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Rag Darbari

Page 51

by Shrilal Shukla


  वैद्यजी को सन्देह था कि जोगनाथ की गिरफ़्तारी के पीछे कुछ पालिटिक्स है। वे कुछ दिनों से देख रहे थे कि दारोग़ाजी उन्हीं को नहीं, रामाधीन भीखमखेड़वी को भी कुछ समझकर चल रहे हैं। पहले वे सोचते रहे कि अफ़ीम के गुप्त कारोबार में रामाधीन ने उन्हें भी साझीदार बना दिया है, पर अब उन्हें ऐसा लग रहा था कि दारोग़ाजी को भ्रम हो गया है–इस बात का भ्रम कि राजनीतिक दाँव–पेंच में रामाधीन भीखमखेड़वी उनके लिए वैद्यजी की अपेक्षा ज़्यादा कारगर साबित होंगे। जो भी हो, वैद्यजी को अहसास हो गया था कि इस परिस्थिति में अगर जोगनाथ की गिरफ़्तारी होती है तो शुरू में वही होगा जो दारोग़ाजी चाहेंगे और दारोग़ाजी वही चाहेंगे जो रामाधीन भीखमखेड़वी चाहेंगे।

  पर रुप्पन बाबू ने ज़िद की थी कि जोगनाथ को ज़मानत पर थाने से ही छुड़वा लिया जाए। इसलिए वे दारोग़ाजी से न चाहते हुए भी बात करने के लिए तैयार हो गए थे।

  दारोग़ाजी इस वक़्त सवेरेवाले मुस्तैद दारोग़ा न थे जिनकी निगाह पड़ते ही आदमी के जिस्म पर नीलगू निशान और खरोंचें उभर आती हैं। इस वक़्त वे सिल्क के कुरते में अपनी तन्दुरुस्त देह को झलका रहे थे। खद्‌दर का पैजामा। होंठों के कोनों से पान बहता हुआ। उनके मुँह से वैद्यजी ने पूरी घटना सुन ली। उन्हें ताज्जुब नहीं हुआ, सिवाय इसके कि जोगनाथ के घर से पुलिस ने एक देसी तमंचा तक नहीं बरामद किया। पुलिस के घनिष्ठ सम्पर्क में इतने साल बिताकर वे इतना जान गए थे कि ऐसे मौक़े पर अपराधी के घर से लोहे का एक भोंडा टुकड़ा ज़रूर निकलता है, जिसे तमंचा समझा जाता है और जिसे देखते ही यह ऐतिहासिक तथ्य अपने–आप स्पष्ट हो जाता है कि अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में अंग्रेज़ाें के सामने भारतीयों की हार का मुख्य कारण क्या था।

  उन्होंने दारोग़ाजी को मुरव्वत के लिए धन्यवाद देना आवश्यक समझा। भूमिका के तौर पर पूछा, ‘‘जोगनाथ के घर से केवल आभूषण ही निकले ? गाँजा, भंग, चरस या अफ़ीम तो नहीं ?’’

  ‘‘मैंने अफ़ीम की तलाशी नहीं ली थी! वैसा करता तो लोग यही कहते कि उस बार उधर की पार्टी से एक आदमी अफ़ीम के सिलसिले में पकड़ा गया था, इसलिए इस बार एक आदमी इधर से पकड़ा गया है।’’

  ‘‘पार्टी ?’’ वैद्यजी ने आश्चर्य के साथ पूछा, ‘‘कैसी पार्टी ? आप यह किसकी भाषा बोल रहे हैं ?’’

  उत्तर दिया रुप्पन बाबू ने, ‘‘पुलिस की।’’

  दारोग़ाजी ने आँखें मीचकर अपना दिमाग़ साफ़ करना चाहा। मन में उन्होंने कहा कि अंग्रेज़ी शराबों में ‘जिन’ बहुत धोखेबाज़ चीज़ है। देखने में पानी–जैसी है, पर पेट में पहुँचकर ज़बान को ग़लत मोड़ देने लगती है। क्या कहना चाहिए और क्या कहलाती है। उन्होंने आँखें खोलीं, वैद्यजी का चेहरा काफ़ी गम्भीर हो गया था। अब ये कोई कमीनेपन की बात कहेंगे, सोचकर दारोग़ाजी उनके मुँह की छटा निहारने लगे।

  ‘‘आपने यह संकोच निरर्थक ही दिखाया,’’ वैद्यजी बोले, ‘‘जो अफ़ीम का तस्कर व्यापार करता हो उसे कभी क्षमा न करना चाहिए। वह दुराचारी है, देशद्रोही है।’’

  दारोग़ाजी चुपचाप बैठे रहे। उन्होंने मन–ही–मन हलफ़ उठाया कि ‘जिन’ हो या न हो, अब कोई गलत बात नहीं कहूँगा। वैद्यजी ने अचानक पूछा, ‘‘जोगनाथ के घर से तमंचा तक नहीं निकला। यह कैसी तलाशी थी ?’’

