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Rag Darbari

Page 56

by Shrilal Shukla


  ‘‘सो तो है ही,’’ प्रिंसिपल बोले, ‘‘तब तो मैं भी किसी यूनिवर्सिटी का लैक्चरार होता। मेरे कई थर्ड–क्लास दोस्त यूनिवर्सिटी ही में लगे हैं।’’

  प्रिंसिपल थोड़ी देर अनमने–से चलते रहे। वे भावुक होने की कोशिश कर रहे थे। कुछ देर बाद बोले, ‘‘बाबू रंगनाथ, मैं जानता हूँ तुम लोग मेरे बारे में क्या सोचते हो। तुम सोचते होगे कि यह एक कॉलिज का प्रिंसिपल होकर भी कैसा बाँगड़ू है। सबके सामने ‘हें–हें–हेें’ करता रहता है। बात ठीक है। मैं–खन्नावन्ना की बात जाने दो, वे साले लौंडे हैं–पर और सबकी बातें बहुत झुककर सुनता हूँ। ख़ास तौर से अपने से बड़ों की बातें सुनकर मैं उनकी हमेशा ताईद करता हूँ। अब तुम मुझे बेवकूफ़ समझते हो, पर इसकी भी एक वजह है...

  ‘‘वजह यह है...’’ कहकर वे एक भैंस को रास्ता देने के लिए एक किनारे खड़े हो गए और हँसने लगे।

  ‘‘वजह यह है कि जैसे बुद्धिमत्ता एक वैल्यू है, वैसे ही बेवकूफ़ी भी अपने–आपमें एक वैल्यू है। बेवकूफ़ की बात चाहे तुम काट दो, चाहे मान लो, उससे उसका न कुछ बनता है, न बिगड़ता है। वह बेवकूफ़ है और बेवकूफ़ रहता है। इसीलिए मेरी आदत पड़ गई है कि बेवकूफ़ को कभी न छेड़ो।...

  ‘‘कभी–कभी ऐसा करते देखकर लोग मुझे ही बेवकूफ़ मान बैठते हैं। वे खुद बेवकूफ़ हैं। क्या समझे बाबू रंगनाथ ?’’

  प्रिंसिपल साहब के मुँह से एक साथ इतनी बात सुनकर वह चकरा गया। तभी एक बछड़े ने उसकी पीठ पर सींग गड़ाई, पर उसे किसी चुभन का अनुभव नहीं हुआ। प्रिंसिपल ने उसका हाथ पकड़कर उसे एक किनारे खींचा। उनके उस बुद्धिमान–रूप का दर्शन अपने–आपमें एक अनुभव था। उसे पता भी नहीं चला कि कब उसकी ख़ीसें निकल आईं और कब वह ‘हीं–हीं–हीं’ करने लगा। दूसरे ही क्षण वह प्रिंसिपल साहब से माफ़ी माँगता हुआ लगभग कह रहा था, ‘‘जी, जी, मैं जानता हूँ कि आप पिकासो के बारे में सबकुछ जानते हैं। जी, कोई बात नहीं। जी, बस हुआ यही था कि उसका ज़िक्र आपने शिवपालगंज में कर दिया। खुद सोचिए, यहाँ कोई पिकासो का नाम सुनने की सोच सकता था ! तभी मुझे ग़श आने लगा। जी, क़सूर, न आपका है, न मेरा; न शिवपालगंज का, न तँबोली का। जी, क़सूर तो पिकासो का है।’’

  प्रिंसिपल साहब रंगनाथ के व्यक्तित्व का विघटन और चूर्णीकरण देखते रहे। फिर आवाज़ को कुछ और गम्भीर बनाकर बोले, ‘‘कभी मैं भी क़ाबिलियत की बातें करने का आदी था। तब मैं एम. ए. में पढ़ता था। तुमने शहर में लौंडियों को सड़क पर चलते हुए देखा होगा। उनमें से कुछ हर बालिग़–नाबालिग़ की तरफ़ बेमतलब अपने को उछालती चलती हैं। बिलकुल वही हालत मेरी थी। मैं यह न देखता था कि कौन प्रोफ़ेसर क़ायदे का है और कौन ईडियट है, हरएक के आगे मैं अपनी क़ाबिलियत उछाल देता था। एक प्रोफ़ेसर उसी में उखड़ गया और मैं ग़च्चा खा गया।...

  ‘‘जान्यौ बाबू रंगनाथ !’’

