Rag Darbari
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सनीचर ने साँड की तरह हुंकारकर कहा, ‘‘अबे ओ खड्डूस ? क्या कर रहा है ?’’ वह रंगनाथ से कहने लगा, ‘‘देखा इन गँवारों को ! सारा जंगल–का–जंगल ख़राब किए डाल रहे हैं। पता नहीं, किस साले ने ये गाँठें लगा दी हैं।’’
रंगनाथ चौंककर सनीचर का मुँह देखने लगा। उसके मुँह से आज गालियाँ कुछ ज़्यादा तेज़ रफ़्तार से निकल रही थीं। उसने पूछा, ‘‘इन गाँठों से किसी का कोई नुक़सान है क्या ?’’
‘‘है क्यों नहीं ? मालूम है, यह ज़मीन शिवपालगंज गाँव–सभा की है।’’ वह रोब के साथ बोला, ‘‘समझे बाबू रंगनाथ ?’’ कहते–कहते उसने गाँठ लगानेवाले आदमी को गाली देने के लिए ऊँट की तरह अपनी गर्दन ऊँची की, और, यह बताते हुए कि वह आदमी नारी–शरीर के किस हिस्से से बाहर निकला था, एक सवाल किया, ‘‘काँस तुम्हारे बाप के हैं क्या ?’’
उस आदमी ने पलटकर जवाब दिया, ‘‘और नहीं तो क्या तुम्हारे बाप के हैं?’’
झगड़ा बचाने के लिए रंगनाथ आगे बढ़ आया और बोला, ‘‘गाली–गलौज न करो भाई।’’ ठण्डी आवाज़ में उसने उस आदमी से पूछा, ‘‘कर क्या रहे हो ?’’
‘‘जो सारी दुनिया कर रही है, हम भी कर रहे हैं।’’ उसने अकड़कर इस तरह कहा जैसे वह दुनिया का सबसे बड़ा मौलिक काम कर रहा हो।
सनीचर ने कहा, ‘‘पर मालूम भी है, यह जगह शिवपालगंज गाँव–सभा में लगती है। गाँठ लगा देने से काँस की बाढ़ मारी जाएगी। कुछ पता भी है ! चालान हो जाएगा तो भागे–भागे फिरोगे। तब यह तुम्हारी दुनिया तुम्हारे काम न आएगी।’’
‘‘चालान कौन साला करेगा ?’’
‘‘साला नहीं, चालान तुम्हारा बहनोई करेगा ! मैं ! आँख खोलकर देख लो, तुम्हारे ही आगे खड़ा हूँ-पँचहत्था !’’
रंगनाथ की ओर देखते हुए उसने अपनी बात साफ़ की, ‘‘हाँ रंगनाथ बाबू, मैं ! आज ही प्रधानी के लिए परचा दाख़िल करने जा रहा हूँ। पन्द्रह दिन के भीतर ही देख लेना, रामाधीन की छाती पर चढ़कर आऊँगा और देखूँगा, कौन साला मेरी गाँव–सभा का तिनका तक छू लेता है !’’
अहा ! यह बात है ! तभी अंग्रेज़ी बाल कट रहे हैं। पेड़ पर बैठी हुई चील के बोलने पर ऐतराज हो रहा है। ऐटम बम फटनेवाला है। गाँव–सभा के जंगल के बारे में इतनी हुकूमत बरती जा रही है !
सारी बात रंगनाथ की समझ में आ गई। ‘‘नामज़दगी का पर्चा आज ही दाख़िल किया जाएगा ?’’
‘‘अभी–अभी ! इसी वक़्त !’’ सनीचर ने जोश से कहा, ‘‘पर्चा पहले दाखिल करूँगा, नहाऊँगा बाद में।’’
उसने चलताऊ नज़र गाँठ बाँधनेवाले आदमी पर यह देखने के लिए डाली कि उस पर रोब पड़ा है या नहीं। पर नतीज़ा साफ़ था। सनीचर के रोब का असर सनीचर तक ही सीमित रह गया था–जैसा हिन्दुस्तान का एशिया और अफ्रीका की नेतागीरी करने का दावा। वह आदमी इत्मीनान से कहने लगा, ‘‘चलो अच्छा है, तुम्हीं प्रधान हो जाओ। किसी–न–किसी को तो होना ही है।’’ हिक़ारत के साथ उसने जोड़ा, ‘‘गाँव–पंचायत भी क्या है ? सरकारी चोंचला !’’
सनीचर को अपमान का आभास हुआ। बोला, ‘‘चोंचला तो है, पर पन्द्रह दिन बाद देख लेना, शिवपालगंज में काँस का तिनका तक छूने पर क्या होता है !’’
