Rag Darbari
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रामाधीन के सामने एक गँजहा बैठा था। रंगनाथ को अपने से ज़्यादा साफ़-सुथरा देखकर वह उसे शुरू से ही अपना स्वाभाविक शत्रु मान रहा था। वह बोल पड़ा, ‘‘ये शहरी आदमी हैं, भंग कैसे पी सकते हैं ? इनके लिए तो बोतलवाली निकालो बाबू साहेब !’’
रामाधीन ने रंगनाथ के प्रति बड़ी भलमनसाहत से देखा और बोले, ‘‘ये बोतलवाली नहीं पियेंगे। बाँभन हैं न !’’ फिर उन्होंने रंगनाथ से आदरपूर्वक पूछा, ‘‘और पीते हैं तो हुकुम करें, मँगाऊँ !’’
बाँभन के स्तर पर उतार दिए जाने के कारण रंगनाथ को जवाब देने में दिक़्क़त महसूस होने लगी, पर सनीचर ने बिना हिचक कहा, ‘‘तुम क्यों बोतल मँगाते हो ? बोतल तो ये चिमिरिखीदास मँगायें जिन्होंने यह बात उठायी है।’’ कहकर उसने गँजहे की तरफ़ हिक़ारत के साथ कहा, “ खड्डूस कहीं के !’’ फिर एक स्थानीय कहावत, जिसका खड़ी बोली में मतलब था कि सोलह सौ सूअरों को निमन्त्रण देते घूम रहे हैं पर हालत यह है कि स्थान–विशेष में पाख़ाना तक नहीं है।
रंगनाथ ने अब चल देना ही ठीक समझा, क्योंकि बातें उखड़ी–उखड़ी हो रही थीं, ‘‘अब चलने दीजिए बाबू रामाधीनजी, टहलने जा रहा था। देर हो जाएगी।’’
‘‘टहलना काम है घोड़ी का, मर्द–बच्चे का नहीं।’’ वे आत्मीयता से बोले, ‘‘पाँच सौ डण्ड फटाफट मारिए, लोहा–लंगड़ सबकुछ पेट में हज़म हो जाएगा।’’
वे दोनों चल दिए, पर चलते–चलते जुआरियों के पास थोड़ी देर के लिए ठिठक गए।
खेल दो गुटों में हो रहा था। एक ओर कई आदमी बैठे हुए ‘कोटपीस’ खेल रहे थे। उनकी परिस्थिति पर ग़ौर करने से पता चलता था कि कोटपीस एक ऐसा खेल है जो बावन पत्तों से होता है; पत्ते पुराने, घिसे हुए और इस क़दर कटे–पिटे होने चाहिए कि पारखी आदमियों को दूसरी ओर से पता चल जाय कि यह कौन–सा पत्ता है। उस गुट को देखने से यह भी पता चलता था कि कोटपीस आठ आदमियों द्वारा खेला जाता है। उनमें चार आदमी पत्ते हाथ में लेकर मुँह को अपनी छाती पर लटकाकर और दारुण चिन्ता के बोझ में दबकर बैठते हैं। बाक़ी चार आदमी एक–एक खिलाड़ी के पीछे बैठकर उस खेल का आँखों–देखा हाल बयान करते चलते हैं और जहाँ चुप रहने की ज़रूरत हो वहाँ निश्चित रूप से बोलते हैं। यही नहीं, वे खेलनेवालों के लिए तम्बाकू मलने, बीड़ी सुलगाने, पानी मँगाने और फेंके गए पत्तों को उठाने का काम करते हैं। खेल के बाद हार–जीत के मुताबिक जब खिलाड़ियों में पैसे का लेन–देन हो तो रेज़गारी की कमी को पूरा करने और जीते हुए खिलाड़ी के पैसे से पान मँगाने की ज़िम्मेदारी भी इन्हीं पर होती है। बने हुए पत्तों को गिनने और हारी हुई बाज़ी को फिंकवाकर किसी बहाने से झगड़ा शुरू कराने का काम भी इन्हीं को करना पड़ता है। सामने बैठे खिलाड़ी को कौन–सा पत्ता चलना चाहिए, इसे इशारे से बताना और इशारे का पता चल जाने पर विरोध में शोर मचाना भी इन्हीं का काम है।
रंगनाथ को यह खेल फिसड्डी–जैसा मालूम पड़ा, बिलकुल भंग के नशे–जैसा, पर जब उसने दूसरे गुट का निरीक्षण किया तो उसकी धारणा शिवपालगंज के जुए के बारे में बिलकुल ही बदल गई।