  वे अब गाँव के बाज़ार से बाहर आ गए थे। शाम हो रही थी। भड़भूजे के भाड़ का धुआँ ऊपर न उठकर सामने ही हिलग गया था। सूरज डूब चुका था। पर रोशनी इतनी थी कि भड़भूजे की लड़की को दुकान पर बैठा देखकर रंगनाथ ने चुपचाप भाँप लिया कि वह देखने लायक है। आबादी लगभग पचास गज़ पीछे छूट गई थी और वह वीरान इलाक़ा शुरू हो गया था जहाँ आदमी कविता, रहज़नी और पाख़ाना तक कर सकता था। परिणामस्वरूप कई–एक बच्चे, कविता और रहज़नी के मामले में असमर्थ, सड़क के दोनों किनारों पर बैठे हुए पाख़ाना कर रहे थे और एक–दूसरे पर ढेले फेंक रहे थे। उनसे कुछ दूर आगे बहुत–सी प्रौढ़ और तजुर्बेकार महिलाएँ भी उसी मतलब से सड़क के दोनों ओर क़तार बाँधकर बैठी थीं। वहाँ पर उनकी बेशर्म मौजूदगी नव–भारत के निर्माताओं पर लानत भेज रही थी। पर इसका पता उन निर्माताओं को निश्चय ही नहीं था, क्योंकि वे शायद उस वक़्त अपने घर के सबसे छोटे, पर लकदक कमरे में कमोड पर बैठे अख़बार, क़ब्ज़ियत और विदेश–गमन की समस्याओं पर विचार कर रहे थे।

  इन दोनों को देखकर वे महिलाएँ पाख़ाने की कार्रवाई को एकदम से स्थगित कर सीधी खड़ी हो गईं और उन्हें ‘गॉर्ड ऑफ़ अॉनर’ जैसा देने लगीं। यह रोज़मर्रावाला दृश्य था। रंगनाथ और प्रिंसिपल साहब इत्मीनान से चलते रहे। वे महिलाएँ भी इत्मीनान से खड़ी रहीं। एक मिमिया�
��ी हुई बकरी उससे और प्रिंसिपल साहब से टकराकर सड़क के किनारे पहुँच गई और महिला के पास रखे हुए लोटे को लुढ़काती हुई पास के एक बाग़ में घुस गई। कुछ बच्चे ढेला फेंकने तथा दूसरे नैसर्गिक काम के साथ–ही–साथ चिल्लाने भी लगे। कुछ उसी हालत में उठकर उस बकरी के पीछे–पीछे दौड़ चले। इस माहौल में रंगनाथ और प्रिंसिपल साहब कुछ देर के लिए चुप हो गए। लगभग दस गज़ आगे बढ़ जाने पर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, औरतें सड़क के किनारे फिर पहले की तरह बैठ गई थीं। प्रिंसिपल साहब ने अपनी बात दोबारा शुरू की–

  ‘‘एक मेरे प्रोफ़ेसर थे, बनर्जी साहब। मुझे इतिहास पढ़ाते थे। उनकी आदत थी कि सीधी बात को भी घुमा–फिराकर कहते थे। उन्हें लोग विद्वान समझते थे।...

  ‘‘मैं नया–नया उनके क्लास में गया था, जिससे वे मुझ पर शुबहा करते थे और इस चक्कर में रहते थे कि मैं भी उन्हें विद्वान् मान लूँ।...

  ‘‘एक दिन वे हमें अशोक के शिला–लेख पढ़ा रहे थे। तब नयी–नयी आज़ादी मिली थी और गौतम बुद्ध, अशोक वगै़रह पर बड़ा ज़ोर था, क्योंकि चीन का हमला नहीं हुआ था और हम अहिंसा के ऊपर बहुत टिल्ल–टिल्ल करते थे। सड़कों और मुहल्लों के नाम तक अशोक और गौतम बुद्ध पर रखे जा रहे थे।

  “प्रोफ़ेसर बनर्जी भी जोश में थे। वे कई दिन से अशोक ही के बारे में पढ़ा रहे थे और बात–बात में बहककर आज की राजनीति में अशोक की क्या खूबसूरती है, इस पर दो–चार जुम्ले बोल जाते थे। उस दिन इधर–उधर की बातें बनाकर वे एक शब्द पर अटक गए।...