उस आदमी ने लापरवाही से कहा, ‘‘यही है तो न छूऊँगा। यह गाँठवाली पूजा तो शिवपालगंज से ही निकली थी। वहीं तक रह जाएगी।’’
रंगनाथ ने सामने बँधी हुई दर्जनों गाँठों की ओर देखा। पूछा, ‘‘यह कैसी पूजा है ?’’
‘‘क्या पता, कैसी है ? सुनते हैं, हनुमानजी ने वहाँ किसी को सपना दिया था। उन्हीं के हुकुम से लोग वहाँ गाँठ बाँधने लगे हैं।’’
सनीचर ने घबराकर हाथ जोड़ दिए। कहा, ‘‘तो फिर मौज से गाँठ बाँधो भाई, धरम–करम के मामले में कोई रोक–टोक नहीं है।’’ इतना बोलकर उसने, जितनी भी रही हो, सारी–की–सारी अक़्ल सोचने में लगा दी और रंगनाथ से कहा, ‘‘पर बाबू रंगनाथ, हमने तो कहीं सुना नहीं। यह सपना किसको हुआ था ? मैं जब आया था, यहाँ पर कोई गाँठ नहीं थी।’’
रंगनाथ ने कहा, ‘‘मैं कुछ नहीं जानता। मुझसे तो मामा ने कहा था कि उधर जाना तो एक गाँठ काँस की फुनगी पर लगा देना। मैंने लगा दी। यह हनुमानजी की गाँठ है। मामा बताते थे।’’
सुनते ही सनीचर की अक़्ल पर हनुमानजी चढ़ गए। बिना दुम के बन्दर की तरह छलाँग लगाकर वह काँस के एक ऊँचे झाड़ के पास पहुँ�
�ा और उसमें गाँठ बाँधने लगा। उस दौरान उसने कई बार ‘जय बजरंग’ का नारा लगाया, रामाधीन को कई एक गालियाँ सुनायीं और उपसंहार में कहा, ‘‘सच्चे का बोलबाला है, दुश्मन का मुँह काला है !’’
रंगनाथ ने जोड़ा, ‘‘राम–नाम सत्य है। सत्य बोलो, मुक्ति है।’’
सनीचर ने नहीं सुना। सुनता तो ऐतराज़ करता, हालाँकि धार्मिक हिसाब से यह बात बड़ी पक्की है और राम–नाम से सम्बन्धित होने के कारण किसी भी मौक़ै पर कही जा सकती है। सनीचर ने गाँठ बाँधकर एक बार फिर हनुमानजी का नाम लिया और अपने पीछे अण्डरवियर पर दोनों हाथ पोंछते हुए, वहाँ पर दुम नहीं है, इस कमी पर ध्यान न देकर, तेज़ी से आगे बढ़ने लगा।
रंगनाथ के दिमाग़ पर शान्ति और आत्म–गौरव की एक छाया धीरे–धीरे उतरी। बिना समझे–बूझे आज उसने नये सम्प्रदाय का प्रवर्तन कर दिया था, जिसका दर्शन–पुराण–कर्मकाण्ड कुल मिलाकर इतना था कि काँस की फुनगी पर एक गाँठ लगा दी जाए। उसने अपने–आपको बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य आदि की क़तार में खड़े हुए पाया और मन–ही–मन उनसे सवाल किया, ‘‘उस्ताद, अपने बारे में जानता हूँ, पर तुम अपनी कहो। नया सम्प्रदाय चलाने की बात तुम्हें कैसे सूझी थी ?’’