  ‘‘ऐसी–ही–वैसी समझ लीजिए,’’ दारोग़ाजी विनम्रतापूर्वक बोले, ‘‘अब इतने तमंचे कहाँ रह गए कि हर तलाशी में एक–एक निकलता जाए !’’ मुस्कराकर उन्होंने सोचा कि ‘जिन’ ऐक्टिंग करने में बड़ी मददगार साबित होती है।

  रुप्पन बाबू एक अख़बार के पीछे अपना मुँह छिपाए हुए थे। वहीं से बोले, ‘‘कहाँ चले गए सब तमंचे ? आपके स्टॉकवाले सब ख़त्म हो गए क्या ?’’

  दारोग़ाजी ने गम्भीरतापूर्वक कहा, ‘‘पिछली बार वैद्यजी ने जो भाषण थाने पर दिया था, यह उसी का नतीजा है। उससे प्रभावित होकर सभी बदमाशों ने अपने तमंचे इलाके के बाहर फेंक दिए हैं। ज़्यादातर उन्नाववालों के हाथ बेच दिए हैं।’’

  बद्री पहलवान उन्नाव गए हुए थे। अभी लौटे नहीं थे। वैद्यजी ने आँख का कोना सिकोड़कर कुछ सोचा और धीरे–से हँसे। बोले, ‘‘शिवपालगंज का जलवायु बड़ा ही उत्कृष्ट है। बुद्धि के �
��िकास के लिए बड़ा अनुकूल पड़ता है।’’

  ‘‘मैं तो आपको ही यहाँ का जलवायु मानता हूँ।’’

  इस बार दारोग़ाजी ने यह बात कहकर ‘जिन’ को मन–ही–मन गालियाँ नहीं दीं, बल्कि वे खुलकर हँसे। वे हँसते रहे और उन्हें पता ही नहीं चला कि ‘जिन’ ने ज़बान को ही नहीं, गले को भी ग़लत मोड़ दे दिया है।

  वैद्यजी चुपचाप बैठे रहे। दारोग़ाजी की बात उन्होंने अनसुनी कर दी थी। दारोग़ाजी चलने के लिए धीरे–से खड़े हो गए। जब वे बैठक की चौखट लाँघ रहे थे तो वैद्यजी ने, जैसे वे कोई भूली बात याद कर रहे हों, कहा, ‘‘जोगनाथ की ज़मानत तो शायद मेरे ही नाम लिखी गई है ?’’

  दारोग़ाजी खड़े हो गए। बोले, ‘‘वैसा होता तो आपके दस्तख़त ज़रूर करा लेता। पर कोई बात नहीं, अदालत से ज़मानत हो जाएगी। किसी को वहीं भेज दीजिए।’’

  वैद्यजी चुप हो गए। रुप्पन ने अब साफ़-साफ़ पूछा, ‘‘यहाँ ज़मानत लेने में क्या दिक्क़त है ?’’

  ‘‘चोरी का जुर्म ग़ैर–ज़मानती है।’’

  ‘‘और खून का ?’’

  दारोग़ाजी ने हल्के ढंग से कहा, ‘‘आप शायद पारसाल के नेवादावाले मुक़दमे का ज़िक्र कर रहे हैं; पर उसमें तो मुलज़िम टी. बी. का मरीज़ था। उसे हवालात में रखकर कौन हत्या मोल लेता ?’’

  रुप्पन बाबू अख़बार छोड़कर पहले ही उठ खड़े हुए थे। बोले, ‘‘जोगनाथ अभी तो आपकी हिरासत ही में है। उसका वहीं मुआइना करा लीजिए। वह भी बीमार है। यह और बात है कि टी. बी. तो नहीं, सुज़ाक है।’’

  वैद्यजी ने ठण्डी आवाज़ में कहा, ‘‘रुप्पन, शिष्टता से बोलो। दारोग़ाजी अपने आत्मीय हैं, जो करेंगे, समझकर ही करेंगे।’’

  दारोग़ाजी ने दोहराया, ‘‘तो आज्ञा है ? चलूँ ?’’