वे फ़्लैश खेल रहे थे, जो लैंटर्न को ‘लालटेन’ बतानेवाले नियम से यहाँ फल्लास बन गया था। खेल बड़े घमासान का चल रहा था। एक तरफ़ ब्लफ़ का स्वयं–चालित अस्त्र हत्याकाण्ड मचाए हुए था। दूसरी ओर शुद्ध देशी चाल से एक खिलाड़ी बढ़ रहा था। अचानक उसकी अक़्ल का हाथी घबराकर इधर–उधर भागने लगा और मालिक को नीचे फेंककर उसे कुचलने के लिए टाँग उठाकर खड़ा हो गया। उसने पत्ते फेंक दिए और उधर मुट्ठी–भर पैसे फड़ से बटोरकर दूसरे खिलाड़ी ने अपनी जाँघ के नीचे दबा लिये। हारे हुए खिलाड़ी ने, जिसे दो दिन पहले रंगनाथ ने वैद्यजी के घर पर आठ आने फ़ी दिन की मज़दूरी पर काम करते हुए देखा था, बिना किसी शिकन या खीज के एक बीड़ी सुलगा दी और दूसरी बाज़ी के बँटते हुए पत्तों को बिना दिलचस्पी के देखने लगा। रंगनाथ ने उसके धैर्य और साहस की मन–ही–मन सराहना की।
दत्तात्रेय ज़िन्दा होते तो इसे अपना पच्चीसवाँ गुरु बनाते, उसने सोचा। उसका मत्था उस खिलाड़ी की निर्विकारता पर आदर के साथ–और सच पूछा जाय तो उसके पत्तों को झाँककर देखने के मतलब से–नीचे झुक ग
या।
उन लोगों की अपनी एक भाषा थी। वे पेयर को ‘जोड़’ कहते थे। फ़्लश को ‘लँगड़ी’, रन् को ‘दौड़’, रनिंग फ़्लश को ‘पक्की’ और ट्रेल को ‘टिर्रैल’। उसने सोचा : अंग्रेज़ी शब्दों को हिन्दी में ढालने की समस्या का सही जवाब यही है।
देश में पेशेवर कोशकारों और उनकी समितियों का जाल बिछा है जो अंग्रेज़ी शब्दों के लिए हिन्दी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं के शब्द रच रहे हैं। यह काम काफ़ी दिलचस्प है क्योंकि एक ओर कमरे के भीतर एक नयी भाषा का निर्माण हो रहा है, दूसरी ओर इतना वक़्त भी लग रहा है कि निर्माणकर्ता पेंशन पाने–भर की नौकरी पूरी कर लें। यह इसलिए भी दिलचस्प है कि इस तरह बनाई गई भाषा का कोई अर्थ नहीं है, सिवाय इसके कि यह कहा जा सकता है कि लो भाई, जो शै हमारी अंग्रेज़ी में थी, वह तुम्हारी भाषा में आ गई है। भाई उसे लें या न लें, इससे किसी को कोई उलझन नहीं है।
रंगनाथ इस बेहूदा समस्या के बारे में कभी–कभी सोचता था, पर उसे कोई रास्ता नहीं दीख पड़ता था। बार–बार ‘पक्की’, ‘टिर्रैल’ और ‘लँगड़ी’ का प्रयोग सुनकर उसने आज सोचा : क्यों न इन चार–पाँच गँजहों की एक समिति बनाकर दिल्ली में बैठा दी जाय। ये बड़े–बड़े पारिभाषिक शब्दों के लिए, सिर्फ़ सामाजिक स्वीकृति के आधार पर, अपनी मातृ–भाषा के कुछ शब्द निकालकर पेश कर देंगे और कुछ न हुआ तो ट्रेल को ‘टिर्रैल’ बनाने में क्या देर लगती है।
जिस आत्मविश्वास से वे खेल रहे थे और अपने चूतड़ की खाल तक को बेचकर वे जिस आशावादिता से ब्लफ़ लगा रहे थे, उसने रंगनाथ को अचम्भे में डाल दिया। यह स्पष्ट था कि विदेशों से करोड़ों रुपये उधार माँगनेवाले डेफ़िसिट फ़ाइनेंसिंग के अाचार्यों और महान् राजनीतिज्ञों में भी इतना मज़बूत कलेजा मिलना मुश्किल है। रंगनाथ ने सोचा : इन मज़दूरों और चरवाहों का जीवन देखकर आज से मैं दिल्ली के स्वप्न–द्रष्टाओं पर नाराज़ होना छोड़ दूँगा।
उसने अपने पास बैठे हुए खिलाड़ी की ओर देखा। इस बार वह फिर दाँव हार गया था। उसने एक नयी बीड़ी सुलगायी और निर्विकार–भाव से इधर–उधर आँखें घुमाकर देखा। रंगनाथ और सनीचर को सूनी निगाह से एक किनारे छोड़ते हुए उसने कुछ दूर खड़े हुए एक मज़दूर को पाँच उँगलियाँ दिखाकर रुपये निकालने का इशारा किया। उसने सिर हिलाकर ‘नहीं’ कह दिया। तब वह उठकर बाबू रामाधीन के पास पहुँचा और वहाँ से तत्काल ही लौटकर अपनी जगह पर पूर्ववत् बैठ गया। उसका चेहरा पहले की तरह निर्विकार था। ताश उठाकर उसने अधजली बीड़ी दूर फेंकी और एक डकार ली। फिर उसने पाँच रुपये का नोट फेंककर, बाक़ी रुपये वापस उठाने की चिन्ता किये बिना, एक दाँव चला। दूसरी तरफ़ एक खिलाड़ी ने कहा, ‘‘इस बार कोई बड़ा पत्ता आया है।’’