  ‘‘वह शब्द था–‘विमान’।

  ‘‘हाँ वही–जैसे पुष्पक विमान। अशोक के शिला–लेख में एक जगह यह शब्द भी आया था। प्रोफ़ेसर बनर्जी ने कहा, ‘तुम लोग विमान का मतलब समझते होगे कि देवताओं की सवारी। मैं पहले ही जानता था कि तुम यही कहोगे; मैं पूछूँगा कि विमान का क्या अर्थ है ? और तुम सब लोग कहोगे कि देवताओं की सवारी।’

  ‘‘रंगनाथ बाबू, इतना कहकर बुड्ढा चुप हो गया और इस तरह मुस्कराने लगा जैसे हम सब उल्लू के पट्ठे हों। मैंने कहा, ‘प्रोफ़ेसर साहब, विमान का एक और भी अर्थ होता है।’ इस पर उसने मुझे हाथ उठाकर चुप कर दिया।

  ‘‘इसके बाद वह खुद ही बोलता रहा और किसी को भी उसने बोलने का मौक़ा न दिया। कहने लगा, ‘‘यही ग़लती प्रोफे़सर भण्डारकर ने भी की थी। बहुत दिन हुए, मैं उनके साथ कुछ जैन–ग्रन्थों पर रिसर्च कर रहा था। वे मेरे साथ अशोक के शिला–लेखों पर रिसर्च कर रहे थे। एक दिन मैंने उनसे पूछा, ‘डॉ. भण्डारकर, विमान का क्या अर्थ है ?’ उन्होंने कहा, ‘बनर्जी, यह तो सभी जानते हैं। इसका सामान्य अर्थ है सवारी की सवारी।’

  ‘‘रंगनाथ बाबू, प्रोफ़ेसर बनर्जी यह क़िस्सा रुक–रुककर, बड़ा भारी सस्पेंस पैदा करके, सुना रहे थे और सब लड़के भकुआ–जैसे मुँह–बाये सुनते जा रहे थे। थोड़ी देर चुप रहकर वे फिर बोले, ‘विद्यार्थियो, मैंने डॉ. भण्डारकर की बात का प्रतिवाद किया। उन्हें बताया कि इस शिला–लेख में विमान का यह अर्थ नहीं है। भण्डारकर ने मुझसे पूछा कि तो फिर इसका क्या अर्थ है; और विद्यार्थियो, मैंने कहा कि इसका अर्थ कुछ और ही है।’

  “प्रोफ़ेसर बनर्जी ने बताया कि इसी पर डॉ. भण्डारकर उनका मुँह देखने लगे। कहने लगे, ‘संस्कृत में सभी कोशों का मैंने अध्ययन किया है। विमान का यही सामान्य अर्थ है–आकाशगामी यान। और बनर्जी, तुम यह कैसे कहते हो कि इसका अर्थ कुछ और है ?’ इसका जवाब मैंने यह दिया कि ‘डॉक्टर, मैं भी पहले यही समझता था। संस्कृत–साहित्य और व्याकरण पढ़ते हुए आधी उम्र मैंने भी बितायी है। मेरा भी यही विचार था। विमान का अर्थ जानने के लिए संस्कृत का नहीं, प्राकृत का अध्ययन करना पड़ेगा। मैंने कई जैन–ग्रन्थों का प्राकृत अध्ययन किया है। डॉ. भण्डारकर, क्या तुम प्राकृत जानते हो ?’

  ‘‘रंगनाथ बाबू, प्रोफ़ेसर बनर्जी यह क़िस्सा बड़े मजे़ में सुनाते रहे। बोले, ‘भण्डारकर को प्राकृत नहीं आती थी, या उतनी नहीं आती थी जितनी मुझे आती थी। इसलिए मैंने उन्हें प्राकृत के एक ग्रन्थ का अध्ययन कराया, जिसमें विमान शब्द का प्रयोग उसी अर्थ में किया गया था जो इस शिला–लेख में है। विद्यार्थियो, तब कहीं जाकर उन्हें विमान के असली अर्थ का पता च�
��ा।’

  ‘‘बाबू रंगनाथ, मैं गाँव का आदमी, ऊपर से बाँभन, और फिर ऐक्स ज़मींदार, बनर्जी का यह पाखंड सुनकर मेरी देह सुलग गई। तबीयत में आया कि उसकी गरदन पकड़कर इतने ज़ोर से झुलाऊँ कि विमान का असली मतलब टप्–से हलक़ के बाहर निकल पड़े। तब तक बनर्जी ने कहा कि ‘विद्यार्थियो, विमान का असली अर्थ यह नहीं था जो भण्डारकर समझते थे या तुम समझते हो। विमान का असली अर्थ कुछ और ही है।’

  ‘‘आख़िर में बनर्जी एकाएक जोश में आकर बोले, ‘विमान का अर्थ है–सतमंज़िला महल ! नोट कर लो !’

  ‘‘सन्नाटा छा गया, रंगनाथ, मुझे भी अपनी क़ाबलियत का जोश। वहीं लौंडहाई कर बैठा। मैंने खड़े होकर कहा कि प्रोफ़ेसर साहब, विमान का यह अर्थ तो संस्कृत के सभी पण्डित जानते हैं। इसमें इतनी रिसर्च की क्या ज़रूरत है !’

 

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