  ‘‘ज़रूर चलिए।’’ रुप्पन बाबू बोले, ‘‘थाने पर रामाधीन बैठे राह देख रहे होंगे।’’

  दारोग़ाजी मुस्कराए, फिर नौकरशाही के जीवन की सबसे खेदपूर्ण घटना का ज़िक्र किया, ‘‘देश आज़ाद हो गया है। इसलिए अब बात ही दूसरी है वरना, रुप्पन बाबू, राह तो बड़े–बड़े लोग देख रहे होते।’’

  उनके चले जाने पर रुप्पन बाबू ने कहा, ‘‘जिसे समझे थे ख़मीरा वो भसाकू निकला।’’ इतना उन्होंने स्वगत के रूप में कहा, बाक़ी वैद्यजी से, ‘‘बड़ी बेइज़्ज़ती हुई।’’

  वैद्यजी शान्त भाव से बैठे रहे। फिर रंगनाथ को घर से निकलता देखकर व्याख्यान–शैली में बोले, ‘‘लाभालाभ, जयाजय, मान–अपमान–इन सबको सम–बुद्धि से लेना चाहिए।’’

  पिताजी गीता की बात कर रहे हैं, रुप्पन बाबू ने सोचा, अब देखें यह दारोग़ा बचकर कहाँ जाता है !

  बाबू रामाधीन भीखमखेड़वी के दरवाज़े पर आज भंग घुट रही थी। सामने एक छप्पर के नीचे जुआ हो रहा था। दोनों चीज़ों से बेलौस, बाबू रामाधीन एक चारपाई पर लेटे हुए लंगड़ की बात सुन रहे थे। लंगड़ चबूतरे के नीचे खड़ा था।

  रंगनाथ और सनीचर उसी ओर से निकल रहे थे। बाबू रामाधीन ने उन्हें आवाज़ देकर बुलाया, खुद चारपाई के एक कोने में बैठकर उसे उन्होंने सिरहाने बैठा लिया, सनीचर के बारे में उन्होंने कोई तक़ल्लुफ़ नहीं दिखाया। सिर्फ़ इतना कहा, ‘‘खड़े क्यों हो ? बैठ जाओ प्रधानजी।’’

  रंगनाथ के लिए यह दूसरा मौक़ा था। पहली बार जब वह रामाधीन के घर के आगे से निकला था, भंग और जुए का कहीं ज़िक्र न था। आज यहाँ का मौसम अच्छा था। रंगनाथ ने लंगड़ की ओर देखकर पूछा, ‘‘इनके क्या हाल हैं ?’’

  ‘‘बहादुर आदमी है। समझ लो, बैल को दुहकर आया है।’’ रामाधीन ने हाथों से इशारा करके बताया कि बैल को दुहने की कोशिश में हाथों को कहाँ तक जाना पड़ता है।

  रंगनाथ ने ललकारकर पूछा, ‘‘क्या हुआ ? नक़ल मिल गई ?’’

  लंगड़ ने वैष्णव सन्तों की निरीहता से जवाब दिया, ‘‘हाँ, बापू, अब मिली ही समझो। सदर से दरख़्वास्त वापस लौट आयी है। वैसे सदर जानेवाली दरख़्वास्तें वहीं खो जाती हैं, पर मेरी खोयी नहीं। आप लोगों के चरणों का प्रताप है।’’

  सनीचर ने समझदारी से कहा, ‘‘बहुत अच्छा लच्छन है। दरख़्वास्त वापस लौट आयी तो अब नक़ल मिल जाएगी।’’

  ‘‘कब मिलेगी ?’’ रंगनाथ ने पूछा।

  लंगड़ को यह उतावली कुछ नापसन्द आयी। रंगनाथ को दिलासा देते हुए कहा, “ नक़ल-बाबू कहते थे कि तुम्हारा नम्बर अब आने ही वाला ह�
�।’’

  रामाधीन ने कहा, ‘‘जाओ लंगड़ ! जाकर उधर ठंडाई–वंडाई पी लो।’’ फिर वे रंगनाथ की तरफ़ घूमे और बिना दिलचस्पी के बोले, ‘‘सुना, आज जोगनाथ गिरफ़्तार हो गया है ?’’

  रंगनाथ शुरू से ही इस सवाल के लिए तैयार था। उसने रामाधीन से पूछा, ‘‘कौन जोगनाथ ?’’

  रामाधीन उसका मुँह देखते रह गए, फिर सनीचर से बोले, ‘‘प्रधानजी, इन्हें बताओ जोगनाथ कौन है ?’’

  सनीचर ने कहा, ‘‘तुम, बाबू साहब, मुझको अभी से प्रधान–व्रधान न कहो। जब अपना क़ीमती वोट मंगलदास वल्द दुलारेलाल को दे दोगे, तभी मैं प्रधान बन पाऊँगा। अभी से टिलर–टिलर करना बेकार है। क्यों न बाबू रंगनाथ ?’’

  भंग का गिलास रंगनाथ के आगे आ गया था। उसने सिर हिलाकर कहा, ‘‘मैं तो पीता नहीं हूँ।’’

  बाबू रामाधीन को कुछ वैसे ही अपमान का अनुभव हुआ, जिसका अन्तिम परिणाम हल्दी घाटी की लड़ाई थी। गुर्राकर बोले, ‘‘तुम भंग क्यों पियोगे भैया ! यह ज़ाहिलों की चीज़ है।’’

 

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