Rag Darbari
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रुप्पन बाबू बड़े ध्यान से सुनते रहे और रंगनाथ की बात ख़त्म होते–होते उन्हें लगा कि भट्ठी में बैठे हैं। उन्हें अपने भीतर एक अजीब–सी गर्मी और तनाव महसूस हुआ जैसा कि लड़कियों की बात चलने पर उनके साथ हमेशा हो जाता था। उन्हें यक़ीन हो गया कि छत पर आनेवाली लड़की बेला थी और जिसको वह आत्म–समर्पण करना चाहती थी, वे स्वयं रुप्पन बाबू थे। मेरा प्रेम–पत्र अब रंग ला रहा है और वह कसमसा रही है, उन्होंने अभिमानपूर्वक सोचा और उसके साथ खुद ही कसमसाने लगे। उस रात छत पर मैं खुद क्यों नहीं सोया, इस अफ़सोस ने रुप्पन बाबू के गले में एक सिनेमा का गाना लाकर लटका दिया; पर इस वक़्त उन्हें रंगनाथ के आगे एक समझदार आदमी की तरह का रूप प्रकट करना था, इसलिए ऊपर से वे एक समझदार आदमी की तरह बैठे रहे। उन्हें चुप देखकर रंगनाथ ने अपनी बात दोहरायी, ‘‘उसके आने और जाने का मुझे पता ही नहीं चला। मुझे सिर्फ़ इतना याद है कि वह मेरी छाती पर झुकी बैठी थी और...।’’
रुप्पन बाबू बड़प्पन के साथ बोले, ‘‘हो जाता है। कभी–कभी ऐसा धोखा भी हो जाता है। पता नहीं कौन था, कोई आया भी था या नहीं, किसी से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। देहाती हूशों का मामला। भूत–परेत की सोचने लगेंगे। किस–किसको समझाओगे रंगनाथ दादा ! ज़बान बन्द रखो। हो सकता है, सपना देखा हो; सचमुच भी हो सकता है।’’
रंगनाथ को इस व्याख्यान में ऐतराज की दो बातें मालूम दीं–एक तो यह कि रुप्पन बाबू उसके अनुभव को सपने की बात कहकर टाल देना चाहते थे; और दूसरे यह कि बार–बार वे उस लड़की के लिए पुल्लिंग का प्रयोग कर रहे थे। उसने कहा, ‘‘उसमें धोखा हो ही नहीं सकता। मैं जाग रहा था। वह आकर मेरी चारपाई पर बैठी थी, मेरे ऊपर झुकी थी।’’
‘‘ठीक है, ठीक है,’’ अपने हाथ से कुछ काल्पनिक मच्छरों को उड़ाते हुए रुप्पन बाबू बोले, ‘‘मान लिया। सचमुच ही कोई आया था। पर इस बारे में कहीं कुछ कहने की ज़रूरत नहीं।’’
कोई आया था ! रंगनाथ ने आँख मूँदकर एक बार कोणार्क की सुर–सुन्दरियों का सरसरी तौर पर मुआइना किया और बीस बार मन में दोहराया, ‘‘आया था नहीं, आयी थी। रुप्पन बाबू, तुम कभी ‘आया था’ के आगे भी सोच पाओगे या नहीं ?’’
उसके दूसरे दिन !
