवियरधारी आदमी के पीछे सौ–दो सौ आदमी बाँह उठा–उठाकर चीख़ रहे थे। वैद्यजी बोले, ‘‘यह अ�
��िष्टता थी। मैं प्रधान होता तो उठकर चला आता। फिर दो मास बाद अपनी गाँव–सभा में उत्सव करता। डिप्टी साहब को भी आमन्त्रित करता। उन्हें फ़र्श पर बैठाल देता। उसके बाद स्वयं कुर्सी पर बैठकर व्याख्यान देते हुए कहता कि ‘बन्धुओ ! मुझे कुर्सी पर बैठने में स्वाभाविक कष्ट है, पर अतिथि–सत्कार का यह नियम डिप्टी साहब ने अमुक तिथि को हमें तहसील में बुलाकर सिखाया था। अत: उनकी शिक्षा के आधार पर मुझे इस असुविधा को स्वीकार करना पड़ा है।’’ कहकर वैद्यजी आत्मतोष के साथ ठठाकर हँसे। रंगनाथ का समर्थन पाने के लिए बोले, ‘‘क्यों बेटा, यही उचित होता न ?’’
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