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किसी गाँव में किसी ने किसी का खून कर दिया। किसी दूसरे से दुश्मनी निबाहने के लिए उसका नाम थाने पर बहैसियत क़ातिल दर्ज करा दिया गया। फिर किसी ने अपनी दुश्मनी निबाहने के लिए उसके ख़िलाफ़ गवाही देना स्वीकार कर लिया। फिर किसी ने उसकी किसी से सिफ़ारिश की, किसी ने उसकी ओर से किसी को रिश्वत दी। किसी ने किसी गवाह को धमकाया, किसी को बेवकूफ़ बनाया और किसी से प्यार जताया। इस तरह मामले के इजलास तक पहुँचते–पहुँचते उसकी शक्ल बदल गई और वह खून का मुक़दमा न रहकर ‘ख़ून का बदला’ नाम का ड्रामा बन गया। दोनों ओर से वकीलों ने बहुत अच्छा पार्ट अदा किया और जज को इत्मीनान हो गया कि ड्रामे की हैसियत से अच्छी चीज़ पेश की गई है, पर जिसे सबूत कहकर पेश किया गया है, वास्तव में फ़रेब है। अन्त में फ़रेबवाली थ्योरी ने इतना ज़्यादा प्रभावित किया कि उसने यह तो माना ही कि मुलज़िम निर्दोष है, साथ में यह भी मान लिया कि क़त्ल ही नहीं हुआ था। परिणाम यह हुआ कि ‘मुलज़िम हरीराम’ को क़त्ल के जुर्म में बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया।
मुलज़िम हरीराम जज के कह देने–भर से बाइज़्ज़त तो नहीं बन गए–रहे गुण्डे–के–गुण्डे ही–पर जेल से वापस आते ही उन्होंने पूरे इलाक़े में बाइज़्ज़त समझे जानेवालों को–यानी स्त्रियों, अछूतों और मुसलमानों को–छोड़कर मनुष्य-मात्र को एक दावत बोल दी। नतीजा यह हुआ कि उस दिन शिवपालगंज के सभी मुख्य आदमी पड़ोस के गाँव में हरीराम के यहाँ दावत खाने चले गए और रंगनाथ वैद्यजी के यहाँ अकेला रह गया।
दिन–भर उसका समय एक उमंग–हीन, जी–उबाऊ लैक्चर की तरह बीता। शाम को टहलने के लिए वह बाहर निकला। देखा, प्रिंसिपल साहब एक तँबोली की दुकान पर खड़े हैं।
वे पान खा रहे थे और तँबोली को उसकी क़ीमत देने की कोशिश कर रहे थे। तँबोली उन्हें पान खिला चुका था और क़ीमत के बारे में उन्हेें बता रहा था कि दुकान आप ही की है। तभी रंगनाथ मौक़े पर पहुँच गया और प्रिंसिपल साहब गम्भीरता से दुकान के साजो–सामान को आँकने लगे। एक चौखटे से रंग–बिरंगी चित्रकारिता की मार्फ़त लटके हुए महात्मा गाँधी बड़ी विकराल हँसी हँस रहे थे। उत्तराधिकारी नेहरू हाथ जोड़े खड़े थे। निष्कर्ष यह था कि एक रंगीन तेल बच्चों के सूखा रोग का शर्तिया इलाज है। रंगनाथ ने प्रिंसिपल से कहा, ‘‘देखा आपने ?’’
जवाब में अवधी की कहावत, ‘‘जइस पसु तइस बँधना। तस्वीर दिहाती इलाके के माफ़िक है।’’
‘‘दिहाती–शहराती से क्या बहस !’’ रंगनाथ ने कहा, ‘‘गाँधीजी की तो सभी इज़्ज़त करते हैं।’’ थोड़ी देर तक तस्वीर का अध्ययन करके उसने उसकी भावपूर्ण समीक्षा की, ‘‘तबीयत होती है कि तस्वीर बनानेवाले को सौ जूते लगायें।’’
प्रिंसिपल साहब हँसे। हँसी बता रही थी कि रंगनाथ बेवकूफ़ है। बोले, ‘‘जितना गुड़ घोलो उतना ही मीठा होगा। तेली–तँबोली की औक़ात ही क्या ? टके की दुकान पर कोई साला पिकासो थोड़े ही लटकाएगा !’’
रंगनाथ ने उनकी
बात काटते हुए ज़ोर से कहा, ‘‘रुकिए, रुकिए, मास्टर साहब ! पिकासो का नाम न लीजिएगा। आपके मुँह से ऐसा नाम सुनते ही गश–जैसा आने लगता है।’’
दोनों सड़क पर आ गए थे और गायों और भैंसों की भीड़ में वायुसेवन करने लगे थे; हालाँकि वायु तो कहीं थी नहीं, फेफड़े में घुसने के लिए धूल थी, नाक में घुसने के लिए गोबर की गन्ध थी और पीठ में घुसने के लिए किसी गऊ माता के सींग थे।
रंगनाथ की बात का प्रिंसिपल साहब पर इतना बुरा असर पड़ा कि वे गम्भीर हो गए और बिलकुल शिष्ट आदमियों की–सी बातें करने लगे। बोले ‘‘तो रंगनाथजी, क्या आप मुझे बिलकुल ही अशिक्षित समझते हैं ? मैंने भी इतिहास में एम. ए. पास किया है और उनसठ फ़ीसदी नम्बर पाए हैं। यह तो वक़्त की बात है कि मैं यहाँ का प्रिंसिपल हूँ।’’
गम्भीर वार्तालाप ने रंगनाथ की हवा निकाल दी। उसे लगा कि पिकासोवाला मज़ाक करके उसने प्रिंसिपल साहब को दुखी किया है। उसने प्रिंसिपल से माफ़ी माँग ली। बोला, ‘‘यह तो मैं पहले ही जानता था। कोई घटिया डिवीज़न पायी होती तो आप यहाँ थोड़े ही होते !’’