बादाम ख़त्म हो गया था और उसे ख़रीदने के लिए रंगनाथ को शिवपालगंज का चक्कर लगाना पड़ा। पंसारियों की दो–चार दुकानें थीं। वहाँ उसे आगे लिखी बातें मालूम हुईं :
‘‘बादाम अब कौन बेचे ? खानेवाले कहाँ रह गए ? बादाम को हज़म करना कोई मामूली बात है ! उसे पचाने के चक्कर में बड़े–बड़े पहलवानों की हवा बन्द हो जाती है। फिर बादाम ख़रीदेगा कौन ? गेहूँ–चना बादाम के मोल बिक रहा है, वही मिल जाय, बड़ी बात है। बद्री पहलवान पहले बादाम खाते थे, तब हम लोग भी उसे दुकान में रखते थे। अब वे भी दूध–घी के ऊपर चल रहे हैं और उनके छोटे भाई रुप्पन हैं, वे चियाँ–जैसा मुँह लिये चाय–बिस्कुट के सहारे जी रहे हैं।
‘‘अब यहाँ बादाम–वादाम नहीं मिलता। सच पूछो तो बादाम का भी अब नाम–ही–नाम है। बढ़िया काग़ज़ी बादाम अब आता कहाँ है ? आता है तो शहर–का–शहर में ही रह जाता है। बाज़ार में घुसने ही नहीं पाता। नये–नये सेठ–साहूकार बढ़ रहे हैं। वे पहले ही ख़रीदकर लड्डू बनवा डालते हैं। मनमाना खाते हैं और खाकर हग देते हैं।
‘‘बादाम कोई ऐसी अच्छी चीज़ थोड़ी ही है। पेट को ईंट–जैसा बना देता है। उसे बिना मुनक्के के खाना ही न चाहिए। मुनक्का अच्छी चीज़ है। कमज़ोर कोठे के लिए दस्तावर है, पर तन्दुरुस्त आदमी का पेट हल्का रखता है।
‘‘मुनक्का लोगे ? देखो, ये हैं असली मुनक्का। शिवपालगंज है, इसलिए मिल जाएगा। शहर होता, तो दिन–भर चक्कर काटते। यह चीज़ वहाँ नहीं मिलेगी।’’
बकरी की लेंड़ी–जैसा मुनक्का देखते–देखते रंगनाथ इसी नतीज़े पर पहुँच गया कि गाँव में ख़रीदने के लिए आदर्श पदार्थ सिर्फ़ वही है जो श्री मैथिलीशरण गुप्त ने आज से लगभग पचास साल पहले लटके हुए देखे थे :
काशीफल कूष्माण्ड कहीं है,
कहीं लौकियाँ लटक रही हैं।
सुना था कि शिवपालगंज से दो मील दूर एक दूसरे गाँव में पंसारियों की कुछ दुकानें हैं जहाँ अच्छा बादाम मिल जाने की �
�म्भावना है। रंगनाथ वहीं के लिए चल दिया। रास्ता काफ़ी दूर तक पगडण्डीवाला था, पर उस पर जगह–जगह बबूल की काँटेदार टहनियाँ रखी थीं। खाइयाँ और नालियाँ खुद गई थीं और कहीं–कहीं ऊँची मेंड़ें बाँध दी गई थीं। किसानों की यह भावना क़दम-क़दम पर स्पष्ट हो रही थी कि वे नहीं चाहते कि कोई चिड़िया भी उस रास्ते से निकले। पर आदमी, जो आज मंगल–ग्रह और चन्द्रमा तक राह बनाने के लिए तैयार है, इन विघ्न–बाधाओं को कुचलकर कहीं खेतों के बीच से और कहीं नालियों के अन्दर से रास्ता निकाल चुका था।
एक भलामानुस उधर ही जा रहा था। रंगनाथ उसके पीछे हो लिया। उस आदमी ने उससे पूछा कि तुम किसके लड़के हो। उसने कहा कि वैद्यजी का भांजा हूँ।
उस आदमी ने इज़्ज़त के साथ कहा कि मैंने आपका नाम सुना था। आज दर्शन हो गए। सुना है आप बहुत पढ़े–लिखे हैं। बी.ए., ए.मे. हैं। रंगनाथ ने जवाब में कहा कि यह रास्ता बहुत गड़बड़ है। पता नहीं, लोगों ने बबूल की ये डालें क्यों गाड़ रखी हैं। उसने जवाब दिया कि अब कोई किसी को टोकनेवाला तो है नहीं, जो चाहता है, रास्ते में मेंड़ बाँध देता है, बबूल गाड़ देता है। रंगनाथ ने कहा, क्यों ? गाँव–पंचायत तो है। उसने कहा कि हाँ, पंचायत तो है, पर वह सिर्फ़ जुर्माना करती है। ज़मींदार था तो जूता लगाता था : उसने समझाया कि हिन्दुस्तान साला भेड़ियाधँसान मुल्क है। बिना जूते के काम नहीं चलता। ज़मींदारी टूट गई है, जूता चलना बन्द हो गया है, तो देखो, सरकार को खुद जूतमपैज़ार करना पड़ता है। रोज़ कहीं–न–कहीं लाठी या गोली चलवानी पड़ती है। कोई करे भी तो क्या करे ? ये लात के देवता हैं; बातों से नहीं मानते। सरकार को भी अब ज़मींदारी तोड़ने पर मालूम हो गया है कि यहाँ असली चीज़ कोई है तो जूता। रंगनाथ ने कहा कि यह भी कोई बात हुई, जूते के सहारे लोगों को कब तक तमीज़ सिखायी जाएगी। उस आदमी ने कहा कि जूता तो चलते ही रहना चाहिए, जब तक बदमाश की खोपड़ी पर एक भी बाल रहे, जूते का चलना बन्द नहीं होना चाहिए।
आदमी का मूड खराब था, इसलिए रंगनाथ चुप हो गया। थोड़ी देर चलते रहने के बाद वह आदमी अचानक बोला, ‘‘बी. ए. का ओहदा बड़ा होता है कि वकालत का ?’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘क्या बड़ा, क्या छोटा ! सब एक हैं।’’
‘‘सो तो मैं भी जानता हूँ। फटीचर देश में बड़े–छोटे तो एक ही हो गए हैं। पर असलियत में बड़ी कौन चीज़ है, वकालत कि बी.ए. ?’’