रंगनाथ ने झुककर देखा, वह फिर पहले की तरह ब्लफ़ खेल रहा था।
विदेशी सहायता किन कारणों से, किस मौक़े पर और किस तरह का चेहरा लेकर माँगनी चाहिए, यह सबक़ रंगनाथ की आँख के आगे खुला हुआ था।
वे मैदान में पहुँच गए थे और रंगनाथ को अकेला छोड़कर सनीचर कुछ दूरी पर एक छोटे–से तालाब की ओर जानेवाला था। रंगनाथ ने उससे पूछा, ‘‘और तो सब ठीक है, पर एक बात समझ में नहीं आयी। छोटे पहलवान जोगनाथ के ख़िलाफ़ पुलिस के गवाह बन गए, यह ठीक नहीं है।’’
सनीचर तालाब की ओर राकेट की–सी तेज़ी से बढ़ने लगा। उसने अण्डरवियर की डोरी टटोलनी शुरू कर दी थी और यह बताने की ज़रूरत नहीं थी कि इस रफ्तार की वज़ह क्या है। पर जाते–जाते उसने रंगनाथ को यह बात नौ शब्दों में समझा दी। उसने कहा, ‘‘देखते जाओ रंगनाथ बाबू, ये गँजहों के चोंचले हैं।’’
इसके बाद जैसे कोई विश्वसुन्दरी उसे अपने बिस्तर पर बुला रही हो, इस आतुरता से अण्डरवियर को दूर फेंककर रंगनाथ की निगाह के सामने ही वह बिलकुल नंगा हो गया और चट से तालाब के किनारे तीतर लड़ानेवाली मुद्रा में बैठ गया।
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शहर में चायघर, कमेटी–रूम, पुस्तकालय और विधानसभा की जो उपयोगिता है, वही देहात में सड़क के किनारे बनी हुई पुलिया की है; यानी लोग वहाँ बैठते हैं और गप लड़ाते हैं। इस समय, दिन के लगभग दस बजे, इतवार के दिन रंगनाथ और रुप्पन बाबू एक पुलिया पर बैठे हुए धूप खा रहे थे और ज़म
ाने की हालत पर ग़ौर कर रहे थे ।
ज़माने की हालत–अर्थात् अँधेरे में पाए गए दो मज़बूत स्तनों का गर्मागर्म स्पर्श। बात रंगनाथ ने शुरू की थी। उसने चाहा था कि वह उस रात की घटना किसी से न बताए। रुप्पन से वह सिर्फ़ सामान्य ज्ञान की बात करना चाहता था और साथ ही वह इतना जानना चाहता था कि मुहल्ले में ऐसी कौन–कौन–सी लड़कियाँ हैं जो चोली बनानेवाली किसी कम्पनी के कैलेण्डर में मॉडल की हैसियत से इस्तेमाल हो सकती हैं। उसने जब रुप्पन से बात शुरू की तो ऐसा जान पड़ा था, जैसे वह उस कम्पनी का प्रचार–अधिकारी हो और लड़कियों या उनके स्तनों में उसकी दिलचस्पी बिलकुल कारोबारी तौर की हो। रुप्पन बाबू ने जब उससे इस विषय पर ज़रा गहराई से बात करनी चाही तो गहराई की बहस आ जाने पर प्रत्येक भारतीय विद्यार्थी की तरह वह इधर–उधर कतराने लगा। उसने बात को मोड़कर लड़कियों की तन्दुरुस्ती पर उतारा और ‘द ग्रेट इण्डियन ब्रा–मैनुफैक्चरिंग कम्पनी’ के प्रचार–अधिकारी के पद से इस्तीफ़ा देकर ‘अखिल भारतीय नागरिक स्वास्थ्य–संघ’ के महामन्त्री का ओहदा सँभाल लिया; पर रुप्पन बाबू के सवालों ने उसे उस कुर्सी पर भी नहीं टिकने दिया और थोड़ी देर तक अँधेरे, जाड़े, भूत–प्रेत आदि का ज़िक्र करते रहने के बाद रंगनाथ को महसूस हुआ कि धीरे–धीरे, न चाहते हुए भी, उस रात की घटना का पूरा विवरण वह रुप्पन बाबू को सुना चुका है।