रंगनाथ ने टालने के लिए कहा, ‘‘वकालत।’’
‘‘तो समझ लो कि मेरा लड़का वकील है।’’
रंगनाथ ने पूछा, ‘‘कहाँ रहता है ?’’
वकील के बाप ने अहंकार से कहा, ‘‘वकील कहाँ रहते हैं ? वह यहाँ गाँव में थोड़े ही है ? शहर में बस गया है। तीन साल से वकालत कर रहा है।’’
‘‘तब तो बड़े वकीलों में गिना जाता होगा।’’
‘‘बड़ा नहीं, बहुत बड़ा। तुम्हारे गाँव का जोगनथवा है न ! उसकी तरफ़ से खड़ा हुआ है। वैद्यजी यहाँ हाथ–पाँव पटककर रह गए। दारोग़ा ने ज़मानत नहीं ली। वहाँ उसने इजलास में खड़े–खड़े ज़मानत करा ली।
‘‘उसका हाथ भी रईसों का है। वकालतनामा मैंने ही भराया था। उसने पाँच रुपये मेरे हाथ में भी ठूँस दिए।’’
रंगनाथ ने वकील के बाप का हौसला बढ़ाना चाहा : ‘‘इसका मतलब यह है कि कमाता अच्छा है।’’
वह आदमी चौकन्ना हो गया। उसने मुड़कर रंगनाथ का चेहरा देखा और आवाज़ को मरियल बनाकर कहने लगा, ‘‘अच्छा क्या, हाँ यह कहो कि...अब चाहे अच्छा ही कह लो। बस, ऐसा–ही–वैसा है, भैया ! कमाई तो अब तुम्हारे मामा की है। कैसी बैठक चमकायी है !
‘‘इमली का चियाँ भी पुड़िया में बन्द करके किसी को दे दें तो एक रुपये का हो जाएगा। वक़्त की बात है।’’ अपनी ईर्ष्या छिपाने की उसने कोई कोशिश नहीं की। शुद्ध देहाती ढंग से वह वैद्यजी पर कोड़े बरसाने लगा, ‘‘देखते–देखते इतने बड़े नेता हो गए। पहले सीधे–सादे थे। अब जितना ज़मीन के ऊपर हैं, उतना ही नीचे घुसे हुए हैं। पेशाब में चिराग़ जल रहा है।’’
अन्त में उसने कहा, ‘‘पर दारोग़ा ने जोगनथवा के मामले में उन्हें घास नहीं डाली। बन्दर की तरह कटघरे में बैठालकर जोगनथवा को जेल भेज दिया।’’
उसने पुरानी बात दोहरायी, ‘‘मेरे लड़के ने ज़मानत न करायी होती तो �
��ेलर के बच्चों को गोद में खिला रहा होता।’’
‘‘पेशी कब है ?’’
‘‘जोगनाथ के मुक़दमे की ? अनारी मजरैट का इजलास का मुक़दमा ! उसमें जब चाहो तभी पेशी लग जाएगी। मेरा लड़का आजकल घर आया है। दो–चार दिन बाद शहर वापस जाएगा, तब किसी दिन पेशी डलवा लेगा।’’
वे लोग जहाँ से निकल रहे थे वहाँ ज़मीन नीची थी और चारों ओर झाड़–झंखाड़ थे। काँसों का जंगल–सा फैला हुआ था। काँस सूखकर कड़े हो गए थे और पगडण्डी पर चलनेवालों के जिस्म से टकराते थे।